यहाँ मुस्तक़बिल मरा था कोई...
इस अधनन्गे हड्डी के ढाँचे सी इमारत में...
ख्वाब उछलते थे दिन भर...
नन्ही नन्ही मुस्कानो, किल्कारियों वाले ख्वाब...
एक ही सुर में पाठ कोई चिल्लाते थे सब...
जैसे कोई शंख बजा हो...
एकाएक इक रोज़ अचानक...
शोर हुआ था...
एक धमाके से किल्कारी जाने कितनी दूर दूर...
टुकड़ों
टुकड़ों में बिखर गयी थी...
ख्वाबों
के नन्हे नन्हे जले हाथ देखे थे मैने...
किल्कारी के पैरों की वो चप्पल भी तो राख हो गयी...
बम फेंका था किसी बड़े से मुल्क़ ने कोई...
यही कहीं पर था जो वो स्कूल उड़ा था...
झूठे कोई मुस्तक़बिल की साँस की खातिर...
यहाँ मुस्तक़बिल मरा था कोई…
4 टिप्पणियाँ:
संवेदनायें ठहर जाती है, वेदनायें मुखर हो जाती हैं।
मार्मिक......
अनु
मार्मिक.........अनुत्तरित हूँ।
बेहतरीन रचना..मार्मिक.
पधारें "आँसुओं के मोती"
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