नन्हा सा भिखारी

Author: दिलीप /

रात पूनम की है, नन्हा नहीं समझता ये...
रात, बेबस निगाह लेके है वो घूर रहा...
वो सोचता है वो सिक्का कभी गिरेगा कहीं...
अपने आका की पिटाई से वो बच जाएगा...

वो मासूम सा नन्हा सा भिखारी देखो...
हाथ फैलाए, दौड़ता है सड़क पर तन्हा...

मुझको भी तुम औरत कर दो...

Author: दिलीप /



मेरे कानों में बाँध दो झनकते सन्नाटे...
मेरे होंठों पे सुर्ख लाल सी चीखें रख दो...

मेरे माथे पे गोल चोट दो, कि खून रिसे...
मेरे हाथों मे गोल खनखनाती हथकड़ियाँ...

मेरे सूखे हुए अश्कों में अंधेरा घोलो...
सज़ा दो उसको मेरी आँख पे काजल की तरह...

गले में बाँध दो मजबूरियों का साँप कोई...
मेरी चोटी में अपनी काली हसरतें भर दो...

अपनी आँखों की पुतलियों को तुम बड़ा करके...
उन्हे जोड़ो, मेरे सीने से बाँध दो उनको....

मेरी कमर पे अपनी आँख की हवस बांधो....
हो मेरी उंगलियों में आग का छल्ला कोई...

मेरे पैरों में चमचमाती बेड़ियाँ बांधो...
उनमें खामोशियों के सुन्न से घुंघरू भी हों...

तुमने मर्दानगी को जब बना दिया गाली...
मुझे भी नोच लो, मुझको भी तुम औरत कर दो...

सूखा अख़बार खाया नहीं जाता मुझसे...

Author: दिलीप /

स्टेशन पर खड़ा था...
ट्रेन लेट थी...
भूख सी लगी...
सामने अख़बार मे लिपटी...
आलू पूड़ी बेचने वाला दिखा...
उससे खरीदा और खा ही रहा था...
कि एक सात-आठ साल का लड़का...
खड़ा हो गया सामने...
घूरने लगा...
मैने मुँह मोड़ा, पूडिया निपटाई...
और जैसे ही अख़बार फेंकने वाला हुआ...
उसने वो अख़बार माँग लिया...
मैने पूछा क्या करेगा...
पढ़ा लिखा है क्या...
बोला पढ़ा लिखा तो नहीं हूँ...
पर सुना है अख़बार में बड़ी चटपटी खबरें आती हैं...
ऊपर से वो आलू की सब्जी का मसाला भी ला गया है उसपे...
अख़बार और चटपटा हो गया है...
मैने पूछा, 'तो'?
बोला, 'तो क्या दो काम हो जाएँगे...
स्टेशन साफ भी रहेगा...
और ये अख़बार खाकर भूख भी मिट जाएगी...
साहब जीभ बड़ी चटोरी है मेरी...
इसीलिए सब 'चटोरा' बुलाते हैं...
सूखा अख़बार खाया नहीं जाता मुझसे...

उनके लिए वो बस आतंकवादी था...

Author: दिलीप /


हिंदू, मुसलमान...
उसका मज़हब तो ग़रीबी था...
भारत पाकिस्तान...
उसका मुल्क तो मुफ़लिसी के...
फुट बाई फुट में घिरा...
एक ज़मीन का टुकड़ा था...
जिहाद जानता था...
धर्म युद्ध...
बस भूख जानता था...
और जानता था उसका दर्द...
इसीलिए उसे मज़हबी आकाओं के इशारे पर...
मरते मारते देखा...
ज़िंदा लोगों को एक पल में चीर देता था...
उस खून में उसको...
अपने घर का मुस्तक़बिल दिखता था...
या कभी यूँही खुद को भीड़ मे जाके...
उड़ा देता था...
धुएँ के गुबार में हंसते उसको अपने दिखते थे...
लोगों का क्या है...
उनके लिए वो बस आतंकवादी था...
जिहादी था...
या धर्मांध था...