कभी हृदय मे कुछ भारी सी, दबी दबी रह जाती कविता...
कभी उमड़ कर सिसक सिसक कर आँखों से बह जाती कविता...
कभी पीठ, माथे पे थपकी, कभी शहद की बूँद सी टपकी...
गोदी ले, पुचकार प्यार से, अम्मा सी बन जाती कविता...
कभी किसी टूटे ऐनक मे, कभी किसी की झुकी कमर मे...
कभी किसी ठंडे चूल्हे मे, चुपके से जल जाती कविता...
कभी किसी कोरे काग़ज़ पे इल्ली बन के टपक गयी थी...
बंद खोल मे रेंग रेंग कर तितली मे ढल जाती कविता...
कभी कभी दिल के पर्वत से टकरा कर चूरा बन जाती...
कभी दुखों की, कभी सुखों की छन्नी मे छन जाती कविता...
कभी खून की कुछ बौछारे, कलम उसी मे नहा रही हो...
इंक़लाब का दीप जलाकर, स्वयं अमर हो जाती कविता....
28 टिप्पणियाँ:
कभी खून की कुछ बौछारे, कलम उसी मे नहा रही हो...
इंक़लाब का दीप जलाकर, स्वयं अमर हो जाती कविता....
बहुत बढ़िया लिखते हो...पढ़ कर कुछ देर तक तो शब्दों में ही खो जाते हैं.....शुभकामनायें
...बेहतरीन !!!
कभी पीठ, माथे पे थपकी, कभी शहद की बूँद सी टपकी...
गोदी ले, पुचकार प्यार से, अम्मा सी बन जाती कविता...
बहुत खूब मित्र ,,,शानदार लिखा है सब कुछ सधा हुआ सा ....हर शब्द अपने में बेहतरीन {कभी सिसक कर उमड़ आँखों से बह जाती कविता...}
बेहतरीन रचना ... लाजवाब पंक्तियाँ
कभी किसी टूटे ऐनक मे, कभी किसी की झुकी कमर मे...
कभी किसी ठंडे चूल्हे मे, चुपके से जल जाती कविता...
ये तो कण कण में भगवान की तरह कण कण में कविता हो गई... लाजवाब, दिलीप!
कभी खून की कुछ बौछारे, कलम उसी मे नहा रही हो...
इंक़लाब का दीप जलाकर, स्वयं अमर हो जाती कविता.... शिल्पकार के शब्द शिल्प से सविता बन जाती है कविता …………………दिलीप भाई और आप उन शिल्पकारो मे से एक हैं………… सुन्दर! जय जोहार (इसका मतलब अपनी क्षेत्रीय बोली मे नमस्कार से है।)
कविता के बनने का इससे खूबसूरत और रवानीमय चित्रण कम ही देखा है दिलीप भाई.. बधाई..
bahut badiyaa
बंद खोल मे रेंग रेंग कर तितली मे ढल जाती कविता
-गजब कल्पनाशीलता का परिचय दिया.बहुत खूब दिलीप...वाह!
Adarneey Sameer ji Dipak ji...Sonal.ji...Suryakaant ji...Indraneel ji...Rajendra sahab...Uday ji...Sangeeta ji...bahut bahut aabhaar aapke aasheesh vachno ke liye...
रोचक कबिता
कभी किसी टूटे ऐनक मे, कभी किसी की झुकी कमर मे...
कभी किसी ठंडे चूल्हे मे, चुपके से जल जाती कविता...
... लाजवाब पंक्तियाँ
बहुत बढ़िया...कवितामयी कर दिया सब कुछ!
कल्पनाओं को विस्तार दिया और फिर कविता में बाँध दिया......
कुंवर जी,
दिल को छू रही है यह कविता .......... सत्य की बेहद करीब है ..........
kavita ko ek naya aayam diya aapne :)
कभी किसी टूटे ऐनक मे, कभी किसी की झुकी कमर मे...
कभी किसी ठंडे चूल्हे मे, चुपके से जल जाती कविता...
संवेदनशील ... बहुत ही भावपूर्ण कविता .....
bahut hi sundar bhaav diye hain aapne kavita ko...
kavita pe kavita padhna sach me ek anokha aur dilchasp anubhav raha...
aapki is anoothi soch ko mera salaam...!!!
sundar abhivyakti hai vicharon ki vastav men aap ke pas vicharon ka bhandar hai ,badhai ho
i love all your writings
dilip bhai pehle to ye bata dun mujhe aapke blog ka template itna pasand hai ki kya kahun...
jab bhi aata hun blog pe, bada achha lagta hai
aur ab ye kavita....mast likha hai aapne...kya kavita hai..bahut achhi
कभी पीठ, माथे पे थपकी, कभी शहद की बूँद सी टपकी...
गोदी ले, पुचकार प्यार से, अम्मा सी बन जाती कविता...
बहुत खूब......!!
दिल को छू गयी ! बहुत ही सुन्दर और लाजवाब रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ है! बधाई!
फिर से पढ़ा तो लगा ,,,,,,
'बंद खोल मे रेंग रेंग कर तितली मे ढल जाती कविता'
अद्दभुत सृजन ...
अच्छी रचना
kya likhte hai aap.......itna kavitamay .......bah hee gaye dhara pravah me........
ati sunder.
bahut khub dileep bhai....
अति सुंदर!
शब्द इस तरह बह रहे हैं जैसे नदी की निर्मल धारा ,
कभी किसी टूटे ऐनक मे, कभी किसी की झुकी कमर मे...
कभी किसी ठंडे चूल्हे मे, चुपके से जल जाती कविता...
ठंडे चूल्हे में कविता का जल जाना मन को छू गया,
आप बधाई के पात्र हैं
sheershak se lakar ant tak shreshthtam bhaav waalii kavitaa. laajawaab, kalam tod aur ojmayi bhaavon pravaah mayi shabdaawali. kavitaa ko achchhaa roop aur aakaar deti shaili.
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