माता के मस्तक पे शत्रु, आतंक की आँधी चला रहा...
भाई तेरा छलनी होके, सीमा पे बेसुध पड़ा हुआ...
कब तक गाँधी आदर्शों से, यूँ झूठी आस दिखाओगे...
कब रक्त पियोगे दुश्मन का, कब अपनी प्यास बुझाओगे...
मैं कर्मों मे आज़ाद भगत, लक्ष्मी के लक्षण चाह रहा...
अब कुछ तो रक्त की बात चले, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...
शृंगार पदों को छोड़ कवि, अब अंगारों की बात करें...
शोषित समाज के दबे हुए, कुछ अधिकारों की बात करें...
जब कलम चले तो मर्यादा, कुछ सत्य की उसमे गंध मिले...
इतिहास की काली पुस्तक मे, अब कलम की कालिख बंद मिले...
व्यापार कलम का छिन्न करे वो सत्य सुदर्शन चाह रहा...
कलम क्रांति आधार बने, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...
इन नेताओं के डमरू पे कब तक बंदर बन उछ्लोगे...
कब तक आलस्य मे पड़े हुए दुर्भाग्य को अपने बिलखोगे..
कोई भाषा तो धर्म कोई, कोई जाति पे बाँटेगा...
कब घोर कुँहासे बुद्धि के तू ग्यान अनल से छाँटेगा...
इस राजनीति के विषधर का, मैं तुमसे मर्दन चाह रहा...
भारत से हृदय सुसज्जित हो, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...
कुछ के तो उदर है भरे हुए, ज़्यादातर जनता भूखी है...
आँखों की नदियाँ भरी हुई, बाहर की नदियाँ सूखी है...
बचपन आँचल मे तड़प रहा, माँ की आँखें पथराई हैं...
क्या राष्ट्र सुविकसित बनने के, स्वपनों की ये परछाई है...
उनसे, जिनके घर भरे हुए, मैं थोड़ा कुंदन चाह रहा...
फिर स्वर्ण का पक्षी राष्ट्र बने, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...
कब तक भगिनी माताओं के, अपमान सहोगे खड़े खड़े...
कब तक पुरुषार्थ यूँ रेंगेगा, औंधे मुँह भू पे पड़े पड़े...
कब तक भारत माता को यूँ निर्वस्त्र हो जलते देखोगे...
आख़िर कब तक सौभग्य सूर्य तुम अपना ढलते देखोगे...
पानी से भारी धमनियों मे कुछ रक्त के दर्शन चाह रहा...
अब तो संयम का हार तजो, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...
भाई तेरा छलनी होके, सीमा पे बेसुध पड़ा हुआ...
कब तक गाँधी आदर्शों से, यूँ झूठी आस दिखाओगे...
कब रक्त पियोगे दुश्मन का, कब अपनी प्यास बुझाओगे...
मैं कर्मों मे आज़ाद भगत, लक्ष्मी के लक्षण चाह रहा...
अब कुछ तो रक्त की बात चले, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...
शृंगार पदों को छोड़ कवि, अब अंगारों की बात करें...
शोषित समाज के दबे हुए, कुछ अधिकारों की बात करें...
जब कलम चले तो मर्यादा, कुछ सत्य की उसमे गंध मिले...
इतिहास की काली पुस्तक मे, अब कलम की कालिख बंद मिले...
व्यापार कलम का छिन्न करे वो सत्य सुदर्शन चाह रहा...
कलम क्रांति आधार बने, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...
इन नेताओं के डमरू पे कब तक बंदर बन उछ्लोगे...
कब तक आलस्य मे पड़े हुए दुर्भाग्य को अपने बिलखोगे..
कोई भाषा तो धर्म कोई, कोई जाति पे बाँटेगा...
कब घोर कुँहासे बुद्धि के तू ग्यान अनल से छाँटेगा...
इस राजनीति के विषधर का, मैं तुमसे मर्दन चाह रहा...
भारत से हृदय सुसज्जित हो, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...
कुछ के तो उदर है भरे हुए, ज़्यादातर जनता भूखी है...
आँखों की नदियाँ भरी हुई, बाहर की नदियाँ सूखी है...
बचपन आँचल मे तड़प रहा, माँ की आँखें पथराई हैं...
क्या राष्ट्र सुविकसित बनने के, स्वपनों की ये परछाई है...
उनसे, जिनके घर भरे हुए, मैं थोड़ा कुंदन चाह रहा...
फिर स्वर्ण का पक्षी राष्ट्र बने, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...
कब तक भगिनी माताओं के, अपमान सहोगे खड़े खड़े...
कब तक पुरुषार्थ यूँ रेंगेगा, औंधे मुँह भू पे पड़े पड़े...
कब तक भारत माता को यूँ निर्वस्त्र हो जलते देखोगे...
आख़िर कब तक सौभग्य सूर्य तुम अपना ढलते देखोगे...
पानी से भारी धमनियों मे कुछ रक्त के दर्शन चाह रहा...
अब तो संयम का हार तजो, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...
15 टिप्पणियाँ:
wah!!!!
rom rom me nayi tajgi bhar di apne........
kafi achchi bhavabhivyakti........
badhai.......
पानी से भरी धमनियों में रक्त के दर्शन चाह रहा ...
वीर रस सी तेजस्वी प्रेरित करती ये पंक्तियाँ लाजवाब है ...
काश की हम भी कुछ ऐसा ही लिख पाते ...कर पाते इस देश के लिए
बहुत बढ़िया ...!!
बहुत खूबसूरत रचना
आपकी रचना में सार्थक आँच है
kash hummme bhi wo shakti hoti kuch karne ki
वाह! उर्जा से ओत-प्रोत बहुत अच्छी रचना है।
आभार
देशप्रेम में सरोबार ओजपूर्ण रचना ...
...देशप्रेम का रगों में रस घोलती हुए सोई हुई चेतना को जागती हुई...
साभार
सुन्दर सरहनीय और प्रशंसनीय सार्थक प्रयास..
मैं बस परिवर्तन चह रहा ! वाह ! क्या बात है!
bahut bahut shukriya Mitron...
जोश भी है रोष भी है लेखन में आपके में उदघोष भी है
bahut hi josh se bhari kavita....
sharir ka rakt teji se daudne laga..
achhi rachna dene ke liye dhanyawaad...aur likhne ke liye badhai...
regards
http://i555.blogspot.com/
aaj pahli baar aapke blog par aana hua aur apki rachna padh kar shayed yahi kahna kafi hoga ki aana saarthak ho gaya. aap jaise nau-jawaano se aisi hi ushma ki aisi socho ki umeed ki ja sakti hai aur apke vichar padh kar khushi hui..aisa hi kuch maine apni ek post par likha tha ..link de rahi hu...http://anamika7577.blogspot.com/2010/03/blog-post_22.html
बहुत ही सुन्दर, शानदार और लाजवाब रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
bahut koob
कुछ के तो उदर है भरे हुए, ज़्यादातर जनता भूखी है...
आँखों की नदियाँ भरी हुई, बाहर की नदियाँ सूखी है...
बचपन आँचल मे तड़प रहा, माँ की आँखें पथराई हैं...
क्या राष्ट्र सुविकसित बनने के, स्वपनों की ये परछाई है...
dil ko chhu liya................
sun k baju fadak uthey
एक टिप्पणी भेजें