नन्हे मचल रहे हाथों और पैरों के आघात सहे...
हाथों के झूले मे मुझको अपने तू दिन रात लिए...
मूक शब्द तब इन नैनों के तू ही एक समझती थी...
रुदन कभी जो मेरा सुनती तू अकुलाई फिरती थी...
अंजाने इस जग में मेरे तू ही प्रेम भरा घन थी..
रोता हंसता और बिलखता माँ तू मेरा आँगन थी...
फिर जब मुझे धरा पे रखा, मैं हल्के से रेंगा था...
तब मैने तेरी आँखों मे चंचलता को देखा था...
उंगली थामे मुझे चलाती, संग मेरे तुतलाती थी...
मैं गिरता फिर तू भी रोती, प्रेम सुधा बरसाती थी...
मैं तेरे मन का कान्हा था, तू मेरा वृंदावन थी...
संग संग हर पल साथ रहा जो, माँ तू ऐसा बचपन थी..
फिर उंगली तूने छुड़वाई, पीछे पीछे साथ चली...
कुछ सपनों और आशाओं से तूने कल की नीव धरी...
डांटा तो जब भी मैं हारा, पीड़ा पर चुपचाप सही...
मेरे कल की चिंता मे तू, दिन दौड़ी और रात जगी....
मेरे कल की आशाओं का सपनो का तू दर्पण थी...
मेरा तू आधार बनी तब, माँ तब तू अनुशासन थी...
फिर तेरी आशीष मृदा से, पका पका सा बना घड़ा...
दूर मुझे खुद से भेजा तब, जी को अपने किया कड़ा...
मैं जितना आगे बढ़ता था, तू उतना खुश होती थी...
दूर बैठ जब बातें करते बातें गीली होती थी...
एक सफलता पे खुशियों का झूम बरसता सावन थी...
विरह सभी चुपचाप से लिए माँ तू शायद जोगन थी...
निकल छाँव से तेरी माँ मैं, जीवन मे कुछ और बढ़ा...
प्रेम नदी मे ऐसा डूबा, पिछला सब कुछ भूल चला...
सूनी तेरी धरती कर दी, किसी और का अब घन हूँ....
अब मैं बस तेरी खातिर माँ हर महीने मिलता धन हूँ....
नया एक संसार सजाया, हंसता गाता जीवन है...
चौखट पे कुछ गुमसुम बैठा, माँ अब तू सूनापन है...
35 टिप्पणियाँ:
... बहुत सुन्दर,प्रसंशनीय !!!
दिलीप जी
आज की रचना मन को अन्दर तक भिगो गई ,बहुत अच्छा लिख रहे है .
आज ही एक और रचना पढ़ी थी माँ पर ,आपको लिंक दे रही हूँ ,
http://bharatipandit.blogspot.com/
बहुत सुन्दर. बहुत ही सुन्दर !!
नया एक संसार सजाया, हंसता गाता जीवन है...
चौखट पे कुछ गुमसुम बैठा, माँ अब तू सूनापन है...
बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति। मै इसके लिये कुछ नही कह सकता। यहॉ तो बचपन से ही सूनापन है।
नया एक संसार सजाया, हंसता गाता जीवन है...
चौखट पे कुछ गुमसुम बैठा, माँ अब तू सूनापन है...
-बहुत भावपूर्ण रचना!
Surykaant ji har baar jab bhi Maa par koi rachna likhta hun...aapka dhyaan zarur aa jata hai....thodi jhijhak bhi hoti hai post karne me...aur main kya kahun...par aap zindagi me jo safaltaayein arjit kar rahe honge...wo kahin na kahin baithi sab dekh rahi hongi...aur khush hoti hongi...
hamesha ki tarah lajwaab rachna ...
aapki kalam kamaal karti hai..
बेहतरीन… मातृयात्रा का फुल सर्किल... आखिरी छंद पर मुनव्वर राना साहब का शेरः
बरबाद कर दिया हमें परदेस ने मगर
माँ सब से कह रही है कि बेटा मज़े में है.
nice
hats off yaar ..hats off... rom rom bas umadna chahta hai ..... maa ki har awastha ko chitrit kar diya .....laazawaab ...
Apka andaze bayaan gajab hai... Ahkiri chhe panktiyon ne kafi prabhavit kiya!
आपकी पूरी रचना नहीं पढ़ पायी....बीच बीच में गहरे भूरे रंग कि पट्टियाँ आ रही हैं....जितनी भी पढ़ी..बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है.....
अब पढ़ी पूरी...ना जाने क्या प्रोब्लम आ रही थी...
निकल छाँव से तेरी माँ मैं, जीवन मे कुछ और बढ़ा...
प्रेम नदी मे ऐसा डूबा, पिछला सब कुछ भूल चला...
सूनी तेरी धरती कर दी, किसी और का अब घन हूँ....
अब मैं बस तेरी खातिर माँ हर महीने मिलता धन हूँ....
नया एक संसार सजाया, हंसता गाता जीवन है...
चौखट पे कुछ गुमसुम बैठा, माँ अब तू सूनापन है...
इन पंक्तियों ने आंखें नम कर दिन....
माँ को याद करते बहुत बहुत बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति....
बहुत खूब मेरे दोस्त माँ पर एक और बहुत अच्छी रचना लिखी है आपने ....माँ जीवन की एक अमूल्य सम्पत्ति होती है ...इसके बिना सारी दुनिया एक कल्पना ही लगती है ....संसार के हर जीव को इसकी आवश्यकता होती है ...आपकी रचना अति सुन्दर है ...दुनिया की हर माँ के चरणों में मेरा प्रणाम
sabhi mitron ki hauslaafjaai ke liye shukriya...duniya ki sabhi maaon ko naman...
दिल की कलम से दिलों को छू रहे हैं दिलीप जी. बधाई और धन्यवाद.
सादर वन्दे !
माँ! क्या कहें? बस इतना कि
मुझे बस इस लिए अच्छी बहार लगती है
कि ये भी माँ की तरह ख़ुशगवार लगती है (राना)
रत्नेश त्रिपाठी
वन्दे मातरम !!
आरम्भ से अन्त तक सच ही सच!
आरम्भ में जो सच गुदगुदा रहा था अन्त में वो ही सच रुला रहा था...
धन और तन में फसा बेटा आज अचानक बेटा होने को कुलबुला रहा था....
कुंवर जी,
" रात को जब कोई रोता हैं
पास कोई नही होता हैं
तब भी जागती हैं एक मूर्त प्यार की
जब सारा जग खराटे मारकर सोता हैं "
" रात को जब कोई रोता हैं
पास कोई नही होता हैं
तब भी जागती हैं एक मूर्त प्यार की
जब सारा जग खराटे मारकर सोता हैं
क्या कहे माँ का दिल ऐसा ही होता हैं "
बहुत सुन्दर , आँगन वृन्दावन और आखिर में सूनापन ..कितनी गहराई से महसूस किया है ..
निकल छाँव से तेरी माँ मैं, जीवन मे कुछ और बढ़ा...
प्रेम नदी मे ऐसा डूबा, पिछला सब कुछ भूल चला...
सूनी तेरी धरती कर दी, किसी और का अब घन हूँ....
अब मैं बस तेरी खातिर माँ हर महीने मिलता धन हूँ....
नया एक संसार सजाया, हंसता गाता जीवन है...
चौखट पे कुछ गुमसुम बैठा, माँ अब तू सूनापन है...
aaj ki hakikat bayan kar di.........shyad har man ka dard hai .......bahut khoob.
bahut badhiya dilipji. aapki rachna dil ko chhu gayee.vaah
Very Nice.
मेरे कल की आशाओं का सपनो का तू दर्पण थी...
मेरा तू आधार बनी तब, माँ तब तू अनुशासन थी...
Dalip Ji,
Bahut hee sunder likha hai aap ne.
Sab se upar rab ke thaan
duje thaan te aandee Maa.
Hardeep
http://shabdonkaujala.blogspot.com
गीता में बताया गया है कि कोई मोक्ष पथ का पथिक किन्ही कारणों से योगभ्रष्ट हो कर मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाता है और पुनह जगत में सहृदयी मानव के रूप में जन्म लेकर अपनी अधूरी योगयात्रा को आगे बढाता है. आपके दिल कि कलम हर बार ऐसा ही एहसास करवाती है कि आप भी कोई योगभ्रष्ट योगी है जो अपनी अधूरी यात्रा को पूर्ण करने के लिए जन्म लिए है. आपके भाव पूर्वजन्म के संचित सर्वकल्याण के चिंतन को इंगित करते है. नमन
हर रचना में मानवीय करुना बरसती है
काफी सुन्दर रचना
दिलीप जी,
बहुत खूबसूरत रचना है। मुझे हैरानी होती है कि लगभग रोज ही इतने गहरे जज़्बात कहां से ले आते हो यार?
बहुत अच्छी पोस्ट लगी।
वन्देमातरम्
bahut khoob dileep ji...
kitni sacchai aur karuna jhalak rahi hai aapki rachna me...
maa ke jeevan k har pehloo ko kitni khubsurti se darshaya hai aapne...
adbhut...!!!!
Anmol...aatma tak har shabd ghula..bahta raha..rahega
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरुवार, आज 29 अक्तूबर 2015 को में शामिल किया गया है।
http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमत्रित है ......धन्यवाद !
मैं तेरे मन का कान्हा था, तू मेरा वृंदावन थी...
संग संग हर पल साथ रहा जो, माँ तू ऐसा बचपन थी.
बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ
आभार !!
एक टिप्पणी भेजें