ये नया साल भी थोड़ा सा, पुराना निकले...

Author: दिलीप /

ज़रा सी जिंदगी, जीने का बहाना निकले...
ये नया साल भी थोड़ा सा, पुराना निकले...

ज़रा सा प्यार वो करें, तो बहुत सा तडपे...
ये प्यार का ज़रा उल्टा सा, फसाना निकले....

सज़ा हो लब पे तुम्हारे, तुम्हारी चाह बिना..
कलम से कोई लाजवाब, तराना निकले...

कोई ग़रीब गर यूँही, पड़ा डब्बा खोले...
तो बम नही, वहाँ दो वक़्त का खाना निकले...

जिसे कुरेदते रहे तो लब से उफ़ ना कहें...
ये दिल का जख्म, अब ज़रा सा पुराना निकले...

मेरे बालों की सफेदी, ये उसे बोझ लगे...
मेरा सूरज कभी इतना न सयाना निकले...

सहेंगे कब तलक ही राज यहाँ, अंधों का...
इस खड़ी भीड़ से इस बार तो काना निकले...

अभी तो और तजुर्बा मुझे होना है बचा...
अबके दुश्मन मेरा सारा ही ज़माना निकले...

के तीन रंग मे लिपटी हुई हो लाश 'ऐ दिल'...
कभी यूँ धूम से अपना भी जनाज़ा निकले..

बताओ न कि नये साल मे नया क्या है...

Author: दिलीप /

 
ये इन झूठी बधाइयों का सिलसिला क्या है...
बताओ न कि नये साल मे नया क्या है...

कहाँ बदल रही तकदीर झोपड़ों की कभी...
माँ का दिल भूख की किल्कारियों से रोएगा...
कहीं महलों मे हो बेचैन रात जागेगी..
कहीं दिन भूख से फुटपाथ पर ही सोएगा...

फिर इन चेहरों की चमक का ये माजरा क्या है...
बताओ न कि नये साल मे नया क्या है...

समाज मे जो जी रहे यहाँ कीड़ों की तरह...
कहाँ उनको कोई सीने से जा लगाएगा...
झगड़ झगड़ के काँच से वो झुलस जाएँगे...
कोई नेता नया सा बल्ब दिखा जाएगा...

उनकी आँखों मे बस उम्मीद के सिवा क्या है...
बताओ न कि नये साल मे नया क्या है...

क्या कोई मुल्क किसी मुल्क को न जीतेगा...
क्या कोई बम किसी के लाल को न छीनेगा...
सुलग के राख हुई मजहबों के शोलो से...
किसी बस्ती में कटे जिस्म को न बीनेगा...

इन सबके सिवा नया सा वाक़या क्या है...
बताओ न कि नये साल मे नया क्या है...

रोशनी कौन अंधेरो से जीत जाएगी...
१२ महीनो की चाल कौन बदल जाएगी...
ये मेरा मुल्क है बरसों से क़ैद रातों का...
इसकी किस्मत की रात कौन सा ढल जाएगी...

कहाँ छिपा के हालात-ए-वादियाँ क्या है...
बताओ न कि नये साल मे नया क्या है...

चलो छोड़ूं मैं सारी बात अपनी बात करूँ...
मेरे लिए तो नया साल नया ही होगा...
मेरी रातों मे आसमान रहेगा खाली...
के मेरा चाँद कहीं और चमकता होगा...

मुझे मालूम है इस साल बदलना क्या है...
मुझे पता है नये साल मे नया क्या है...

बनिये को पूजते या ठाकुर को पूजते हैं...

Author: दिलीप /

 
हूँ दिल की खबर लेता, वो जात पूछते हैं...
मैं चाँद पूजता हूँ, वो रात पूजते हैं...

कुछ इस कदर है बिगड़ी आबो हवा यहाँ पर...
मेरे शहर मे अक्सर इंसान जूझते हैं...

धरती है राधिका की, मीरा की, गोपियों की...
दो प्यार करने वाले दरिया मे कूदते हैं...

उसका कुसूर ये है, वो ख्वाब देखती है...
हर रोज कलाई मे कंगन ही टूटते हैं...

कातिल है मोहब्बत का मालूम है ज़माना...
तो इश्क़ करके खुद की क़ब्रें क्यूँ खोदते हैं...

  मरते रहे दीवाने, मिटती रही मोहब्बत...
क़ानून के खुदा तो बस आँख मून्दते हैं...

औरत हुई है पैदा, ग़लती हुई खुदा से...
सबकी नज़र के घेरे इज़्ज़त ही लूटते हैं...

सोचा जहाँ की रौनक पर भी कलम चलाऊं...
न नज़्म बन रही है, न शेर सूझते हैं...

इस आग के दरिया के उस पार है ज़माना...
क्या होगा उसे पाकर, लो हम तो डूबते हैं...

उनसे जो जातियों के, ठेके चला रहे हैं...
है क्या भला खुदा की, हम जात पूछते हैं...

बनिये को पूजते या ठाकुर को पूजते हैं...
या मंदिरों मे कान्हा और राम पूजते हैं....

सब कुछ यहाँ बदलता है...

Author: दिलीप /

कैसे माँ मुझसे कह पाए, उसको बड़ी उदासी है... 
खून भरा उसकी आँखों मे, दिखती बहुत रुवान्सी है...
 सोच रही है कैसे उसके, बेटे निरे नपुंसक हैं... 
बिस्तर मे दुबके बैठे हैं, जलते मथुरा काशी हैं...
 
शायद हम अँग्रेज़ों की ही, करते अभी गुलामी है... 
उनका ही पहनावा है और बस उनकी ही बानी है... 
सदियों की पूंजी को हमने, सस्ते मे है बेच दिया... 
साल मे ऐसे दो ही दिन हैं, जब हम हिन्दुस्तानी हैं...
 
जिसको तब पावन कहते थे, अब बिकती वो खादी है... 
अपने हमको लूट रहे हैं, जाने क्या आज़ादी है... 
रीढ़ बिना हम जीव हैं सारे, रेंग रहे हैं यहाँ वहाँ... 
गूंगे बहरे हैं कहने को, सौ करोड़ आबादी है...
 
शेर कहीं मरते जो लड़कर, कीमत यहाँ लगाते हैं... 
उनकी कुर्बानी को अक्सर हम कर्तव्य बताते हैं... 
कहाँ समझते हैं हम बोलो, करुण रुदन उन हृदयों के... 
जिनके टुकड़े देश की खातिर, अपनी जान लुटाते हैं....
 
चूर नशे मे चिल्लाते हैं, कहाँ कभी कुछ बदला है... 
अपनी तो फ़ितरत है ऐसी, यहाँ सभी कुछ चलता है.... 
आज हमें विद्रोह की हल्की चिंगारी सुलगानी है... 
और दिखाना है सबको कि, सब कुछ यहाँ बदलता है...

श्याम श्याम गलियों मे गाऊँ...

Author: दिलीप /

क्यूँ आख़िर ये बदरा आकर, अन्सुवन की बौछार बढ़ाए...
अब कुछ ऐसा कर दो सारी, धरती ये बंजर रह जाए...
जान रही मैं धरती प्यासी, तडपेगी लेकिन ओ श्यामल,
रंग बादलों का भी देखो, मुझको तेरी याद दिलाए...

आग बड़ी ये सब आगों से, बोलो इसको कहाँ बुझाऊं...
भीगे भीगे नैन लिए मैं श्याम श्याम गलियों मे गाऊँ...

बदरा जो बरसे निर्मोही, मोर यहाँ फिर नाच उठेगा...
उसके सतरंगी पंखों मे, मुझको मेरा श्याम दिखेगा...
विरह आग मे देखो कैसा, राख हो गया गोकुल तेरा...
अंबर की चिंगारी से फिर, इस मिट्टी से धुआँ उठेगा...

विटप वारि का मिलन सोच कर मन ही मन मैं तो मुरझाऊं...
भीगे भीगे नैन लिए मैं श्याम श्याम गलियों मे गाऊँ...

बदरा देखो बरस गये तो, आग चौगुनी कर जाएँगे...
तेरे कुछ पदचिन्ह बचे हैं, वो पानी से धुल जाएँगे...
कानों मे अब तक कुछ यादें, गुनगुन करती जाती हैं पर......
हँसी उड़ा के गरजेन्गे वो, वंशी के स्वर खो जाएँगे...

इतना ही उपकार करो कि, यादों के संग संग मर जाऊं...
भीगे भीगे नैन लिए मैं श्याम श्याम गलियों मे गाऊँ...

जाने क्यूँ चिंता करते हैं, बदरा कारे, कालींदी की...
यहाँ देख नैनों से मेरे, बहती रहती नित कालींदी...
जल की प्यास किसे है बदरा, तुमको क्या ये समझ ना आए...
यहाँ तड़पती सारी अँखियाँ, प्यासी हैं बस श्याम दरस की...

इंतज़ार की एक नदी है, और मैं उसमे बहती जाऊं...
भीगे भीगे नैन लिए मैं श्याम श्याम गलियों मे गाऊँ...

हुंकार...

Author: दिलीप /

प्रतिकार का अधिकार ही हथियार है जन्तन्त्र का...
और मूक बधिरों को यहाँ बस शोभती परतंत्रता....
है स्फुटित होता नही हुंकार हाहाकार से...
है सीखनी अब अश्रुओं से आग जनने की कला....

है पर्वतों के सामने क्या धार सरिता का रुका...
क्या मूषकों के सामने है शीश सिंहों का झुका...
क्या भीरू वंशज हो गये हैं उस भरत सम्राट के...
था सीखता जो सिंह दाँतों से विहँस कर गिनतियाँ...

निस्तब्धता की ओट मे अब सूर्य भी छुपने लगा है...
चंद्र सब अपनी कलायें भूलकर घुटने लगा है...
रज्नियाँ देखो तिमिर की दासियाँ सी बन गयी हैं...
नील नभ लज्जा से देखो संकुचित होने लगा है...

अठखेलियों मे खो चुके यौवन ज़रा सा जाग जाओ...
हे सघन रक्तिम हृदय श्रावण ज़रा सा जाग जाओ...
कापुरुष जनने की भारत भूमि की आदत नही है...
क्रांति का विस्तार बन जीवन ज़रा सा जाग जाओ...

अब दिशाओं मे अनल से क्रांति का इक नाद भर दो...
मृत्यूशैय्या पर पड़े इस भीष्म मे नव्श्वास भर दो...
इन अभागी चीखती बलिवेदियों की माँग भर दो...
धमनियों मे राष्ट्र की नवरक्त का संचार भर दो...


अस्मिता का राष्ट्र की जो कर रहे व्यापार देखो...
धर्म भी कहता कि उनका मृत्यु ही उपहार देखो...
देशद्रोही शीश मुंडों से बने जयमाल नूतन...
भारती माँ का तभी समझो हुआ श्रृंगार देखो...

काम क्या है आँख से, बहते हुए उन आँसुओं का...

Author: दिलीप /

काम क्या है आँख से, बहते हुए उन आँसुओं का... 
सूख जायें जो टपककर, आग मे तब्दील हो...
 क्या है वो इंसान जिसकी, रूह खुद भटकी हुई हो...
 घर पड़ोसी का जले तो, दिल मे उसके पीर हो
 
है खड़ी नामर्द पीढ़ी, हाथ मे चूड़ी सजाए...
 डमरुओं की थाप पर कोई उन्हे जी भर नचाए...
 खून क्या, पानी भी शायद अब रगों से उड़ गया है...
 हिंद की माटी का मतलब, अब उन्हे कैसे बताए...
 
हिंद की फिर शान ही क्या, जब जवानी हो नशे मे... 
सिर झुकाए घूमती हो, हाथ मे शमशीर हो...

जाने कितने ही खुशी से, फाँसियों पर चढ़ गये थे... 
ऐश और आराम को जो, मार ठोकर बढ़ गये थे... 
एक सुनहरे ख्वाब की, तस्वीर वो दिल मे सजाए... 
वीरता की इक नयी, रोशन कहानी गढ़ गये थे...

उन शहीदों का बड़ा ही, क़र्ज़ है साँसों पे अपनी...
 उनके दिलकश ख्वाब की, टूटी हुई तस्वीर हो...
 
प्यार की असली इबारत, भूल कर हम जी रहे हैं...
 हम हवस मे घोलकर, अपनी जवानी पी रहे हैं...
 जाने कितने दुश्मनो ने घेर के रखा हुआ है...
 हम नशे मे मस्त होकर, खाते सोते जी रहे हैं...

हाथ मे तलवार, आँखों मे हो अंगारे हमारे...
 खींचता दुश्मन कोई, माँ भारती का चीर हो...

कब तलक पालोगे अपनी, आस्तीनों मे सपोले... 
कब तलक जलते रहेंगे, दिल मे यूँ नफ़रत के शोले...
 पीढ़िया पूछेंगी हमसे हिंद जब जलने लगा था...
 तुम तमाशे मे खड़े थे, तब भला तुम क्यूँ बोले...

खून से अब इन्क़लाबी, रंग भर दो आसमाँ मे...
 अब कभी बिगड़ी हुई, इस हिंद की तकदीर हो...

राह मे अमरत्व की इक दीप बनकर जल गये हो...

Author: दिलीप /


त्याग कर यौवन की सारी लालसायें तुम निराले...
राह मे अमरत्व की इक दीप बनकर जल गये हो...
थे किसी के चाँद तुम, सूरज किसी आँगन के थे तुम...
उज्ज्वली सी इक छटा बिखरा गये फिर ढल गये हो...

चौखटो पर नैन के कुछ दीप जलते हैं अभी भी...
थरथराते इक हृदय मे स्वप्न पलते हैं अभी भी...
चूम कर आँचल में जिसने था बचाया हर नज़र से...
प्रार्थना के स्वर, अधर से उनके झरते हैं अभी भी....

शीश रख दूं उन चरण में, फिर भी थोड़ा ही रहेगा...
जिनकी ममता की कृपा से तुम कथा मे ढल गये हो...
त्याग कर यौवन की सारी....

था घुमाया जिसने काँधे पर तुम्हे वो भी यहीं है...
झुक गये काँधे हैं लेकिन छातियाँ चौड़ी हुई हैं...
झाँक कर देखा है मैने अश्रु से भीगे नयन मे...
गर्व की ज्योति अमर अंदर नयी इक जल रही है...

है नमन शत शत विरह मे टूटते दशरथ को मेरे...
जिनके माथे पर कोई अभिराम चंदन मल गये हो...
त्याग कर यौवन की सारी ....

संगिनी अब भी निहारे घर की खाली कुर्सियों को...
नित ही पढ़ती है तुम्हारी प्रेम डूबी चिट्ठियों को...
डबडबाये नेत्र उसके रिक्त राहों मे बिछे हैं...
आज भी दौड़ी चली आती है सुनकर आहटो को...

प्राण भी अर्पित चरण धूलि पे मेरे उस सती की...
तुम अमर इन तारकों से माँग जिसकी भर गये हो....
त्याग कर यौवन की सारी ...

पूजता हूँ द्वार को जिससे कभी निकले थे राही...
पूजता उस देहरी को तुम जहाँ खेले कन्हाई...
पूजता हूँ नीम के उस वृक्ष को जिसने तुम्हारे...
बालपन के हर सलोने खेल की दी है गवाही...

और करता हूँ मैं पूजन उस धरा नीले गगन को...
जिसके कण कण मे सुगंधी तुम पवन से घुल गये हो...
त्याग कर यौवन की सारी...


जिसे हो खून कहते, हम उसे पानी बताते हैं...

Author: दिलीप /

हमें जीने मे क्यूँ होती है आसानी, बताते हैं...
हम अपने घर मे, अब कुछ और, वीरानी सजाते हैं...

खुदा, जिस दिन से तेरे नाम पर, जलते शहर देखे...
जलाते अब नही बाती, तुम्हे पानी चढ़ाते हैं...

हमें डर है की वो मिट्टी, हमें नापाक कर देगी...
तवायफ़ को तेरी बस्ती मे सब, रानी बताते हैं...

बतायें क्या, कभी उस मुल्क की बिगड़ी हुई हालत...
लुटेरे ही जहाँ पर आज, निगरानी बिठाते हैं...

लुटी थी कल कोई इज़्ज़त, तमाशे मे खड़े थे हम...
बड़े बेशर्म हैं, कि जात, मर्दानी बताते हैं...

छिपे हैं आस्तीनों मे ही कितने साँप ज़हरीले...
पकड़ पाते नही, तो पाक- इस्तानी बताते हैं....

हमारी माँ की इज़्ज़त को जो वहशी लूट जाते हैं...
उन्हे मेहमां बनाकर, उनकी नादानी बताते हैं...

जहाँ खेतों को अब पानी नही, बस खून मिलता है...
ये अफ़सर काग़ज़ों पर, खेत वो धानी दिखाते हैं...

बुरा लगता हो गर, झूठा, मुझे साबित करो यारों...
जिसे हो खून कहते, हम उसे पानी बताते हैं...

हमने उन शेरों मे, तेरा अक्स उभरते देखा है...

Author: दिलीप /

एक दिन भाई भाई को ही, दुश्मन बनते देखा है...
हमने आँगन बच्चों का भी, उस दिन बँटते देखा है...

जबसे माँ ने इस बाजू पर, बाँधी इक काली डोरी...
हमने हर तूफान को थमते, और तड़पते देखा है....

जबसे ये महंगाई बनके, मेहमां घर में आई है...
मिट्टी के ठंडे चूल्हों को, आँख से गलते देखा है...

यहाँ सियासत हमने देखा, जंगल से भी बदतर है...
यहाँ पे चूहों को अक्सर ही, साँप निगलते देखा है...

वहाँ इमारत के बाजू मे, एक झोपड़ी रहती है...
शाम से पहले उसका सूरज, हमने ढलते देखा है...

शोहरत अगर मिले तो मौला, पैर ज़मीन के अंदर हो...
ऊँचे पेड़ों को अक्सर ही हमने कटते देखा है...

कहाँ ईश है कहाँ खुदा है, बड़ी कशमकश है दिल मे...
हमने मंदिर मस्जिद खातिर, इक घर जलते देखा है...

डूब गयी जब कलम हमारी प्यार के गहरे सागर मे...
दर्द की उंगली थामे थामे, उसे उबरते देखा है...

कभी अगर लिखने बैठे और, गिरी आँख से बूँद 'करिश'...
हमने उन शेरों मे, तेरा अक्स उभरते देखा है...