कौओं ने यूँ शोर मचाया,कोयल भूली अपनी कूके...
वंशीस्वर हैं घुटे घुटे से, बजती हैं बस बम बंदूके...
बड़ी उड़ाने भरी गगन मे, अब केवल कुछ जले पंख हैं...
युध हुआ प्रारंभ कभी का, और हम थामे अभी शंख हैं...
ऐसा ना हो खडग बान सब धरे धरे से ही रह जाए...
ऐसी भी क्या चुप्पी कल को चुप्पी ही हमपर चिल्लाए...
स्वान गीदडो ने छिप छिप कर जाने कितने सिंह संहारे...
आस्तीन मे सर्प छिपे हैं, डस लेते हैं बिन फुफ्कारे...
और यहाँ शृंगार सुरा मे खोकर हम सब भूल चुके हैं...
कृषक हृदय की मानवता के कबके फंदे झूल चुके हैं...
एक सुबह के भूले थे हम, सदिया बीती पर न आए...
ऐसी भी क्या चुप्पी कल को चुप्पी ही हमपर चिल्लाए...
आँखों मे अंगार नहीं, बस लोलुपता और काम भरे हैं...
अंगारों से ग्राम जले हम, बस हाथों पे हाथ धरे हैं...
माया के इतने हैं भूखे, माँ को भी हम बेंच रहे हैं...
गिद्ध बने हम मजबूरी को नोच नोच कर फेंक रहे हैं...
ऐसे न निर्लज्ज बनो की पूरब भी काला हो जाए...
ऐसी भी क्या चुप्पी कल को चुप्पी ही हमपर चिल्लाए...
माँ की छाती छलनी छलनी, दामन मे अंगार भरे हैं...
कितने वीर हमारी खातिर, सीमाओं पे मरे पड़े हैं...
घर के भेदी लंका ही क्या, अवधपुरी भी ढहा रहे हैं...
अग्नि बुझेगी रत्नाकर से, फूँक फूँक कर बुझा रहे हैं...
विस्फोटों के नाद गूंजते, और अभी भी हम बगुराए...
ऐसी भी क्या चुप्पी कल को चुप्पी ही हमपर चिल्लाए...
25 टिप्पणियाँ:
आपका ये अंदाज़ खूब भाता है दिलीप भाई.. ऐसे ही लिखते रहिये.. कुछ दिन से व्यस्त था तो पिछली पोस्ट ना देख पाया अभी समय निकल कर देखता हूँ..
एक शंखनाद सी कविता... सोते हुए मुर्दों को जगाने वाली...
ऐसा ना हो खडग बान सब धरे धरे से ही रह जाए...
ऐसी भी क्या चुप्पी कल को चुप्पी ही हमपर चिल्लाए...
-बहुत शानदार दिलीप..आनन्द आ गया. गजब!!!!!
ab to har post par tareef likh likh kat thak gaya hoon.....
har baar ki hi tarah...
behtareen rachna...
बहुत खूब। ऐसा भी क्या चुप रहना। दर असल हममे मानवता अब रह कहाँ गयी है। और फिर यहाँ तो सब "अल्ला दे खाने को तो क्यों जाएँ कमाने को" वाली बात है। चलिये आपकी कलम कम से कम क्षण भर के लिये मन मे जोश पैदा कर देती है। आज के हालात के बारे मे सोचने के लिये मजबूर कर देती है। सुन्दर अभिव्यक्ति!
एक सुबह के भूले थे हम, सदिया बीती पर न आए...बेहतरीन रचना.सदैव की तरह.
एक एक पंक्ति चेतावानी देती हुई..... सुन्दर प्रस्तुति......
आपकी नवक्रांति की रचना चर्चा मंच पर ली गयी है...
http://charchamanch.blogspot.com/2010/05/163.html
दिलीप भाई, खूब रही आपकी ये दहाड़ ! गजब थी आपकी गर्जना!!
ओज भरी पंक्तिया ..युवावर्ग का सही मायने में प्रतिनिधित्व करती
स्वान गीदडो ने छिप छिप कर जाने कितने सिंह संहारे...
आस्तीन मे सर्प छिपे हैं, डस लेते हैं बिन फुफ्कारे...
और यहाँ शृंगार सुरा मे खोकर हम सब भूल चुके हैं...
कृषक हृदय की मानवता के कबके फंदे झूल चुके हैं...
वाह ! बेहद भावनात्मक और सुन्दर रचना ...
घर के भेदी लंका ही क्या, अवधपुरी भी ढहा रहे हैं...
अग्नि बुझेगी रत्नाकर से, फूँक फूँक कर बुझा रहे हैं...
आपकी कि इस दिल कि कलम से निकले हर शब्द रोंगटे खड़े कर देते है.
पर दुर्भाग्य कि मुर्दानी ऐसी छाई है कि.................................. क्या कहें !!!!!!!!!!!!!
Too good........
दिलीप जी बहुत अच्छी प्रस्तुती
http://madhavrai.blogspot.com/
http://qsba.blogspot.com/
एक सुबह के भूले थे हम, सदिया बीती पर न आए...
ऐसी भी क्या चुप्पी कल को चुप्पी ही हमपर चिल्लाए...
जन चेतना और देश प्रेम के ज्वार से उठती आपकी रचनाएँ .... सच-मच हिला कर रख देती हैं ... बहुत लाजवाब ....
बेहद उम्दा रचना ........ बधाइयाँ !!
आँखों मे अंगार नहीं, बस लोलुपता और काम भरे हैं...
अंगारों से ग्राम जले हम, बस हाथों पे हाथ धरे हैं...
माया के इतने हैं भूखे, माँ को भी हम बेंच रहे हैं...
गिद्ध बने हम मजबूरी को नोच नोच कर फेंक रहे हैं...
बहुत अच्छी ...असरदार रचना ...///.पिछले कुछ दिनों से गाँव गया हुआ था ...आपकी कुछ रचनाएं नहीं पढ़ पाया ...जल्द ही समय निकालकर पढता हूँ ..उम्मीद है सभी लाजवाब होंगी
बहुत सुंदर भाव |बधाई
आशा
ऐसा ना हो खडग बान सब धरे धरे से ही रह जाए...
ऐसी भी क्या चुप्पी कल को चुप्पी ही हमपर चिल्लाए...
दिलीप जी आपके स्वर के क्या कहने
dilip ji mujhe dukh hota he jb apki post padhne se chhoot jati he to..aaj pahli bar apki profile padh apke bare me jana.
aap bahut bahut acchha likhte hai. aapki kalam ko salaam.
bahut hi umdha...
kya kahu kehene aapki taareef mein shabd kam hai..
Dileep ji, Pratyush here...
Aapko follow karne ka saubhagya ab Infosys se bahar yahan par milega... :)
मेरा दावा है कि मंचो पर आप छा जाते होगे।
poori rachna asadharan roop se tez dhaar wali hai ...
माँ की छाती छलनी छलनी, दामन मे अंगार भरे हैं...
कितने वीर हमारी खातिर, सीमाओं पे मरे पड़े हैं...
घर के भेदी लंका ही क्या, अवधपुरी भी ढहा रहे हैं...
अग्नि बुझेगी रत्नाकर से, फूँक फूँक कर बुझा रहे हैं...
विस्फोटों के नाद गूंजते, और अभी भी हम बगुराए...
ऐसी भी क्या चुप्पी कल को चुप्पी ही हमपर चिल्लाए.
ye hisaa mere hisaab se sabse behtareen ban pada hai ...
माया के इतने हैं भूखे, माँ को भी हम बेंच रहे हैं...
गिद्ध बने हम मजबूरी को नोच नोच कर फेंक रहे हैं...
ऐसे न निर्लज्ज बनो की पूरब भी काला हो जाए...
kai kavitayaapki kai kavitayen padhii lekin is
kavita ki baat hi kuch or rahiii...........aise lagaa jaiseee galib ne kaha hai kii......
koi mere dil se pooche tere teer-e-neem kash ko
ye khalish kahan se hoti gar zigar ke paar hota .
a
असरदार रचना .......
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