पन्नीयाँ.....

Author: दिलीप /

ये धन भी चंद्र खिलौने सा बस घटता बढ़ता रहता है...
पर जब भी पूनम होती है मन और मचलने लगता है...
इस बार भी अंतर्मन मे इक, था नाव इच्छा का दीप जला...
कुछ सूती, ऊनी धागों के लालच मे मैं बाज़ार चला...

थी इक दुकान तो ऊँची सी, पर मीठे थे पकवान सभी...
पर वस्त्र लालसा पैसे के, नीचे थी अब भी दबी दबी...
मैने भी मन को समझाया, और थोड़ा सा सामान लिया...
फिर इक काग़ज़ के थैले मे, उसने था उनको बाँध दिया...

काग़ज़ का जब थैला देखा, था कमल अधर का खिल आया...
मानव के मन मे कैसे ये, है प्रकृति प्रेम का भाव आया...
यही सोचते मन ही मन, कुछ आगे ही बढ़ पाया था...
मैं चौराहे के नुक्कड़ पे बस आधा ही मुड़ पाया था...

ये दौड़ भाग का हिस्सा मन, कुछ पल को एकदम ठिठक गया...
सुन एक शिशु का रुदन हृदय, बस उसी ओर हो मग्न चला...
एक कुम्हलाया सा नन्हा मन, ममता को बैठा तरस रहा...
उसकी मन नभ से बचपन का मौलिक पानी था बरस रहा...

उन बालों मे थी धूल जमी, हान्थो मे थोड़े कंकड़ थे...
तन देख लगा उस जीवन की ऋतुओं मे केवल पतझड़ थे...
फिर दोनो हान्थ उठा कर वो, धीरे से उठ, कुछ दूर गया...
फिर थाम एक आँचल मैला, थोड़ा सा खुश मजबूर हुआ...

ममता थोड़ी सी झुकी हुई, कूड़े मे थी कुछ ढूँढ रही...
काँधे पे एक बोरा था वो, थी उसमे कुछ कुछ ठूंस रही...
देखा कुछ आगे धरती पे, कुछ हवा से हिलता चमक रहा...
फिर उसे देख उस ममता का, मुरझाया चेहरा दमक उठा...

उसने झुक उसको उठा लिया, और बोरे मे था डाल लिया...
अब पीछे आ उस नन्हे के हान्थो को फिर था थाम लिया...
बस इसी तरह वो बढ़ बढ़ के उस चमक का पीछा करती थी...
वो चमक, भूख की थैली को, कुछ उम्मीदों से भरती थी...

वो मेरे अधरों के खिलने की घटना कितनी छोटी थी...
ये पड़ी पन्नीयाँ सड़कों की, कुछ मजबूरों की रोटी थी...
इन्ही पन्नियोन मे बिखरी कुछ उम्मीदें वो जोड़ रही...
जीवन के मेरे शीशे को , खुद पत्थर बन थी तोड़ रही...

फिर देखा थैला काग़ज़ का, आँखों के बदल घिर आए...
उस थैले मे उस बचपन की चीखों के चित्र नज़र आए...
मैं क्या जानूँ इस बचपन पे, क्या गुज़री है, क्या बीता है...
कोई पन्नी को रोक रहा, कोई पन्नी पे जीता है....

2 टिप्पणियाँ:

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत खूब, लाजबाब !

Archana Chaoji ने कहा…

ह्र्दयस्पर्शि पन्क्तिया..........

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