इक सिख बलिदानी युवक अगर पागल ना होता...
वो भी किसान बन खेतों मे बस गन्ने बोता...
लेकिन वो पागल था उसने बंदूकें बोई...
उसने सुविधा कोयल की प्यारी कूंके खोई...
फिर देश की खातिर मृत्यु हार पे झूल गया वो...
परिवार, बाप, माता, बहनों को भूल गया वो...
उसके बलिदान की कीमत अभी अधूरी है...
हित राष्ट्र अभी पागलपन बहुत ज़रूरी है...
गर वो बंगाली युवक न होता बौराया सा...
होता अँग्रेज़ों के दफ़्तर मे गर्वाया सा..
क्या वो हिटलर से मिलता, क्या वो फौज बनाता...
वो बस घर मे सुख से रहता और मौज मनाता...
पर वो पागल था अंग्रेज़ो से जंग लड़ा वो....
बस आज़ादी की खातिर हरदम रहा खड़ा वो...
उसकी वो रक्त पुकार अभी क्या पूरी है...
हित राष्ट्र अभी पागलपन बहुत ज़रूरी है...
आज़ाद सदा रहने की कसम उठाई थी जब...
अपने सिर जिसने अपनी गोली खाई थी तब...
थे वहाँ सैकड़ों दुश्मन और वो खड़ा अकेला..
उसकी मृत्यु पर तीर्थ सज़ा वा लगा था मेला...
होता उसका मस्तिष्क यदि यूँ सधा सधा सा...
वो भी रहता परिवार संग तो बँधा बँधा सा...
आज़ादी मे भारत के अब भी दूरी है...
हित राष्ट्र अभी पागलपन बहुत ज़रूरी है...
जेल मे भूखे प्यासे हरदम पड़े रहे जो...
ले परचम आज़ादी का हरदम खड़े रहे जो...
काला पानी का ज़हेर जिन्होने हंस कर चखा...
पर सदा जलाए आज़ादी की ज्योत को रखा...
उनके उस पागलपन की कुछ चिंगारी भर लो...
वास्तव मे आज़ाद देश फिर अपना कर लो...
वो धरती तब जो लाल हुई फिर भूरी है...
हित राष्ट्र अभी पागलपन बहुत ज़रूरी है...
पर बन हिंदू मुस्लिम ना पागल तुम हो जाना...
इस क्षेत्र वाद की दौड़ में अब ना तुम बौराना...
जब पागलपन को सृजन से अपने जोड़ोगे तुम...
जब द्रव्यमोह का दृढ़ ये बंधन तोड़ोगे तुम...
जब पागलपन को लेके मन मे भ्रम ना होगा...
ये शत्रु विरोधी क्रोध कभी जब कम ना होगा...
वो कल्पमुर्ति इस राष्ट्र की तब ही पूरी है...
हित राष्ट्र अभी पागलपन बहुत ज़रूरी है...
16 टिप्पणियाँ:
bahut khoob lajwaab
हमेशा की तरह उम्दा रचना..बधाई.
क्या बात कही है!!
पहली पंक्ति में सारा सार है:
"पागलपन बहुत ज़रूरी है......"
These lines are absolute Gems:
"जब द्रव्यमोह का दृढ़ ये बंधन तोड़ोगे तुम...
जब पागलपन को लेके मन मे भ्रम ना होगा...
"
-Rajeev Bharol
दिलीप जी,
आपकी और रचनाएँ भी पढ़ीं, इतनी कम उम्र में इतना अच्छा लिखना वाकई प्रशंसनीय है.
ये जान कर की आप भी सोफ्टवेयर इंजिनियर हैं, और भी अच्छा लगा!
शुभकामनायें.
राजीव भरोल
बहुत ही अच्छी कविता...समाज को क्रांति की आवश्यकता है... काश ऐसी रचनायें लोगों के दिलों तक पहुँचती तो ये वैमनस्य की जिस आग में सारा राष्ट्र जल रहा है...वो कब की शांत हों गयी होती...
सधन्यवाद,
आस्था
Bahut hi umda......
”हित राष्ट्र अभी पागलपन बहुत ज़रूरी है’---वाह क्या बात है, सार की बात है--राष्ट्र हित के लिये कुछ भी किया जा सकत है, बधाई.
बहुत सुन्दर कविता है ! राष्ट्र प्रेम और वीर रस से ओतप्रोत एक अत्यंत सुन्दर और भावपूर्ण रचना जो किसीभी इन्सान के दिल में जोश भर देगी !
bahut bahut abhar mitron...
दुनिया में आज जितने भी लोग पूजे जाते हैं,वे सब अपने युग में पागल ही कहे गए। पागल होने का मतलब है-कुछ मौलिक लिए हुए....औरों से अलग.....शायद,क्रांति का कोई स्वर!
bahut khub......kya likte hain aap
ismein ek mohar aur lag jaye ki
"rastra hit mein jari"
yah desh hai veer jawano ka albelo ka mastano ka
is desh ka yaro hoye is desh ka ka yaro kya kehna
lajawaab dileep ji...
sach me ek bahut bade pagalpan ki zarurat hai hamare desh ko...
tabhi hum apne dushmano ke daant kkhatte kar payenge...
bahut khoob..
Dilip ji your blog presentation is good. your all writings(poetry) are also very good pagalpan bhaut jaruri is nice one.
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