हमें क्या करना इस हिन्दुस्तान से , उजड़ने दो, अगर उजड़ रहा है...

Author: दिलीप /


जब भी कहीं गोली चलती है,
जिन पे गोली चलती है , उनके लिए तड़पते तड़पते उनका हिन्दुस्तान मरता है,
जिनके अपनों पर गोली चलती है, उनके लिए डरा सहमा नया हिन्दुस्तान बनता है,
बाकी के लिए क्या ग़ज़ब हो गया, ऐसे ही तो हमारा हिन्दुस्तान चलता है,

क्या बिगड़ जाता है हिन्दुस्तान का , कुछ एक सौ हज़ार के मर जाने से,
किसी और ज़मीन के टुकड़े पे, उस आतंक की गोली का अपना काम कर जाने से,
क्या लोग उस दिन भर पेट खाना नही खाते, वो जिन्हें किस्मत से मिल जाता है,
या उन्हे चैन की नींद नही आती, या कोई किसी क्लब, पार्टी मे नहीं जाता है, 

कुछ नही बदलता, सब कुछ वैसे ही चलता है जैसे कहीं कुछ हुआ ही नही,
किसी जवान, बच्चे या औरत की मौत ने भी किसी दिल को जैसे छुआ ही नही,
लोग टीवी पे समाचार भी नही सुनते, क्यूंकी उनके लिए तो ये रोज़ की बात है,
सोचते हैं सुबह होने दो सब फिर से सही हो जाएगा, अभी तो रात है,

देखते भी है, तो बीच मे अपनी सास बहू की कहानियाँ भी निपटाते है,
फिर हंसते है, खाते है, फिर बिना किसी अफ़सोस के जाके चैन से सो जाते है,
उन घरों का क्या जिसमे शायद अब कोई टीवी चलाने वाला भी नही बचा होगा,
जिसका कोई भाई, कोई माँ, कोई बाप वहीं कहीं ठंडी लाशों मे पड़ा होगा,

उस माँ के आँसुओं का क्या, जिसका बेटा कभी ऑफीस से लौट ना पाया हो,
जिसका लाल स्कूल से तो एक निकला हो, पर घर टुकड़ों मे पहुँच पाया हो,
उस बाप की लाचारी का क्या, जो अपने जवान बेटे की अरथी के बोझ तले दबा हो,
उन माँगों का क्या अभी सजी थी और अगले ही पल जिनका सब कुछ उजड़ गया हो,

उन कलाइयों का क्या जो अब आने वाले हर रक्षाबन्धन पर सूनी ही रहेंगी,
मासूम निगाहों का क्या जो अब खुद को थामने वाली उंगलियाँ तलाशती रहेंगी,
पर हमे क्या, हमने तो उनके क़र्ज़ की अपनी किश्तो मे से एक किश्त चुका दी,
आज तो बाहों पे काली पट्टियाँ बाँध ली, थोड़ी देर तक मोमबत्तियाँ जला ली,

अब तो इंतज़ार करेंगे एक साल बीतने का और अगली सालगिरह मनाने का,
नही तो कोई नयी सालगिरह मना सके, ऐसी किसी घटना के फिर से हो जाने का,
सरकार भी अपना काम कर रही है, उसने उनकी मौत की कीमत लगा दी है,
और उस कीमत को अपने अगले बजट मे, एक महत्वपूर्ण जगह भी दे दी है,

हमारा क्या जा रहा है, हम कुछ नही करेंगे, हमारा क्या बिगड़ रहा है,
हम तो मराठी हैं, या बिहारी हैं, या राजस्थानी हैं, या फिर कहीं और के,
हमें क्या करना इस हिन्दुस्तान से , उजड़ने दो, अगर उजड़ रहा है...

तुम ज़रा मुन्डेरो पे चढ़ना, देखो कुछ बादल आए हैं....

Author: दिलीप /


सरपत की सींकों के झुरमुट , मेड़ों पे तन कर झूम रहे...
तोते भी हो उन्मुक्त आज, घर के पिंजरों मे घूम रहे...
दिनकर जी अपने रथ को ले, जा दूर कहीं पर दुबके हैं...
चुपचाप पपीहे चोंच खोल, अमृत पाने को लपके है...

धरती अंबर के पुनर्मिलन का शुभ संदेशा लाए हैं...
तुम ज़रा मुन्डेरो पे चढ़ना, देखो कुछ बादल आए हैं....

आँखों की कोरी चित्रकला, अब रंगों से भर जाएगी...
बूढ़ी सी जर्जर धरती भी, यौवन का अमृत पाएगी...
अब खोल किवाड़ कली अपने, भंवरों को पास बुलाएगी...
बूँदों के दर्पण ताक- ताक हौले हौले शरमाएगी....

बूढ़े बैलों के शक्ति कमल, देखो कैसे खिल आए हैं...
तुम ज़रा मुन्डेरो पे चढ़ना, देखो कुछ बादल आए हैं....

जो मायूसी मे था डूबा, वो श्रृंगारी हो जाएगा...
ये बाल्यकाल भी मेघों का, कुछ अभारी हो जाएगा...
अब तबलों पे मंडूक सभी, कुछ अपनी ताल सुनाएँगे...
थी केश रहित, इस धरती पे कुछ हरे केश उग आएँगे...

जिस धरा को विधवा समझ रहे, अब उसके प्रियतम आए हैं...
तुम ज़रा मुन्डेरो पे चढ़ना देखो कुछ बादल आए हैं....

नन्हे हान्थो से काग़ज़ के, फटने का क्रम आरंभ हुआ..
धरती को अपने यौवन पे, अपने सुहाग पे दंभ हुआ...
इक गौरैया का जोड़ा भी, देखो तो छत पे आया है...
सूखा बोरिया बिस्तर बाँधे, देखो कितना घबराया है...

सूखे की सेना को घन ये, अब धूल चटाने आए हैं...
तुम ज़रा मुन्डेरो पे चढ़ना, देखो कुछ बादल आए हैं....

बादल आए, चिट्ठी खोली, पर पत्र सभी वो कोरे थे...
न थैले थे खुशहाली के, बस मायूसी के बोरे थे...
वो उम्मीदों के सीनों में, कुछ बान विषों के खोंस गये...
जो अभी अभी थी सजी हुई, वो माँग धरा की पोन्छ गये...

जो झूम उठे थे मस्ती में, वो सारे ही मन छले गये...
है देर बहुत कर दी तुमने,
बादल आए थे चले गये...

आज पूछ्ता हूँ तुमसे...क्या कलम कभी तलवार बनेगी....

Author: दिलीप /


जो शोषण का प्रतिकार करे...आगे बढ़ अरि पे वार करे....
ले अंगड़ाई तो हिले धारा...कंपन सारा आकाश करे....
पान्च्जन्य के नाद को सुन...हर ओर अधर्म पे वार करेगी....
आज पूछ्ता हूँ तुमसे...क्या कलम कभी तलवार बनेगी....

हर एक विभीषण को छान्टे...सब अंग अंग उसके काटे....
घर के भेदी जो बने हुए...जो मृत्योपहार उसे बाँटे....
रक्तबीज जैचंदों का ...सिन्ह चढ़के जो संहार करेगी....
आज पूछ्ता हूँ तुमसे...क्या कलम कभी तलवार बनेगी....

जो वीरों का सम्मान करे...सत्कर्मों पर अभिमान करे....
हर एक शत्रु का अंत करे...तब जाकर ही विश्राम करे....
गलन करे अरिशस्त्र का जो...क्या ऐसी विष फुँकार बनेगी....
आज पूछ्ता हूँ तुमसे...क्या कलम कभी तलवार बनेगी....

निर्धन को भी धन बल दे...शिशुओं को जो सुंदर कल दे....
दुर्बल जिससे हो बलशाली...जो ऐसा सबको संबल दे....
सूर्य जलाकर राख करे...क्या ऐसा अग्नि प्रहार करेगी....
आज पूछ्ता हूँ तुमसे...क्या कलम कभी तलवार बनेगी....

जो निद्रा का संधान करे...हर युवक ऊर्जावान करे....
युवा शक्ति को साधन दे...उनमे नवस्फूर्ति संचार करे...
शांत सिंधु मे उथल पुथल...कर दे क्या ऐसा ज्वार बनेगी...
आज पूछ्ता हूँ तुमसे...क्या कलम कभी तलवार बनेगी....

कर उठे हिंद ये सिंहनाद...और दूर करे सारे विषाद....
जो शत्रु कल्पना करे नही...उसको जो वैसा दे प्रसाद....
शठे शाठ्यम समाचरेत्...जो इसका नित्याचार करेगी......
आज पूछ्ता हूँ तुमसे...क्या कलम कभी तलवार बनेगी....

रघुनंदन की मर्यादा हो...यदुनन्दन जैसा ज्ञान रहे....
बस कर्म करे बिन फल सोचे....ये भीष्म प्रतिज्ञा ध्यान रहे....
पड़ जाए कही तो ज्वाल बने…ऐसी वो रुधिर की धार बहेगी....
आज पूछ्ता हूँ तुमसे...क्या कलम कभी तलवार बनेगी....

इंक़लाब का दीप जलाकर, स्वयं अमर हो जाती कविता....

Author: दिलीप /


कभी हृदय मे कुछ भारी सी, दबी दबी रह जाती कविता...
कभी उमड़ कर सिसक सिसक कर आँखों से बह जाती कविता...

कभी पीठ, माथे पे थपकी, कभी शहद की बूँद सी टपकी...
गोदी ले, पुचकार प्यार से, अम्मा सी बन जाती कविता...

कभी किसी टूटे ऐनक मे, कभी किसी की झुकी कमर मे...
कभी किसी ठंडे चूल्हे मे, चुपके से जल जाती कविता...

कभी किसी कोरे काग़ज़ पे इल्ली बन के टपक गयी थी...
बंद खोल मे रेंग रेंग कर तितली मे ढल जाती कविता...

कभी कभी दिल के पर्वत से टकरा कर चूरा बन जाती...
कभी दुखों की, कभी सुखों की छन्नी मे छन जाती कविता...

कभी खून की कुछ बौछारे, कलम उसी मे नहा रही हो...
इंक़लाब का दीप जलाकर, स्वयं अमर हो जाती कविता....

चौखट पे कुछ गुमसुम बैठा, माँ अब तू सूनापन है....

Author: दिलीप /


नन्हे मचल रहे हाथों और पैरों के आघात सहे...
हाथों के झूले मे मुझको अपने तू दिन रात लिए...
मूक शब्द तब इन नैनों के तू ही एक समझती थी...
रुदन कभी जो मेरा सुनती तू अकुलाई फिरती थी...

अंजाने इस जग में मेरे तू ही प्रेम भरा घन थी..
रोता हंसता और बिलखता माँ तू मेरा आँगन थी...

फिर जब मुझे धरा पे रखा, मैं हल्के से रेंगा था...
तब मैने तेरी आँखों मे चंचलता को देखा था...
उंगली थामे मुझे चलाती, संग मेरे तुतलाती थी...
मैं गिरता फिर तू भी रोती, प्रेम सुधा बरसाती थी...

मैं तेरे मन का कान्हा था, तू मेरा वृंदावन थी...
संग संग हर पल साथ रहा जो, माँ तू ऐसा बचपन थी..

फिर उंगली तूने छुड़वाई, पीछे पीछे साथ चली...
कुछ सपनों और आशाओं से तूने कल की नीव धरी...
डांटा तो जब भी मैं हारा, पीड़ा पर चुपचाप सही...
मेरे कल की चिंता मे तू, दिन दौड़ी और रात जगी....

मेरे कल की आशाओं का सपनो का तू दर्पण थी...
मेरा तू आधार बनी तब, माँ तब तू अनुशासन थी...

फिर तेरी आशीष मृदा से, पका पका सा बना घड़ा...
दूर मुझे खुद से भेजा तब, जी को अपने किया कड़ा...
मैं जितना आगे बढ़ता था, तू उतना खुश होती थी...
दूर बैठ जब बातें करते बातें गीली होती थी...

एक सफलता पे खुशियों का झूम बरसता सावन थी...
विरह सभी चुपचाप से लिए माँ तू शायद जोगन थी...

निकल छाँव से तेरी माँ मैं, जीवन मे कुछ और बढ़ा...
प्रेम नदी मे ऐसा डूबा, पिछला सब कुछ भूल चला...
सूनी तेरी धरती कर दी, किसी और का अब घन हूँ....
अब मैं बस तेरी खातिर माँ हर महीने मिलता धन हूँ....

नया एक संसार सजाया, हंसता गाता जीवन है...

चौखट पे कुछ गुमसुम बैठा, माँ अब तू सूनापन है...

बड़ा हो तो गया मैं, बड़ा बन नही पाया...

Author: दिलीप /

माफ़ी चाहूँगा आजकल घर आया हूँ तो ब्लोग्स पढ़ नहीं पा रहा....जल्दी ही पढूंगा....

कल एक आदमी था ज़ख्मी, सड़क पे पड़ा...
मैं भी वहीं उससे कुछ दूर ही था खड़ा...
कुछ इंसानियत जगी, कुछ आगे बढ़ा...
तभी कुछ सोचा, ठिठका, और रुक गया...
देर हो रही थी मुझे कहीं और जाना था...
और वैसे भी वो तो मेरे लिए अंजाना था...
तभी बस आई और मैं उसमे चढ़ गया...
ज़िंदगी की राह पे कुछ और बढ़ गया...

बस से उतर, सड़क के किनारे चलने लगा...
सूरज भी थका सा, धीरे धीरे ढलने लगा...
तभी पीठ पे हुआ एक छुवन का एहसास...
मुड़ा तो थम गयी थी, इक पल को साँस...
मेरे पीछे खड़ा था, एक हड्डियों का ढाँचा...
बीमार था वो, लग रहा था भूखा प्यासा...
पर्स मे देखा तो एक सौ का नोट पड़ा था...
छुट्टे नही हैं कहा, और आगे बढ़ गया था...

थक गया था, दिन भर की भागदौड़ से...
घर पहुँचा, और लेट गया चादर ओढ़ के...
फिर अचानक वो दोनो किस्से याद आ गये...
मेरी सारी थकावट, वो दोनो थे खा गये...
फिर सोचा जब किसी के पाँव छूता था...
'खूब बड़े बनो बेटा', कुछ ऐसा सुनता था...
पर आज जो हुआ, उसने बस यही दिखाया...
बड़ा हो तो गया मैं, बड़ा बन नही पाया...

ऐसी भी क्या चुप्पी कल को चुप्पी ही हमपर चिल्लाए...

Author: दिलीप /


कौओं ने यूँ शोर मचाया,कोयल भूली अपनी कूके...
वंशीस्वर हैं घुटे घुटे से, बजती हैं बस बम बंदूके...
बड़ी उड़ाने भरी गगन मे, अब केवल कुछ जले पंख हैं...
युध हुआ प्रारंभ कभी का, और हम थामे अभी शंख हैं...

ऐसा ना हो खडग बान सब धरे धरे से ही रह जाए...
ऐसी भी क्या चुप्पी कल को चुप्पी ही हमपर चिल्लाए...

स्वान गीदडो ने छिप छिप कर जाने कितने सिंह संहारे...
आस्तीन मे सर्प छिपे हैं, डस लेते हैं बिन फुफ्कारे...
और यहाँ शृंगार सुरा मे खोकर हम सब भूल चुके हैं...
कृषक हृदय की मानवता के कबके फंदे झूल चुके हैं...

एक सुबह के भूले थे हम, सदिया बीती पर न आए...
ऐसी भी क्या चुप्पी कल को चुप्पी ही हमपर चिल्लाए...

आँखों मे अंगार नहीं, बस लोलुपता और काम भरे हैं...
अंगारों से ग्राम जले हम, बस हाथों पे हाथ धरे हैं...
माया के इतने हैं भूखे, माँ को भी हम बेंच रहे हैं...
गिद्ध बने हम मजबूरी को नोच नोच कर फेंक रहे हैं...

ऐसे न निर्लज्ज बनो की पूरब भी काला हो जाए...
ऐसी भी क्या चुप्पी कल को चुप्पी ही हमपर चिल्लाए...

माँ की छाती छलनी छलनी, दामन मे अंगार भरे हैं...
कितने वीर हमारी खातिर, सीमाओं पे मरे पड़े हैं...
घर के भेदी लंका ही क्या, अवधपुरी भी ढहा रहे हैं...
अग्नि बुझेगी रत्नाकर से, फूँक फूँक कर बुझा रहे हैं...

विस्फोटों के नाद गूंजते, और अभी भी हम बगुराए...
ऐसी भी क्या चुप्पी कल को चुप्पी ही हमपर चिल्लाए...

जब उसने बच्चे के मुँह मे दो दाँतों को उगते देखा...

Author: दिलीप /


चौराहे पे कुछ बूढ़े से अरमानों को जलते देखा...
भिखमंगे की एक लाश को, अधनंगी सी सडते देखा...

झुग्गी मे मौसम इक इक कर बचा कुचा सब लील रहा था...
वही पास के एक महल में मौसम रोज़ बदलते देखा....

फूलों का इक बाग सजाकर नागफनी इक उसमे बोया...
ग़लती की थी, हमने हर इक फूल को काँटा बनते देखा...

सूरज तब कुछ और जला जब बूँद पसीने की टपकी थी...
भरी ठंड मे ठिठुर रहे थे, सूरज को तब ढलते देखा....

बड़े दिनों से इक साड़ी मे जिसको देखा करते थे हम...
आज उसे भी मजबूरी मे बनते और सँवरते देखा...

पानी की इक बूँद की खातिर लंबी लंबी लगी कतारें...
वही पास टॉमी नहलाने हमने सागर बहते देखा....

इक बच्चे की पैदाइश पे, उस बस्ती में मातम छाया...
कहीं किसी का बाप मरा था, जश्न वहाँ पे मनते देखा....

हरिया कल से बेचैनी मे बदहवास सा घूम रहा था...
जब उसने बच्चे के मुँह मे दो दाँतों को उगते देखा...

नमक स्वादानुसार.......(एक और लघुकथा..)

Author: दिलीप /




आसमान मे टिमटिमाते तारे, वो उधार की रोशनी से चमकता चाँद भी वो रोशनी नही दे पा रहे थे, जो केरोसीन भरी एक शीशी मे लटकी बाती जल जलकर उस छोटे से खंडहर को दे रही थी...पन्नी से ढकी छत... हवाओं के थपेड़ों से उनकी फट फट की आवाज़....पर कोने मे सजी ईंटों का बोझ और उन ईंटों मे छिपी कुछ उम्मीदों का बोझ उस पन्नी की उच्छृंखलता पर लगाम लगाए हुए थे...और उन थपेड़ों मे लहराती लौ में चमकती दो उम्मीदें उस खंडहर को घर बना रही थी...दिन भर की मेहनत...और उससे हुई पसीने रूपी कमाई...अब मजदूरो की यही तो कमाई होती है दूसरी कमाई किसकाम की...1 रुपये कमाने मे 1 लीटर पसीना तो बह ही जाता होगा, पर उससे 100 ग्राम तेल भी नही मिलता...आँखों मे सन्नाटा था...पर उस घर के सन्नाटे को एक ट्रांजिस्टर तोड़ रहा था...पर कम्बख़्त वो ट्रांजिस्टर भी खड़बड़ खड़बड़ करके बीच बीच मे बेताला हो जाता था...उस खड़बड़  में साँवले हाथो की चूड़ियों की खन खन और उसके पति की खाँसी की ठन ठन ताल से ताल मिला रहे थे…फिर उस औरत ने चूल्‍हे की ओर रुख़ किया...चूल्हा क्या बस वही था जो कभी कभी बच्चे खेल खेल मे ईंटों से बना देते हैं...उसी मे कुछ अधज़ली खामोश लकड़ियाँ पड़ी थी...वो भी सोचती होंगी कम्बख़्तों रोज़ थोड़ा थोड़ा जलाते हो कभी पूरा ही जला दो...पर वो भी कहें क्या जानती हैं वो पूरा जल गयी तो जाने इस चूल्‍हे का आँगन कब तक सूना रहेगा...सीली माचिस की डिब्बी मे दुबकी बैठी एक तीली उन साँवले हाथों ने निकाली...फिर खाली मन और गीली माचिस मे कुश्ती शुरू हो गयी...तभी ट्रांजिस्टर से मलाई कोफ्ता बनाने की विधि बताई जाने लगी...अब ट्रांजिस्टर बेचारा आदमी तो है नहीं कि अमीर ग़रीब मे फ़र्क कर पाए...पर यहाँ तो कुछ अजीब ही हुआ...जाने उन दोनो को क्या सूझी दोनो ही ट्रांजिस्टर के करीब आके सुनने लगे... ट्रांजिस्टर कुछ कुछ बकता रहा...और दोनो ध्यान से सुनते रहे....फिर अंत मे आवाज़ आई..."नमक स्वादानुसार"...दोनो ने एक दूसरे की तरफ देखा, फिर मकड़ी के जाले लगे कुछ टूटे डब्बों की ओर...कुछ औंधे मुँह पड़े थे...जैसे मुँह चिढ़ा रहे हो की बड़े आए मलाई कोफ्ता खाने वाले… पर वो क्यूँ चिढ़ते उन्हे तो इसकी आदत थी...दोनो खूब ज़ोर से हँसे...चूल्‍हे की आग मे जलकर तवे ने कुछ रोटियों को जन्म दिया....फिर कुछ खाली डब्बों को खंगालने की कोशिश हुई...फिर आराम से बैठकर बड़े प्यार दोनो ने वो रोटियाँ मलाई कोफ्ते के साथ खाई…क्या बात करते हो ग़रीब और मलाई कोफ्ता....हाँ मलाई कोफ्ता ही तो था..... बस उसमे न मलाई थी न कोफ्ता...था तो बस..."नमक स्वादानुसार".... ट्रांजिस्टर की आवाज़ भी धीमी होकर बंद हो गयी....शायद अब उसके पास भी कहने को कुछ नही बचा था.... 

ऐ चंदा! तू मेरे बड़ा काम आया…...

Author: दिलीप /


बचपन का जब मेरे सूना था आँगन...
खिलौने के सपनों मे खोया हुआ मन...
तभी माँ ने चुपके से तुझको दिखाया...
दिखाया था तुझमे वो बुढ़िया का साया...

तुझे देख कर ही था बचपन गुज़ारा...
ऐ चंदा! तू मेरे बड़ा काम आया...

जवानी मे जब जेब खाली पड़ी थी...
यूँ कूड़े मे मन के उम्मीदें सड़ी थी...
तभी मन के कोने मे लाली सी छाई...
सफ़र साथ चलने, दिखा एक राही...

उसे चाँद कह के ही मैने रिझाया...
ऐ चंदा! तू मेरे बड़ा काम आया...

धूपों मे जब मेरी साँसें उखड़ती...
जीने की पल पल उम्मीदें थी झड़ती...
मेहनत से दिन भर की, टूटा बदन था...
ये सब देख सन्गी, व्रतों मे मगन था...

तुझे अर्घ्य देकर, मुझे था बचाया...
ऐ चंदा! तू मेरे बड़ा काम आया...

थी मेरे भी घर जब कली एक आई...
दी खुशियों की हल्की सी लौ तब दिखाई...
मगर दर्द की तब चली तेज आँधी...
वो रोटी बिलखकर जो उसने थी माँगी...

तो थाली मे पानी से तुझको दिखाया...
ऐ चंदा! तू मेरे बड़ा काम आया…

नव क्रांति कोई तो होने दो, भारत को अब न सोने दो....

Author: दिलीप /





इतिहास की अमर कथाओं में , भूगोल के उन अध्यायों में,
अर्जुन गांडीव के बाणों में , अट्ठारह व्यास पुराणों में,
दुर्भाग्य को अपने रोता है , भारत अब छिप कर सोता है ,

कबिरा रहीम के दोहों में , भगवद्गीता के श्लोकों में ,
मीरा और सूर के गीतों में ,उन कृष्ण सुदामा मीतों में,
स्मृतियाँ नयी संजोता है, भारत अब छिप कर सोता है,

सतयुग के सत्कर्मों में, उन पूज्य पुरातन धर्मों में,
सीता सावित्री सतियों में, श्री राम के जैसे पतियों में,
मणियों से अश्रु पिरोता है, भारत अब छिप कर सोता है,

पन्नाधाय के त्यागों से, हरिदास के अदभुत रागों से,
तुलसी की पवन भक्ति से, उस मौर्य वंश की शक्ति से,
अब के घावों को धोता है, भारत अब छिप कर सोता है,

गुरु गोविन्द में राणा में, उस खूब लड़ी मर्दाना में,
आजाद भगत से लालों में, त्यागी दधीची की खालों में,
देता स्वमृत्यु को न्योता है, भारत अब छिप कर सोता है,

आँखों में भर अंगारों को, बढ़ तोड़ सभी दीवारों को,
अब काट सिन्धु के ज्वारों को, मत रोक रुधिर की धारों को,
नव क्रांति कोई तो होने दो, भारत को अब न सोने दो....

मेरे महबूब तू तो 'रोटी' है...

Author: दिलीप /



प्रेम पर कुछ कलम चलाने कि कोशिश तो कि...पर देखिये क्या हुआ.... :)


जब तुझे पहली बार देखा दिल खुद खुद झुक गया...
बुतो को पूजने का सिलसिला जाने क्यूँ बस रुक गया....
कितनी मिन्नते करता हूँ तो तेरी एक झलक मिलती है...
तेरी रहमत पे दिल धड़कता है, मेरी साँस चलती है...

बस इतना कहूँगा की तू इन सारे नज़ारों से जुदा है...
मेरे महबूब ये देखकर, मुझे लगता है कि तू 'खुदा' है...

तेरी चमक मेरे दिल को अजीब सा सुकून पहुँचाती है...
पर जाने क्यूँ अक्सर तू दूर जा कहीं छुप जाती है...
पर फिर जब आती है तो दिल के अंधेरे खिल जाते हैं...
दिल के खामोश खंडहर ज्वार भाटे से हिल जाते हैं...

जाने तेरे होंठो का ये तिल क्या करता फरियाद है...
मेरे महबूब वो शायद यही कहता है कि, तू 'चाँद' है...

तेरी एक नज़र दिल की जलती जमी को बुझा देती है....
फिर मेरी ये प्यासी रूह तेरी आँखों को दुआ देती है...
पर कभी कभी तू ये इनायत अंजानो पे भी करती है...
कभी यूँही पलट जाती है फिर मुस्कुराहट बरसती है...

तेरी इक झलक को जाने कितने दिलों के मोर पागल है...
मेरे महबूब लगता है तू चाँद नही तू एक 'बादल' है...

पर जब देखता हूँ सब तेरी एक झलक को तरसते हैं...
किसी और की तरफ इनायत हो तो कितना जलते हैं...
तेरे लिए तो ना जाने कब एक दूसरे मे जंग हो जाए...
तू हो तो कितनी ज़िंदगियाँ बस यूँही बेरंग हो जाए...

जब ये देखा तो समझा कि मेरी समझ कितनी छोटी है...
खुदा, चाँद, बादल, मेरे महबूब तू तो 'रोटीहै...