कुछ बन्धु शायद मेरी कविता का आशय नहीं समझ पाए, ये भारत की स्वतंत्रता के ६२ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में लिखी थी...और ये ६२ साल का वृद्ध कोई और नहीं स्वयं भारत है...वैसे लोग समझ ही गए होंगे पर फिर भी लिख दिया....
सियासत की तलवारों से कटा,
बिना कारणों के अपनों में बँटा ,
अस्थिरता के डर से सहमा हुआ,
अस्थिरता के डर से सहमा हुआ,
अपने मूल संस्कारों से हटा,
अंधेरों के गलियारों में डोल रहा हूँ,
मैं ६२ साल का वृद्ध बोल रहा हूँ|
अपने घर में नेतृत्व की कमी,
अपने घर में नेतृत्व की कमी,
माताओं बहनों की आँखों में नमी,
भूख से रोता बिलखता बचपन,
भूख से रोता बिलखता बचपन,
ईमानदारी की साँसें थमी थमी,
भूत भविष्य वर्तमान को तोल रहा हूँ,
मैं ६२ साल का वृद्ध बोल रहा हूँ|
बेटों के शव पर चढ़े फूल,
बेटों के शव पर चढ़े फूल,
रक्त से सनी हवाएं और धूल,
हैवानियत की प्रानघातिनी आंधी ,
हैवानियत की प्रानघातिनी आंधी ,
इंसानियत को गया हूँ भूल ,
मैं अपना ही विनाशद्वार खोल रहा हूँ,
मैं ६२ साल का वृद्ध बोल रहा हूँ|
हथियारों के खिलौनों का बचपन,
हथियारों के खिलौनों का बचपन,
हाथ में सबके है माया का दर्पण,
संस्कृति को भूलता ये समाज,
संस्कृति को भूलता ये समाज,
और रंगरलियों में खोया हुआ पचपन,
मैं अपनी ही नसों में विष घोल रहा हूँ,
मैं ६२ साल का वृद्ध बोल रहा हूँ|
मूल कर्तव्यों से भटके पत्रकार,
मूल कर्तव्यों से भटके पत्रकार,
पैसे के आगे मिटती कलम की धार,
सीमा पर जवानो के कटते सर,
सीमा पर जवानो के कटते सर,
फिर भी है मेरी लाचार सरकार,
आज मैं अपने ही अस्तित्व को टटोल रहा हूँ,
मैं ६२ साल का वृद्ध बोल रहा हूँ|
बाजारों में सस्ती बिकती शर्म,
बाजारों में सस्ती बिकती शर्म,
दूरियों को बढ़ाने वाले धर्म,
गीता कुरान पे होने वाले युद्ध,
गीता कुरान पे होने वाले युद्ध,
बिना जाने इनका वास्तविक मर्म,
जाने किस बात का चुका मैं मोल रहा हूँ,
मैं ६२ साल का वृद्ध बोल रहा हूँ|
चौराहे पे लुटती द्रौपदी की लाज,
चौराहे पे लुटती द्रौपदी की लाज,
गोलियों से दबती सच्चाई की आवाज़,
अँधेरे में घुटती इंसान की इंसानियत,
अँधेरे में घुटती इंसान की इंसानियत,
भुखमरी गरीबी का हर तरफ राज,
अपनी बर्बादी का पीट स्वयं ढोल रहा हूँ,
मैं ६२ साल का वृद्ध बोल रहा हूँ|
क्या मैं ही हूँ सुभाष की जागीर,
क्या मैं ही हूँ सुभाष की जागीर,
भगत की बनायीं सुनहरी तस्वीर,
क्या मैं ही हूँ शिवा राणा लक्ष्मी,
क्या मैं ही हूँ शिवा राणा लक्ष्मी,
भीष्म एकलव्य मंगल सा वीर,
अपने ही शव से लिपट बिलखता बोल रहा हूँ,
जाने मैं कौन हूँ और क्या बोल रहा हूँ !!!
16 टिप्पणियाँ:
तुम्हारी लेखनी में बहुत दम है भाई !! बात एक दम गोली सी जाती है दिमाग में और असर दिल पर करती है !!
बहुत बहुत शुभकामनाएं !
अपने शहर के छोटे भाई... के लेखनी को सलाम....
sahi hai par ek vridh smaaj par bolta hai phir khud samaaj ho jata hai..phir akhri linon main apna dukh bata raha hai jo ki phir se thoda atisayoket hai. ek baat pakadiye ya to vridh ko samaj samajye ya phir 62 saal ka vridh.
uttam rachna.
Tej ji aap samajh nahi paaye....ye bharat hai jo apni swatantrata ke 62 saal poore kar chuka hai...wah apni kahani suna raha hai....
dubara padi maine aap ki rachan...sahi bhap hain
बढिया रचना.....दुःख हुआ ...मतलब कविता पढ़कर ख़ुशी हुई ....परन्तु देश की हालत पर दुःख हुआ ....आप और हम मिलकर प्रयास करते रहे ..शायद कहीं कुछ बदलाव आ जाए अब देश अपना है ...तो जिम्मेदारी भी अपनी ही होनी चाहिए
एक एक शब्द सच बोल रहा है
वाह ! लाजवाब !
देश की व्यथा को सही ढंग से उभारा है आपने !
समय से पहले ही हमने अपने देश को बूढ़ा बना दिया है नहीं तो एक राष्ट्र के लिए ६२ कोई बड़ी उम्र नहीं होती है . अपनी करतूतों से हमने भारत को प्रोगेरिया पेशेंट बना दिया है.
फिर से कहूँगा आप दिल की कलम से ही लिखते है
दीलिप भई ज़बरदस्त वाली चोट करते हो जी आप!
जब दिल रोता है तो ना आंसू होते है ना आवाज,
कलम उठा एक नए युग करते फिर आगाज़,
आप यूँ ही लिखते रहे,शुभकामनाये स्वीकार करें...
कुंवर जी,
... बेहद प्रभावशाली व प्रसंशनीय रचना !!!
व्यथा का सटीक चित्रण, मन को झकझोर दिया आपने।
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पड़ोसी की गई क्या?
गूगल आपका एकाउंट डिसेबल कर दे तो आप क्या करोगे?
akhiri band achha hai dilip .....chalte rahiyea ....
kabhee visit kijea ..kalaam-e-chauhan.blogspot.com
पूरी कविता बहुत अच्छी है....सारी विसंगतियों को समेटे हुए ...
अच्छी रचना के लिए बधाई
देर से आने के लिए माफ़ी, ६२ साल के वृद्ध की दास्तान पढ़ कर बहुत दुःख हो रहा है!
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