माफ़ी चाहूँगा आजकल घर आया हूँ तो ब्लोग्स पढ़ नहीं पा रहा....जल्दी ही पढूंगा....
कल एक आदमी था ज़ख्मी, सड़क पे पड़ा...
मैं भी वहीं उससे कुछ दूर ही था खड़ा...
कुछ इंसानियत जगी, कुछ आगे बढ़ा...
तभी कुछ सोचा, ठिठका, और रुक गया...
देर हो रही थी मुझे कहीं और जाना था...
और वैसे भी वो तो मेरे लिए अंजाना था...
तभी बस आई और मैं उसमे चढ़ गया...
ज़िंदगी की राह पे कुछ और बढ़ गया...
बस से उतर, सड़क के किनारे चलने लगा...
सूरज भी थका सा, धीरे धीरे ढलने लगा...
तभी पीठ पे हुआ एक छुवन का एहसास...
मुड़ा तो थम गयी थी, इक पल को साँस...
मेरे पीछे खड़ा था, एक हड्डियों का ढाँचा...
बीमार था वो, लग रहा था भूखा प्यासा...
पर्स मे देखा तो एक सौ का नोट पड़ा था...
छुट्टे नही हैं कहा, और आगे बढ़ गया था...
थक गया था, दिन भर की भागदौड़ से...
घर पहुँचा, और लेट गया चादर ओढ़ के...
फिर अचानक वो दोनो किस्से याद आ गये...
मेरी सारी थकावट, वो दोनो थे खा गये...
फिर सोचा जब किसी के पाँव छूता था...
'खूब बड़े बनो बेटा', कुछ ऐसा सुनता था...
पर आज जो हुआ, उसने बस यही दिखाया...
बड़ा हो तो गया मैं, बड़ा बन नही पाया...
24 टिप्पणियाँ:
अच्छी रचना ....आज की इन्सान की यही तस्वीर है ....कद भले ही बड़ा हो जाए हम मन से बड़े नहीं हो रहे ...///कुछ बदलते वक़्त ने , कुछ रिश्तो के बन्धनों ने , कुछ अधुनाकिता की दौड़ ने , कुछ प्रतियोगी ज़माने ने , कुछ हमारी जरूरतों ने , कुछ सुख-सुविधाओं ने , कुछ शौहरत की चाह ने और भी बहुत से कारणों ने हमें स्वार्थी बना दिया है ...हमारे इस स्वार्थ में नित्य बढ़ोत्तरी होती जा रही है ..और उसे हम नज़रंदाज़ कर रहे है ....आपकी कविता ने हमें स्मरण दिलाया है ....प्रेरणादायी रचना
profile me parivartan achha laga
बड़ा तो हो गया मैं पर बड़ा ना बन पाया। बहुत बार मुझे भी एसा ही महसूस होता है। क्या बात है उस्ताद आपने कहीं मेरे दिल की कलम तो नहीं चुरायी है। चलो चुरा भी ली तो क्या आप उसका सही इस्तमाल कर रहे हैं। एक और सुन्दर रचना पेश करने के लिए धन्यवाद।
बढ़िया है. बड़ा 'हो जाने' और 'बन पाने' में व्यक्तित्व की क्षुद्रता और औदात्य का जो अंतर है, उसका सटीक चित्रण है.
सही है जो बनने की सोचते है बन नहीं पाते, अच्छी रचना
वाह! कमाल की रचना है!
आपकी भावना से सहमत । पर आजकल बडा बनना, कुछ इस तरह के लोगों के लिये, भारी भी पड़ जाता है। मै स्व्यम अनुभव किया हूँ । आत्मग्लानि जरूर होती है। जहाँ तक भावों को इस तरह तराशने की बात, उसके लिये तो आप प्रशन्सा के पात्र हैं ही।
hmmm.... achchhi samajh....
toh ba bada banane ka iraada hai ki... likhne ke baad sab bhool gaye???
next time aap zaroor bade ban jaaynge....
छुट्टे नही हैं कहा, और आगे बढ़ गया था...
बहुत बढ़िया!
बहुत सुन्दर रचना ! उम्र तो बढती रहती है पर साथ साथ समझ कितनो कि बढती है ?
samay aur haalat bana dete hai insaan ko asmvedansheel ...
यह वक्तव्य आज अधिकाँश की सचाई बन गयी है...
पर मैं फक्र से कह सकता हूँ की मैंने स्वयं के ऊपर अमानवीय विचारों को हावी होने नहीं दिया है अबतक.... अलबत्ता समय से थोडा पीछे जरुर चल रहा हूँ.
थक गया था, दिन भर की भागदौड़ से...
घर पहुँचा, और लेट गया चादर ओढ़ के...
फिर अचानक वो दोनो किस्से याद आ गये...
....बहुत खूब, लाजबाब !
bahut hi acchi rachna. aaj ke insaan ki sahi tasveer. vaah.
achhi rachana hai ..par pahle ki rachnaon se zara kam si lagi ...par iska matlab yah nahi ki achhi nahi ...achhi to hai hi .. :)
पर आज जो हुआ, उसने बस यही दिखाया...
बड़ा हो तो गया मैं, बड़ा बन नही पाया.
अंतर्द्वंद को अभिव्यक्त करती अच्छी रचना...
sabhi mitron ka bahut abhaar aur sabhi aadarneey agrajon ka bahut bahut dhanywaad unke asheesh roopi shabdon ke liye....
आज कल तो कोई भी बड़ा नहीं है भाई !! सब के सब छोटे ही रह गए !!
ये झिझक या जो कुछ भी है.....
हमें मलाल है ऐसी ही एक घटना का.....और बहुत मलाल है....
कुंवर जी,
पर आज जो हुआ, उसने बस यही दिखाया...
बड़ा हो तो गया मैं, बड़ा बन नही पाया,
सुन्दर पंक्तियों के साथ गहरे भाव अनुपम प्रस्तुति, बधाई ।
bhai wow aap ne kamal ka likha hai....bahut hi acha..
दिलीपजी ,
भावुक मन की संवेदनशील रचना !
बधाई !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
ववाह वाह क्या खाका खींचा है इंसानी प्रवर्ती का. हम सब ही बस बड़े हो जाते हैं पर बड़े बन नहीं पाते.
dilip ji bahut hi sunder rachna jo yeh sochney par majbur karti hai ki aakhir aaj ka insaan kis teref jaa reha hai , sahi main dil ko chhu gayi bahut bahut shukriya
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