ये काँटों से फटी कलियाँ बहारें भी नही सिलती...
ये झूठों पे मढी सच्चाइयाँ, दिल को नहीं झिलती...
खुदा सूरज की थाली के निवाले दिल को भी कुछ दे...
अंधेरे मे शराफ़त दिल की अब ढूँढे नही मिलती...
बहुत दिन से बिखेरे छत पे अपने गम के सब दाने...
वो चिड़िया रोज़ आती है मगर दाने नही चुनती...
ये सब ज़ज्बात काग़ज़ पे बिखेरूं मैं मोहब्बत के...
जहाँ के देखकर पर गम, क़लम दिल की नही चलती...
मैं कर उम्मीद हर सुबह दिलों मे झाँक लेता हूँ...
मगर ये रात काली गम की इक पल भी नहीं ढलती...
सड़क पे ढूँढती कुछ कल मिली इंसानियत मुझको...
सारे बाज़ार उसकी लुट चुकी इज़्ज़त नहीं मिलती...
कहीं इस भीड़ मे लाशों के इक दिल भी पड़ा होगा...
नहीं तो छटपटाते ढूँढती यूँ माँ नही फिरती...
हैं कर ली लाख कोशिश, पर बहुत थक सो गया हूँ मैं...
कि दिल की आग से ये आग चूल्हे की नहीं जलती...
9 टिप्पणियाँ:
jabardast--kafi dard hai
दिल की आग और चूल्हे की आग
हाँ दिल भी तो चूल्हा ही है
बहुत सुन्दर
बहुत सुंदर ग़ज़ल. बधाई.
सारे शेर बहुत सुंदर हैं.
धन्यवाद,
राजीव भरोल
सारे शेर बहुत सुन्दर है ... खास कर ये शेर बहुत अच्छा लगा ...
सड़क पे ढूंडती कुछ कल मिली इंसानियत मुझको
सरे बाज़ार उसकी लुट चुकी इंसानियत नहीं मिलती
बहुत सही कहा आपने...
dil ko chhooti hui
aapka abhar
बहुत ही जबरदस्त प्रस्तुति!
दिल की आग जिस भी कागज़ ने झेली
वो आफताब हो गया,
कलम जो अब कलम ना रहा
जैसे की सैलाब हो गया!
कुंवर जी,
bahut achhi kavita...
aap to itna achha likhte hain, ki aapki taaarif karna chhota munh bari baat ho jayegai...
yun hi likhte rahein..
दिलीप जी,
आप ग्रेट हो।
बहुत अच्छी गज़ल है आपकी।
shukriya mitron...
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