जियेंगे कब तलक यूँही गले में फाँस लिए...

Author: दिलीप /

गुज़रे वक़्त की सोहबत में कुछ एहसास लिए...
मैं चल रहा हूँ जाम लेके दिल में प्यास लिए...

मैने नज़मों को रगों में लहू सा दौड़ाया...
ज़िंदगी जी ली शेर पढ़के, बिना साँस लिए...

मैं चल पड़ा हूँ, अपने अश्क़, नज़्म, ग़म लेकर...
न किसी आम की ख्वाहिश न कोई ख़ास लिए...

तेरे शहर की उस गली से आज फिर गुज़रा...
चाँद अब भी वही रहता हो, यही आस लिए...

चमकते कल की जुस्तजू में मैं तो निकला हूँ...
लोग माज़ी की चल रहे हैं, सिर पे लाश लिए...

चलो मिलकर अब नये ख्वाब की बुनियाद रखें...
जियेंगे कब तलक यूँही गले में फाँस लिए...