माँ के आँचल सीप की मैं एक मोती...
थी नयन के दीप की नन्हीं सी ज्योति...
थाम कर उंगली किसी की चल रही थी...
बैठ काँधे पे किसी के खिल रही थी...
प्रेम के दो साज़, उनकी रागिनी थी...
मैं किसी के बाग की नन्हीं कली थी...
स्वाद ममता का सदा भरपूर पाया...
पितृ फल भी प्रेम का भरपूर खाया...
भातृ के कोमल हृदय की लाडली थी...
प्रेम के उस स्वर्ग की सुंदर परी थी...
छोड़ कर बचपन मैं आगे बढ़ चली थी...
मैं किसी के बाग की नन्ही कली थी...
फिर लगे सब स्वप्न सारे टूटने से...
खेल सब, साथी सुहाने छूटने से...
लाल जोड़े मे सजी कुछ अनमनी सी...
आँख मे सबके दिखी थोड़ी नमी सी...
बात कन्या जन्मने की, तब खली थी....
मैं किसी के बाग की नन्ही कली थी...
फिर घड़ी आई मुझे घर छोड़ना था...
प्रेम का वो क्रम निराला तोड़ना था...
मैं चिपक के माँ से अपने रो रही थी...
मन के आँगन की खुशी सब खो रही थी...
फिर विदा होकर अपरिचित हो चली थी....
मैं किसी के बाग की नन्ही कली थी...
मैं वहाँ पहुँची तो मन मे भय समाया...
अंश मैने प्रेम ना, ममता का पाया...
स्वार्थ लालच से ही सब आँखें भरी थी...
सात दिन के बाद ही मैं चल बसी थी...
थी लगाई आग, उसमें मैं जली थी....
मैं किसी के बाग की नन्ही कली थी...
1 टिप्पणियाँ:
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति ..........
मेरे ब्लॉग पर आने के लिये धन्यवाद
एक टिप्पणी भेजें