खुदा से बस दुआ ये है मेरी किस्मत बदल जाए..
किसी का घर जले तो क्या, हमारा घर संवर जाए...
है ये चादर बहुत लंबी न मुझसे बाँट ले कोई...
इसी डर से, दुआ मैं माँगता हूँ पैर बढ़ जायें...
दिया कटवा वो बरगद कल ही काफ़ी सोचकर मैने..
किसी को छाँव दे दे, वो कहीं इतना ना बढ़ जाए...
लुटी बाज़ार मे कल रोटियाँ, न छीन पाया मैं...
तभी से बद्दुआ मैं दे रहा, सारी ही सड़ जायें...
जलाने जब चला बस्ती, तो पहले दिल को दफ़नाया...
कहीं हान्थो को मेरे रोकने, को दिल न अड़ जाए...
ये सारी सीढ़ियाँ चढ़ चढ़ के, अब हैं तोड़ दी मैने...
कहीं ऐसा ना हो इस छत पे कोई और चढ़ जाए....
है कल से ही बुलाया काम पर, धनिया की बेटी को...
अरे नौकर की बेटी है, भला कैसे वो पढ़ जाए...
यूँही चलते हुए कल राह मे पत्थर से टकराया...
तो चोटें देखकर बोला ये इंसान कुछ सुधर जाए...
25 टिप्पणियाँ:
bikul sahi kaha dilip bhai...shayad ab insaan ki yahi fitrat ho gayi hai....
bahut khub...
aaj phir aapko padhkar achha laga..
ab to jaise roj intzaar rehta hai aapka..
regards
shekhar
इंसानी जज़्बातों और मंसूबों को बहुत तरीके से आप कह पाए हैं...
सभी शेर अपने आप में पूरे हैं और अपनी बात कह पाने में सक्षम हैं...
बहुत पसंद आई आपकी रचना...
शुक्रिया...
sachmuch aapne ekdam kaduva sach hi likh hai.aaj samaajme yahi to insano ki fitarat banti ja rahi hai.pahle iska ulta hota tha,aajpahale ka ulta ho raha hai.bahut khoob likha hai aapne.
poonam
एक -एक हर्फ़ कडवा सच कहती कविता ...
हमेशा की तरह लाजवाब कविता है ! आपने इंसानी फितरत के बारे में खूब लिखा है और बिलकुल सही लिखा है ।
बेहतरीन रचना पुनः...बधाई.
bahut hi sundar,marmasparsi rachna, vah bahut acchaa likhte ho.
kafi sundar ........
magar aisa kyun,
KISI KA GHAR JALE TO KYA, HAMARA GHAR SAWAR JAE......????
बहुत शानदार गज़ल---सही पूछा विशाल, मगर एसा क्यूं, इस पर भी लिखा जाये---
मगर एसा क्यूं है इन्सां,नहीं हूं मैं स्वयम एसा।
भला वो ही तो एसा है, तभी ये इन्सां एसा है।
वाह खूब बयां किया है आपने आज के इंसान की फितरत को ...बहुत बढ़िया रचना है .....हमेशा की तरह लाजबाब
shukriya Mitron aap sabhi ka abhar
कितना निर्मम हो गया इन्सान , पत्थर ही भला है | बहुत सधे ढंग से आप अपनी बात कह पाए हैं , थोड़ी देर के लिए मन चुप सा हो गया ....इलाज क्या हो ?
ilaaj hi to dhoondhne nikla hun....jaise hi milta hai...sabse pehle aap sabhi ko khabar dunga....
aacha likha hai aap ne,,.........
par aaj thoda gahraiye main theek se utar nahi paye...number badane ke chakar main post mat khraab kariye...bura mat maniye ga meri baton ka.
बहुत ही उम्दा रचना!
बधाई स्वीकार करें, निखार बढ़ रहा है दिनोंदिन आपकी रचनाओं में। पिछली बार रचनाएँ पढ़ी थीं इसलिए कह रहा हूँ।
@tej ji...bahut ummeed se likhi kyunki kabhi ghazal nahi likhi thi...bas isiliye kuch bhavon ko likhne ka prayas kiya....
agar kuch akmi lagi ho to maaf kijiyega...waise ye rachna bade man se likhi thi...:( agli baar koshish karunga ki aapko na lage ki sirf sankhya badhane ke liye likha hai....
Kya gazabka likha hai! Harek shabd apni jagah mauzoom..
बखूबी अभिव्यक्त किया है
हर पंक्ति लाजवाब
खास तौर पर बरगद का सन्दर्भ
अपरिमित सम्भावनाएँ नजर आती हैं आपमे
Bahut hee badhiyaa kataksh hai....yoon hee likhte rahain ...badhaayee
वाह, कमाल कि रचना है, मैं अब तक आपके ब्लॉग से दूर रहा इसका अफ़सोस है
फोटो का चयन बहुत अच्छा किया है आपने !
dilip main aaj aapki is kavita ko charcha mein daalna chahti hun lekin copy nahi kar paa rahi hun..
kripaya bhej dijiye mujhe..
kavya.manjusha@gmail.com
par
shukriya
khatarnak likhte ho miyaan
lajavab.. maza aa gaya..
आपके ब्लॉग पर पहली बार आना हुआ है....पिछली ३-४ रचनाएँ पढ़ीं....आज के चर्चा मंच से इस ब्लॉग तक पहुँचने का रास्ता मिला...
अभी तक जितनी भी पढ़ी हैं सारी ही बहुत अच्छी लगीं....
और ये वाली तो ज़बरदस्त गज़ब की है....बहुत ही बढ़िया विरोधाभास शैली को अपनाते हुए कही गयी है..
सीढ़ी वाला शेर तो जैसे मन में बस गया है....बहुत सुन्दर लेखन...आप लोगों ( आज कल के बच्चों की )की भाषा में..क़त्ल एक दम .
लुटी बाज़ार मे कल रोटियाँ, न छीन पाया मैं...
तभी से बद्दुआ मैं दे रहा, सारी ही सड़ जायें...
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