'मजदूर'....

Author: दिलीप /

यूँही लेटा देख रहा था, उजाले के रखवालों को...
रात की चादर पे उल्टा लटके, जागते तारों को...
फिर आँखें बोझिल हुई, कुछ तस्वीरे चमक उठी...
एक सुंदर स्वप्न की कली, पलक पीछे महक उठी...

स्वप्न नहीं, शायद कोई पुरानी, माँ की कहानी थी...
महल था, उसका मैं राजा, मेरी पत्नी रानी थी...
बड़े आँगन मे खेल रहे थे, मेरे जिगर के टुकड़े...
एक हान्थ मे खिलौने, तो दूसरे मे मेवों के टुकड़े...

आस पास नौकर थे, फलों की टोकरियाँ भरी थी...
स्वादिष्ट व्यंजनों से भारी थालियाँ पास मे धरी थी...
हम चारों के ही चेहरे बहुत उजले लग रहे थे...
दुख, दर्द, ये शब्द तो बहुत धुंधले दिख रहे थे...

तभी एक बच्चे ने खेलने की जिद्द की, चाँद से...
मैं बस उठा, और उतार लिया चाँद एक हान्थ से...
फिर अचानक जाने क्या हुआ, दुनिया हिल रही थी...
आँख खुल गयी और देखा, पत्नी सामने खड़ी थी...

मैं अलसाया सा उठा फिर पत्नी को देख मुस्कुराया...
बगल की चारपाई पे अपने नन्हों को भी सोता पाया...
फिर कच्चे ईंटों से बनी झोपड़ी पे नज़र गयी...
एक कोने से, पंनी वाली छत थी कुछ उधड गयी...

फिर देखा कुछ कंकड़ पड़े थे बच्चों के बिछौने पे...
सोचा यही तो उन बेचारों के खजाने थे, खिलौने थे...
फिर मेरी भूखी आँखों को वो सर्द चूल्‍हे खल गये...
उठे और भूखे पेट ही सब काम पर निकल गये...

चलते चलते मुन्ना ने चाँद नहीं, रोटी माँग ली...
नम आँखों से उसे गोद मे लिया, गहरी साँस ली...
फिर आसमान देखा, सोचा कितना मजबूर हूँ मैं...
रोज़ कड़ी मेहनत करके भी भूखा, 'मजदूर' हूँ मैं...

रोज़ जाने दूसरों के कितने नये महल बनाता हूँ...
फिर लौट कर अपनी टूटी झोपड़ी में सो जाता हूँ...
मेरे हान्थ जाने कितने सपनो की नीव बनाते हैं...
और मेरे सपने तो उसी नीव मे कहीं दब जाते हैं...

कायर हैं हम, वीर नहीं...

Author: दिलीप /

कायर हैं हम, वीर नहीं...

शत्रु के क्रूर प्रहारों को...
माँ पे होते सब वारों को...
इस झुकी मेरु पे सहते हैं...
फिर हो गर्वित हम कहते हैं...

'भारत संतति है धीर बड़ी'
अरे कायर हैं हम, वीर नहीं...

बस शत्रु पनपते जाते हैं...
अभिमन्यु सब घबराते हैं...
अब विदुर अर्ध विक्षिप्त हुए...
और कृष्ण रास मे लिप्त हुए...

है द्रुपद सुता बिन चीर खड़ी...
अरे कायर हैं हम, वीर नहीं...

हम लुटा अस्मिता चुप बैठे...
ये अंधकार हो घुप ऐन्ठे...
मस्तक यूँही कट जाता है...
पर क्रोध कभी न आता है...

न नयन बहाते नीर कभी...
अरे कायर हैं हम, वीर नहीं...

सब बाल हान्थ है लिए अस्त्र...
न अन्न बचा न बचे वस्त्र...
हर दिशा मृत्यु है नाच रही...
न हृदय मे कोई आँच बची...

ममता दिखती है पीर मई...
अरे कायर हैं हम, वीर नहीं...

घर भीतर घुस अरि लूट गये...
हम भाँति नपुंसक खड़े रहे...
बुद्धि अपनी बौराई सी...
भारत माता घबराई सी...

है मृत्यु सरोवर तीर खड़ी...
अरे कायर हैं हम, वीर नहीं...

क्रांति...

Author: दिलीप /

सुप्त चक्षु पे सज्जित हो, वह स्वप्न नहीं...
आरंभ तो हो पर अंत नहीं, वह यत्न नहीं...
क्षमा नहीं, अपमान सभी विस्मृत कर दूँ...
न क्रोध, अनर्थी ज्वालायें विकसित कर लूँ...

स्वर्ण नहीं, कि स्वयं का मैं व्यापार करूँ...
हूँ मद्य नहीं, पथभ्रष्टो का अवतार बनूँ...
वो बान नहीं, जो लक्ष्य से अपने भटक गया...
अवसाद नहीं, जो टूट हृदय से छटक गया...

मैं जलते जलते बुझ जाए, वह दीप नहीं हूँ...
मोती आँचल मे छुपा रहा, वह सीप नहीं हूँ...
भस्म बने जो क्षण भर में, अंगार नहीं मैं...
महलों मे रहने वालों का, संसार नहीं मैं...

मैं सूर्य नहीं ऐसा, कि जिसको ग्रहण लगे...
न हूँ मद मे यूँ चूर, किधर भी चरण चलें...
मैं चंद्र नहीं, शीतलता का पर्याय बनूँ...
मैं मोह नहीं, जो स्वार्थ पूर्ण निर्वाह बनूँ...

मैं शोक नहीं, जो मन मुक्तायें बरसाऊं...
हूँ आस नहीं, जो मन को बस मैं भरमाऊं....
मैं नहीं तुला, जो पाप पुण्य को तोल रही हो...
हूँ कलम नहीं, जो कायर की जय बोल रही हो...

मैं चक्रवात हूँ, मलय पवन का स्रोत नहीं हूँ...
मैं सूर्य कोटि हूँ, बुझने वाली ज्योत नहीं हूँ...
मैं वारिधि से गहरी, अंबर से उँची हूँ मैं...
बस शौर्य पराक्रम गाथाओं की सूची हूँ मैं....

कुचल रहे दुर्बल जन का आक्रोश हूँ मैं...
परिवर्तन सम अर्थी शब्दों का कोष हूँ मैं...
मैं शोषित जनता मे फूटा विश्वास नया...
मृत प्राय हुई मानवता का हूँ श्वास नया....

ब्रह्मांड हिला के रख दे जो वह तीव्र शक्ति हूँ...
मैं तो करती बस सत्य, ग्यान की भक्ति हूँ....
जो लुप्त कभी हो जाए, ऐसी भ्रांति नहीं मैं...
नव सृजन लक्ष्य संधान करूँ, वह क्रांति नयी मैं...

अम्मा बहुत अकेली हैं.....

Author: दिलीप /

ओ मस्त पवन पूरब वाली, कितनी नम होकर आई हो...
भरे खजाने वाले तुम, क्या बादल छू के आई हो...
क्या संदेसा देश का मेरे, संग संग अपने लाई हो...
लगता है खुशियों की प्यारी, गंध समेटे आई हो...

बतलाओ क्या आँगन वाले आम मे बौरें आई हैं...
सावन की मतवाली बदली घुमड घुमड क्या छाई है..
अब भी अम्मा सुबह सुबह क्या, तुलसी पूजा करती हैं...
गली किनारे गुमटी मे क्या, गर्म जलेबी छनती है...

छत पे सजे गुलबों से क्या, अब भी खुश्बू आती है...
घर से दूर की झुग्गी मे क्या, अब भी जलती बाती है..
महरी की वो प्यारी मुनिया, अब क्या पढ़ने जाती है...
अब भी क्या कोयल पेड़ों पे, छुप छुप गुन गुन गाती है...

अब भी क्या बारिश होने पे, बच्चे नाव बनाते हैं...
रेत के ऊँचे टीलों पे क्या, अब भी महल सजाते हैं...
अब भी क्या गुब्बारे वाले, हर छुट्टी पे आते हैं...
अब भी क्या बंदर भालू, आते हैं, नाच दिखाते हैं...

क्या बतलाऊं आम कट गया, सूखा सूखा मौसम है...
सूख गये तुलसी, गुलाब सब, झुग्गी मे भी मातम है...
महरी की मुनिया क्या पढ़ती, वो भी बर्तन धोती है...
कोयल भी अब दूर कहीं पे, छत पे बैठी रोती है...

बचपन नावें नहीं बनाता, गुब्बारे सब फूट गये...
कब तक खाली पेट नाचते, बंदर भालू रूठ गये...
गीली हूँ क्यूंकी ख़ालीपन, भरी निगाहें झेली हैं...
भैया जल्दी वापस जाओ, अम्मा बहुत अकेली हैं...

रात इक बस्ती जली थी....

Author: दिलीप /

मैं अकेला सा पड़ा, खटिया को अपनी तोड़ता...
नभ के तारों की चमक मे, स्वप्न अपने जोड़ता...
चाँद बन रोटी का टुकड़ा, जी को था ललचा गया...
भूख के बूढ़े हुए, बच्चे को कुछ बहला गया...

जाने फिर था क्या हुआ, हड़बड़ा के मैं उठा...
दूर थोड़ी सी धुवें की चादरें उड़ती दिखी थी...
रात इक बस्ती जली थी....

दिल के टूटे साज़ से, आवाज़ कोई भी ना आई...
व्यर्थ मे ही सो चुकी, इंसानियत थी हड़बड़ाई...
हंस रहा हैवान फिर था, उस धधकते ज्वाल मे...
देख मैं फिर खो चला, निद्रा के मायाजाल मे...

फिर से बिस्तर पे गिरा,आँख मूंदी सो गया...
आत्मा की रोशनी, उस आग मे सब बुझ गयी थी...
रात इक बस्ती जली थी....

फिर सुबह की लालिमा थी, स्याह रंगो मे रंगी...
थी हवा मे राख कुछ, अरमान की बाकी अभी...
फिर सुना जब क्यूँ लगी थी आग, सब कुछ छोड़कर...
देखने अचरज से पहुँचा वो जगह, मैं दौड़कर...

न तो हिंदू ने छुआ और न ही मुस्लिम ने छुआ...
किस जलन मे जल गयी, ये बात तो बिल्कुल नयी थी...
रात इक बस्ती जली थी....

माँ, चाहता तो हूँ मगर मैं आ नही सकता...

Author: दिलीप /

मत सोच लेना की मुझे कुछ याद नही है,
इन आँसुओं संग मिलन की फरियाद बही है,
मन मे मेरे बस घाव है व आँख मे नमी,
शायद मेरा सब हर्ष सब उन्माद वहीं है,

लगता है पुनः हर्ष गीत गा नही सकता,
माँ, चाहता तो हूँ मगर मैं आ नही सकता,

बचपन क्या गली मे अभी भी खेल रहा है,
वो स्वान क्या अभी भी ठंड झेल रहा है,
क्या मंदिरों मे बज रही है अब भी घंटियाँ,
क्या फिर पवन के साथ झूम बेल रहा है,

जानता हूँ इनके उत्तर पा नही सकता,
माँ, चाहता तो हूँ मगर मैं आ नही सकता,

व्यर्थ है ये चंद्र और ये चाँदनी निर्मल,
घात करती है हृदय पे वायु भी शीतल,
पक्षियों का चहचाहना शोर लगता है,
चुभ रहे है कंटाकों से फूल भी कोमल,

स्पर्श-सुख तुझसा मैं इनमे पा नही सकता,
माँ, चाहता तो हूँ मगर मैं आ नही सकता,

होलिका के संग शायद मैं भी जलता हूँ,
रंग के संग संग हृदय मे मैं भी घुलता हूँ,
दीपावली भी क्या नयी सौगात लाती है,
उसकी अंधेरी ठंड मे घुट घुट मैं गलता हूँ,

क्या करूँ कुछ स्वयं को समझा नही सकता,
माँ, चाहता तो हूँ मगर मैं आ नही सकता,

दायित्व के गणितो मे जीवन फँस सा गया है,
फन्दो मे चार कौड़ियों के कस सा गया है,
कोई नही है अब जो यहाँ थाम ले मुझे,
मुझ पर तो मेरा भाग्य भी अब हंस सा रहा है,

कैसी है ये पहेलियाँ सुलझा नहीं सकता,
माँ, चाहता तो हूँ मगर मैं आ नही सकता,

भगिनी की राखियों का मोल चार कौड़ियाँ?
माता के अश्रुओं का मोल चार कौड़ियाँ?
क्या भातृ के भी प्रेम का अब मोल है कोई,
है पितृ आशाओं का मोल चार कौड़ियाँ?

रिश्तों का ये व्यापार मैं चला नही सकता,
माँ, चाहता तो हूँ मगर मैं आ नही सकता....

याद का ठेला....

Author: दिलीप /

कल कई दिन बाद, मन की सीढ़ियाँ चढ़ी...
थी इक पतंग याद की, कट के वहाँ पड़ी...
वो डोर उस पतंग की, फैली थी दूर तक...
थाम डोर चल पड़ा, मैं मन की वो सड़क...
अंत मे सड़क के, इक दीवार थी मिली...
खिड़की थी एक बस वहाँ, और वो भी थी खुली...
झाँक कर देखा, तो थी आँखें चमक उठी...
बचपन की किताबों की, जब हल्की झलक मिली...

साइकिल पे हो सवार, वहाँ चल रहा था मैं...
थी मई की धूप, और जल रहा था मैं...
ज़िंदगी, पहियों मे चल रही थी घूम कर...
घर की तरफ ही जा रहा था, झूम झूम कर...
बाई ओर देख, फिर था दिल उछल गया...
इम्लियों, अमरूद से, ठेला था इक सज़ा...
फिर एक हाथ, यूँ सरक, था जेब मे गया...
उसमे था, दो रुपये का सिक्का पड़ा हुआ...

पानी वो लालसा का, मुँह से मन मे घुस गया...
साइकिल को रोक, मैं वहाँ फ़ौरन पहुँच गया...
औरत थी एक वृद्ध सी, बैठी हुई वहाँ...
साड़ी थी लाल रंग की, चेहरे पे झुर्रियाँ...
बचपन की थी मासूमियत, अब भी बची हुई...
आदत नये रिश्ते बनाने की, अभी भी थी...
मन ने मेरे उनको था, अब दादी बना लिया...
और पूछ लिया, कितने मे अमरूद है दिया...

फिर मुस्कुरा के जब उन्होने दाम बताया...
मैने भी गणित ग्यान का फिर चक्र घुमाया..
सब जोड़ जाड से था जब दिमाग़ थक गया...
सिक्का निकाल के था फिर ठेले पे रख दिया...
मैने कहा दादी ये सिक्का दो का तुम ले लो...
इतने मे जितने भी मिले उतने मुझे दे दो...
वो देख कर मुझे हँसी तो मैं भी हंस पड़ा...
क्यूंकी न उनके मुँह को कोई दाँत था बचा...

वो कहने लगी दो मे बस ये चार चढ़ेंगे...
इतने मे तुमको इतने से ज़्यादा ना मिलेंगे...
मुझको लगा की हो न हो दादी हैं ठग रही...
लगता है मुझे हैं अभी बच्चा समझ रही...
मैने तराजुओं का फिर था पड़ला हिलाया...
बेकार थी कोशिश था मैने कुछ नही पाया...
इस हार पे था मन मेरा मायूस हो गया...
लेकिन उन्होने उसमे था इक और रख दिया...

ये लाभ देखकर था मेरा मन उछल पड़ा...
फिर लेके मैं अमरूद, अपनी राह चल पड़ा...
फिर सिलसिला खरीद का, बढ़ता चला गया...
संबंध इक अबूझ था, बनता चला गया...
हम दोनो ने संवाद का इक पेड़ उगाया...
कुछ पल को वहाँ रुक, उसे फिर और बढ़ाया...
2- 3 वर्ष तक ये क्रम बस यूँही था चला...
फिर एक दिन देखा तो वो ठेला वहाँ ना था....

फिर राह वो खाली सी मुझे रोज़ ही दिखी...
दादी की वो कमी मुझे थी दिल मे तब चुभी...
बदल गया स्कूल, फिर जीवन बदल गया...
घर के लिए चुनता था अब मैं रास्ता नया...
दादी वो मेरे मन की बस इक याद हो गयी...
संबंध की वो झाड़ियाँ सारी ही खो गयी...
कुछ साल बीतते गये, साइकिल भी खो गयी...
गाड़ियाँ चलने का, अब साधन थी हो गयी...

फिर एक दिन गुजर रहा था, राह वही थी...
पर देखने की अब किसी को चाह नही थी...
पर तब ही दाई ओर जैसे इक नज़र फिरी...
इक पल को फिर बिखरी हुई तस्वीर इक जुड़ी...
यादों का था उस ओर इक मेला लगा दिखा...
बरसों के बाद फिर वहाँ ठेला लगा दिखा...
पर पास गया आँख की उम्मीद खो गयी...
इमली भी थी, अमरूद भी, दादी वहाँ ना थी...

इक आदमी वहाँ पे उस ठेले पे जमा था...
बचपन भी एक बस वहीं कोने मे पड़ा था...
मुझसे रहा नही गया और पूछ ही लिया...
दादी यहाँ पे बैठती थी वो गयी कहाँ...
उसने कहा कुछ साल पहले वो तो मर गयी...
मन पे मेरे इक ज़ोर की बिजली थी गिर गयी...
वो तस्वीर मन ही मन नज़र के सामने ही थी...
कुछ बूँद दर्द की तभी आँखों से गिर पड़ी...

फिर जेब से बटुआ निकाल ढूँढता रहा..
पर आज दो रुपये का कोई सिक्का ना मिला...
फिर दस का एक नोट मैने उसको दे दिया...
बदले मे उससे ढेर सा अमरूद ले लिया...
अमरूद आज थे बहुत नमकीन लग रहे...
भाव मन को आज थे जी भर के ठग रहे...
फिर ज़ोर से हवा चली पतंग उड़ गयी...
भावना हृदय की थी ज़मीन पे पड़ी...
बस फिर से एक बार सब था याद बन गया...
मैं ज़िंदगी की राह पे कुछ और बढ़ गया....

दिल की टीस...

Author: दिलीप /


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

मेरे हालात तुझसे दूर कैसे हैं, मैं क्या बोलूं...
मैं खुद्दारी को आँसू से भला तोलूं तो क्यूँ तोलूं....
बहुत मुश्किल से दिल मे पीर का दरिया सम्हाले हूँ...
समझदारी के उँचे बाँध ये खोलूं तो क्यूँ खोलूं...

क्या जानो तुम बड़ी मुश्किल से, यादों को भुलाया है...
खटोले सच के सब टूटे, यूँ ख्वाबों को झुलाया है...
ये मेरे प्यार का बच्चा, बिलखता था , सिसकता था...
इसे बिखरे, खनकते दिल की तालों पे सुलाया है...

ये यादों से बुना कंबल उधेड़ो, क्या भला होगा...
ये टूटे साज़ के फिर तार छेडो क्या भला होगा...
इन आँखों के समंदर से उछल जो दूर बिखरे थे...
वो मोती, शुष्क आँखों मे समेटो क्या भला होगा...

वो मीठी प्यार की बातें, ये दिल अब कह ना पाएगा...
चुभन दुर्भाग्य के काँटों की मन ये सह ना पाएगा....
अगर मन की किताबों के, दो पन्ने भीग भी जाए...
तुम्हारे प्रेम दरिया मे ये मन फिर बह ना पाएगा...

मेरे मन की बुझी लौ को जलाने, फिर ना आना तुम...
हृदय के खंडहर को अब सजाने, फिर ना आना तुम...
मेरे इस मन के चूल्हे मे है बस कुछ राख ही बाकी...
ये रोटी प्यार की अपनी, पकाने फिर ना आना तुम...

मैं कुल्हड़ मे रिवाजों के, तुम्हारा प्यार पी आया...
समझदारी के धागों से, मैं दिल के घाव सी आया...
मैं जीवित ही नही हूँ और, अब तुमसे मैं क्या बोलूं....
जो पल जीने की इच्छा थी, तुम्हारे साथ जी आया....