चवन्नीयाँ.... ऐसे भिखारी तो रोज़ मरा करते है....

Author: दिलीप /



घर से आगे कुछ दूर वाले फूटपाथ की मिट्टी से खेलती,
आते जाते राहगीरों को आस भारी निगाहों से घूरती,
कभी कभी मेरी यादों के बिछौने पर करवटें लेती है,
वो एक परच्छाई मेरी आँखों के किसी कोने मे अब भी छिपी है,

उसको सोते भी देखा था मैने हंसते, रोते भी देखा था,
कभी गिरते उठते गाड़ियों के पीछे दौड़ते भी देखा था,
वो एक भिखारी था, जो अपने घर फूटपाथ पर ही रहता था,
सर्दी गर्मी बरसात सब अपनी मजबूर आँखों से सहता था,

तब मैं छोटा था,वो भी बचपन के कंबल मे लिपटा था,
वो तब भी वहीं पर था, जब मैं माँ की गोद मे सिमटा था,
जब मैं पिताजी के स्कूटर पर पीछे बैठ स्कूल जाता था,
वो हाथ फैलाकर मजबूरी बयान करने वहाँ चला आता था,

पिताजी के हाथ छुट्टो की तलाश मे जब जेब मे जाते थे,
तो जैसे वो उसके अंदर छिपी मुस्कुराहट को छू आते थे,
हाथ खाली निकालने पे आँखों मे मायूसी की झलक होती थी,
एक चवन्नि भी जब मिल जाए तो एक भोली सी चमक होती थी,

तब मेरी जेब मे, बैग मे मिलकर जीतने सिक्के हुआ करते थे,
उससे भी ज़्यादा उसके सीने की पसलियों के मंज़र दिखते थे,
उसकी मुस्कुराहट पे अनायास ही मेरे भी होंठ खिल जाते थे,
फिर उसके पैर  धीरे से उसी फूटपाथ की ओर चले जाते थे,

मैने उसे जून की धूप मे नंगे पाँव चलते भी देखा था,
और दिसम्बर की सर्द रातों मे सिकुड ठिठुरते भी देखा था,
हमेशा उसकी आँखें मुरझाई, भूख से थकी हुई दिखती थी,
बदन पर मैल,होठों पे सूखेपन की लड़ी सजी हुई दिखती थी,

कई बार उसे मैने अपनी कमीजों को भी पहने देखा था,
चवन्नीयों की चाह मे उन्ही से गाड़ियाँ साफ करते देखा था,
वक़्त अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ा पर ये सब कही थमता गया,
अचानक एक दिन वो सब कुछ छोड़ कर जाने कहाँ चला गया,

मैने यही सुना की वो किसी और फूटपाथ को अपना चुका था,
पर मेरा मन तो वही उसी फूटपाथ की मिट्टी मे ही रुका था,
एक दिन एक दोस्त ने कहा, उसने किसी सड़क पर उसे लेटा देखा,
आँखों को बंद, सूखे होंठ, हाथों को खुद मे सिमटे देखा,

राहगीर वहाँ से गुज़र रहे थे, पर वो दौड़ नही रहा था,
अपनी चवन्नीयों की चाहत छोड़ वो हिल भी नही रहा था,
मेरा बालमन मान नही पा रहा था को वो अब मर चुका था,
अपने बचपन मे ही जवानी बुढ़ापा दोनो पार कर चुका था,

मेरे आँखों के समंदर की लहरें किनारों को तोड़ रही थी,
याद है उस रात मेरी आँखें पल भर सो भी ना सकी थी,
फिर जब उस गली से गुज़रता था, सब कुछ वैसा नही था,
ज़िंदगी तो दौड़ रही थी, पर शायद कुछ वही ठहरा हुआ था,

एक वक़्त तक वहाँ से गुजरने पर आँसू उमड़ आया करते थे,
पुरानी धुंधली यादों की गर्द उस पानी से धोया करते थे,
पर अब वक़्त बदल गया है, अब वो चवन्नीयाँ भी नही चलती,
किसी गैर के होंठों की मुस्कुराहटें अब एहमियत नही रखती,
आज भी कभी कभी अपनी गाड़ी से उस गली से होके गुज़रते है,
अब समझदार हैं, जानते हैं, ऐसे भिखारी तो रोज़ मरा करते है....
ऐसे भिखारी तो रोज़ मरा करते है....

2 टिप्पणियाँ:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत मार्मिक चित्रण....मन भर आया ...आपकी संवेदनाओं को नमन

Udan Tashtari ने कहा…

ओह!! मार्मिक अभिव्यक्ति!

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