मेरे हाथों मे अपना हाथ दो और फिर देखो...

Author: दिलीप /

मेरे हाथों मे अपना हाथ दो और फिर देखो...
लकीरें जोड़ के तस्वीर नयी बनती है...

मुझे मालूम नहीं हैं शनि राहु केतु...
उस चौकोर से डब्बे का कोई मतलब ही...

अगर होता भी है तो मिलके हम बनाएँगे...
वो चौकोर से डब्बे की नयी तस्वीरें...

जिसके खानों में होगा प्यार, सहारा मेरा...
तेरे होंठों की ज़रा सुर्खियाँ सजाएँगे...

किसी खाने में होगी तेरी वफ़ाएँ जानम...
उसी के सामने मेरी भी हसरतें होंगी...

किसी खाने में तेरी आँख के जो अश्क़ हुए..
उसी के सामने मेरे भी लब रखे होंगे...

तेरी मासूमियत को रख के किसी खाने में...
उसी के सामने मेरी समझ बिठा दूँगा...

तेरी हँसी की बनी होंगी चारों दीवारें...
लकीरें बीच की हम दोस्ती से खींचेंगे...

कहीं दिखा जो अगर एक भी बुरा एहसास...
तो दोनो छाप अपने हाथों की सज़ा देंगे...

जब यूँ पूरी सी कुंडली बनेगी यारा...
मैं उसके बीच में इक नज़्म अपनी रख दूँगा...

जो ज़माने के पंडितों को समझ आया...
मैं उन ढाई से अक्षरों की बात करता हूँ...