प्रेम पर कुछ कलम चलाने कि कोशिश तो कि...पर देखिये क्या हुआ.... :)
जब तुझे पहली बार देखा दिल खुद ब खुद झुक गया...
बुतो को पूजने का सिलसिला जाने क्यूँ बस रुक गया....
कितनी मिन्नते करता हूँ तो तेरी एक झलक मिलती है...
तेरी रहमत पे दिल धड़कता है, मेरी साँस चलती है...
बस इतना कहूँगा की तू इन सारे नज़ारों से जुदा है...
मेरे महबूब ये देखकर, मुझे लगता है कि तू 'खुदा' है...
तेरी चमक मेरे दिल को अजीब सा सुकून पहुँचाती है...
पर जाने क्यूँ अक्सर तू दूर जा कहीं छुप जाती है...
पर फिर जब आती है तो दिल के अंधेरे खिल जाते हैं...
दिल के खामोश खंडहर ज्वार भाटे से हिल जाते हैं...
जाने तेरे होंठो का ये तिल क्या करता फरियाद है...
मेरे महबूब वो शायद यही कहता है कि, तू 'चाँद' है...
तेरी एक नज़र दिल की जलती जमी को बुझा देती है....
फिर मेरी ये प्यासी रूह तेरी आँखों को दुआ देती है...
पर कभी कभी तू ये इनायत अंजानो पे भी करती है...
कभी यूँही पलट जाती है फिर मुस्कुराहट बरसती है...
तेरी इक झलक को जाने कितने दिलों के मोर पागल है...
मेरे महबूब लगता है तू चाँद नही तू एक 'बादल' है...
पर जब देखता हूँ सब तेरी एक झलक को तरसते हैं...
किसी और की तरफ इनायत हो तो कितना जलते हैं...
तेरे लिए तो ना जाने कब एक दूसरे मे जंग हो जाए...
तू न हो तो कितनी ज़िंदगियाँ बस यूँही बेरंग हो जाए...
जब ये देखा तो समझा कि मेरी समझ कितनी छोटी है...
न खुदा, न चाँद, न बादल, मेरे महबूब तू तो 'रोटी' है...
27 टिप्पणियाँ:
प्रेम पर आपकी कलम खूब चली, चलाते रहिये
बहुत सुन्दर रचना
.....बहुत सुन्दर !!!
आल राउन्डर! बहुत खूब! चंहु ओर अपनी आभा बिख्ररते रहिये। बधाई!
आपकी लेखनी से बारूद पढने की आदत पड़ गई थी .. थोडा समय लगेगा हमको ..खूबसूरत रचना
क्या कहूँ भाई , हर बार की तरह इस बार भी लजवाब प्रस्तुति रही , डुब कर लिखता पहचान बन गई है आपकी ।
आपकी कलम में तो जोश भी है और मुहब्बत भी ... क्या बात है !
अच्छा है दिलीप पर तुम से और बेहतर की उम्मीद कर सकते हैं.. ये मुझे पता है.. इश्क कर के देखो.. :) इसमें भी बाद में आके!!!! हा हा हा मानोगे नहीं..
इस कविता में प्रत्यक्ष अनुभव की बात की गई है, इसलिए सारे शब्द अर्थवान हो उठे हैं ।
वाह....क्या बात कही है....रोटी से ज्यादा ज़रूरी कुछ नहीं...यदि महबूब में रोटी दिखती है तो वो जिंदगी के लिए बहुत ज़रूरी है.. :):)
waaaaaaaaaahhhhhhhhhhh! :)
bahut sundar blog sundar kavitaa pet ko choo gayee
sabhi miron ka abhaar is ajeeb koshish ki parashansha ke liye...Dipak ji bas aise hi likhne ki koshish kar raha tha...so ye hi man me aaya...waise pyaar kiya tha kabhi...uski bhi kuch nishaniyan kaagazon pe hain...par ab unke kya maayne...
दिलीप जी, अंतिम पल में बाजी पलट दी !
बहुत ही उम्दा रचना | बहुत बहुत बधाइयाँ !!
देश की सत्तर फीसदी जनता की महबूब...15 फीसदी जनता किसी तरह पाती है....बाकी के लोग इससे खेलते हैं....
वाह ... महबूबा और रोटी .. क्या खूब कहा
Dhanywaad Mitron...
मस्त है जी!
महबूब भी फूला ना समाया होगा,
जब प्रेमी भूखा ही उस से मिलने आया होगा!
कुंवर जी,
दिलीप जी इस पर मैं कल रात को टिपण्णी देने वाला था, लेकिन खुद को रोक दिया क्यूंकि उस वक्त लोगो की टिप्पणियाँ आनी शुरू ही हुई थी अथ मैं नहीं चाहता था कि कोई उपदेशात्मक टिपण्णी मैं पहले पोस्ट कर दूं ! यदि बुरा न माने तो एक बात कहूंगा कि जिस तरह पूरी रचान बहुत खूब-सूरत बन पडी थी उसमे सिर्फ सुरुआत का एक वाक्य मुझे नहीं जंचा, ..... दिल खुद व खुद झुक गया .... अगर आप गौर करें तो इन प्रैक्टिकल यह कहीं नहीं कहा जाता कि मेरा या उसका दिल झुक गया हाई , दिल झुक नहीं सकता अत यह अतिश्योक्ति बन जाता है ! अगर आपको उचित लगे तो इसमें थोड़ा फेर बदल कर लीजिये , मसलन "पूरा बदन मेरा खुद व खुद झुक गया...... इत्यादि ! बाकी की कविता माशाल्हा , बहुत सुन्दर !
किस खूबसूरती से लिखा है आपने। मुँह से वाह निकल गया पढते ही।
प्रेम में प्रेमी किसी को शामिल नहीं करना चाहता और रोटी में तो भागीदार बनाना हमारी संस्कृति में है.
bahut sunder kindly access my blog
my blog address is www.rishirajshanker.blogspot.com
रचना अपना संदेश यथास्थान प्रेषित करने मे सक्षम ।
चि0 दिलीप . अच्छी रचना ।
अद्बुत है महाराज। अद्बुत है। साँसें चलती है। की जगह साँस चलती है। शायद फिट बैठता है।
nicely concluded.. :)
दिलीप.........हमेशा की तरह बहुत बढ़िया प्रस्तुति। महबूब...........रोटी !!!!!! वाह
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