जब उसने बच्चे के मुँह मे दो दाँतों को उगते देखा...

Author: दिलीप /


चौराहे पे कुछ बूढ़े से अरमानों को जलते देखा...
भिखमंगे की एक लाश को, अधनंगी सी सडते देखा...

झुग्गी मे मौसम इक इक कर बचा कुचा सब लील रहा था...
वही पास के एक महल में मौसम रोज़ बदलते देखा....

फूलों का इक बाग सजाकर नागफनी इक उसमे बोया...
ग़लती की थी, हमने हर इक फूल को काँटा बनते देखा...

सूरज तब कुछ और जला जब बूँद पसीने की टपकी थी...
भरी ठंड मे ठिठुर रहे थे, सूरज को तब ढलते देखा....

बड़े दिनों से इक साड़ी मे जिसको देखा करते थे हम...
आज उसे भी मजबूरी मे बनते और सँवरते देखा...

पानी की इक बूँद की खातिर लंबी लंबी लगी कतारें...
वही पास टॉमी नहलाने हमने सागर बहते देखा....

इक बच्चे की पैदाइश पे, उस बस्ती में मातम छाया...
कहीं किसी का बाप मरा था, जश्न वहाँ पे मनते देखा....

हरिया कल से बेचैनी मे बदहवास सा घूम रहा था...
जब उसने बच्चे के मुँह मे दो दाँतों को उगते देखा...

22 टिप्पणियाँ:

Amit Sharma ने कहा…

आप अपनी संवेदनाओं को शब्द देने में माहिर हैं.झकझोरती है आपकी रचनाये.....

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

पानी की इक बूँद की खातिर ............टॉमी को नहाते देखा
बहुत सुन्दर दिलीप जी !

वैसे एक बात कहूँ, ये कट-पेस्ट के असुविधा (लॉक ) ख़ास लाभकारी नहीं , जिसे चोरना होगा उसके पास बहुत सी डुप्लीकेट चाबियां है ! और मैं तो इस बात में बिश्वास रखता हूँ कि कोई हमारी रचना हे तो चोर ले जाएगा , हमारा दिमाग तो नहीं चुरा सकता न ! खैर, जैसा आपको उचित भाये !

Amit Sharma ने कहा…

@"वैसे एक बात कहूँ, ये कट-पेस्ट के असुविधा (लॉक ) ख़ास लाभकारी नहीं"
बिलकुल सही कह रहे है गोदियाल साहब, कॉपी-पेस्ट से अपने भाव व्यक्त करने में थोड़ी आसानी हो जाती है.

honesty project democracy ने कहा…

आज इंसानियत की दर्दनाक अवस्था पर विचार करती कविता ,दिलीप जी आपका विषय एकदम सार्थक होता है ,इसे बनाये रखें / दिल्ली में कल पूरे देश के ब्लोगरों के सभा का आयोजन किया जा रहा है जो ,नांगलोई मेट्रो स्टेशन के पास जाट धर्मशाला में किया जा रहा है ,आप सबसे आग्रह है की आप लोग इसमें जरूर भाग लें और एकजुट हों / ये शुभ कार्य हम सब के सामूहिक प्रयास से हो रहा है /अविनाश जी के संपर्क में रहिये और उनकी हार्दिक सहायता हर प्रकार से कीजिये / अविनाश जी का मोबाइल नंबर है -09868166586 -एक बार फिर आग्रह आप लोग जरूर आये और एकजुट हों /
अंत में जय ब्लोगिंग मिडिया और जय सत्य व न्याय
आपका अपना -जय कुमार झा ,09810752301

संजय भास्‍कर ने कहा…

आपकी रचनाओं में एक अलग अंदाज है,

Smart Indian ने कहा…

फूलों का इक बाग सजाकर नागफनी इक उसमे बोया...
ग़लती की थी, हमने हर इक फूल को काँटा बनते देखा...

बहुत बढ़िया!

सम्वेदना के स्वर ने कहा…

हरिया कि बेचैनी एक पेट से ज़्यादा दो दांत देखकर हो...या एक ही साडी में रहने वाली औरत का संवरना हो...या श्वानों को मिलते दूध वस्त्र भूखे बालक अकुलाते हों... यही तो फर्क है इंडिया और भारत का..जो आपने दिखाया है..धन्यवाद!!

Unknown ने कहा…

लघु मानव के त्रासद,संत्रास व यंत्रणा भरे जीवन की यथार्थ प्रस्तुति..........श्रेष्ठ लेखन हेतु बधाई।

sonal ने कहा…

बड़ी गहरी नज़र रखते है आप .. साथ में शब्द और भावनाए भी कमाल

शिवम् मिश्रा ने कहा…

बेहद पेनी नज़र ....................बेहद उम्दा रचना ..................और कौन ........दिलीप अपना !!

शिवम् मिश्रा ने कहा…

मेरे ब्लॉग की थीम से मिलती जुलती फोटो लगाई है भाई ..............लिए जाता हूँ साथ !!

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" ने कहा…

बेहतरीन ! हमेशा की तरह लाजवाब ...
आप इतना संवेदना कहाँ से लाते हैं ?
सच है, जो आम आदमी रोज देखकर भी भूल जाता है, वो कवी देखता है तो उसका नजरिया अलग होता है ...

स्वप्निल तिवारी ने कहा…

बड़े दिनों से इक साड़ी मे जिसको देखा करते थे हम...
आज उसे भी मजबूरी मे बनते और सँवरते देखा...

रिया कल से बेचैनी मे बदहवास सा घूम रहा था...
जब उसने बच्चे के मुँह मे दो दाँतों को उगते देखा...

kya likha hai kasam se...is daur pe kitni paini nigaah rakhte ho dost.... poori ghazal achhi hai ...ye do sher khaas pasand aaye mujhe

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बड़े दिनों से इक साड़ी मे जिसको देखा करते थे हम...
आज उसे भी मजबूरी मे बनते और सँवरते देखा...

मार्मिक....सुन्दर रचना....सार्थक अभिव्यक्ति

Yogesh Sharma ने कहा…

बहुत बढ़िया दिलीप भाई ...जीते रहिये | पर सच में आज बड़ी घिन सी आयी ख़ुद अपने ऊपर | यह तो हमारे चारों तरफ का वो सत्य है जिसे हम सिर्फ देख कर लिख लेते हैं और पढवाते हैं उन लोगों को जो ये सब ख़ुद देखते समझते हैं ही | इसके अलावा हम क्या कुछ कर्म भी कर रहें हैं, जो ऐसे लोगों की दुनिया में कुछ उजाला हो ....बिलकुल नहीं | सिर्फ ड्राइंग रूम की बहस, कविता चर्चा और सजावट बन कर रह गए हैं हम |

Unknown ने कहा…

झकझोर के रख दिया आपकी रचना ने

soni garg goyal ने कहा…

very nice.....

कडुवासच ने कहा…

...बहुत सुन्दर... प्रसंशनीय रचना, बधाई !!!

दिलीप ने कहा…

shukriya dosto

Manish ने कहा…

सूरज तब कुछ और जला जब बूँद पसीने की टपकी थी...
भरी ठंड मे ठिठुर रहे थे, सूरज को तब ढलते देखा....

बड़े दिनों से इक साड़ी मे जिसको देखा करते थे हम...
आज उसे भी मजबूरी मे बनते और सँवरते देखा...

ye 2 lines kaafi achchhi lagi...

मनोज कुमार ने कहा…

सूरज तब कुछ और जला जब बूँद पसीने की टपकी थी...
भरी ठंड मे ठिठुर रहे थे, सूरज को तब ढलते देखा....
बहुत अच्छी प्रस्तुति। सादर अभिवादन।

Dankiya ने कहा…

bade dinon se ek sadi mein...wah..
bahut khoob dilip babu.

एक टिप्पणी भेजें