बहुत हो लिया विकल हृदय इन प्रेम की अंधी गलियों मे...
भ्रमित रहा मन जाने कबसे सच्ची झूठी कलियों से...
अदिश भाव ये जाने कबसे मन को मेरे जला रहे...
कबसे झूठे व्यापरों मे मुझ निर्धन को फँसा रहे...
अब मुझको नव स्वप्न नदी की धार चाहिए...
आँखों को अब अश्रु नही अंगार चाहिए....
दो मातायें दुख की गठरी जाने कबसे लिए खड़ी...
और यहाँ यौवन की मस्ती किसी बेल सी हृदय चढ़ी...
सुलग रहे है मन कितने ही, घूम रहे अकुलाए से...
और यहाँ हम अपनी धुन मे फिरते हैं बौराए से...
लेकिन अब बस काँटों वाला हार चाहिए...
आँखों को अब अश्रु नही अंगार चाहिए....
उजड़ रहा जब उपवन मेरा, मैं अलसाया सोया था...
सत्य जगत मे आग लगी थी मैं स्वप्नों मे खोया था...
कलम कभी भी चली अगर तो श्रृंगारों मे डूब गयी...
सृजन करूँगी कलम ने सोचा फिर जाने क्यूँ ऊब गयी...
अब हाथों मे कलम नही तलवार चाहिए...
आँखों को अब अश्रु नही अंगार चाहिए....
कल की पीढ़ी धिक्कारे, क्यूँ ऐसा कोई कर्म करूँ...
क्यूँ न अपने बीत रहे निष्क्रिय यौवन पे शर्म करूँ...
आज माँगता हूँ तुमसे, इस यौवन के नवजीवन को...
बात बात पर न कुम्हलाए ऐसे इक निर्मल मन को...
हे दाता बस इतना सा उपकार चाहिए...
आँखों को अब अश्रु नही अंगार चाहिए....
भ्रमित रहा मन जाने कबसे सच्ची झूठी कलियों से...
अदिश भाव ये जाने कबसे मन को मेरे जला रहे...
कबसे झूठे व्यापरों मे मुझ निर्धन को फँसा रहे...
अब मुझको नव स्वप्न नदी की धार चाहिए...
आँखों को अब अश्रु नही अंगार चाहिए....
दो मातायें दुख की गठरी जाने कबसे लिए खड़ी...
और यहाँ यौवन की मस्ती किसी बेल सी हृदय चढ़ी...
सुलग रहे है मन कितने ही, घूम रहे अकुलाए से...
और यहाँ हम अपनी धुन मे फिरते हैं बौराए से...
लेकिन अब बस काँटों वाला हार चाहिए...
आँखों को अब अश्रु नही अंगार चाहिए....
उजड़ रहा जब उपवन मेरा, मैं अलसाया सोया था...
सत्य जगत मे आग लगी थी मैं स्वप्नों मे खोया था...
कलम कभी भी चली अगर तो श्रृंगारों मे डूब गयी...
सृजन करूँगी कलम ने सोचा फिर जाने क्यूँ ऊब गयी...
अब हाथों मे कलम नही तलवार चाहिए...
आँखों को अब अश्रु नही अंगार चाहिए....
कल की पीढ़ी धिक्कारे, क्यूँ ऐसा कोई कर्म करूँ...
क्यूँ न अपने बीत रहे निष्क्रिय यौवन पे शर्म करूँ...
आज माँगता हूँ तुमसे, इस यौवन के नवजीवन को...
बात बात पर न कुम्हलाए ऐसे इक निर्मल मन को...
हे दाता बस इतना सा उपकार चाहिए...
आँखों को अब अश्रु नही अंगार चाहिए....
47 टिप्पणियाँ:
अब अश्रु नहीं अंगार चाहिए , लाजवाब ।
वाह जनाब क्या अद्वुत रचना है !
kalam nahin talwaar...matlab kal se likhna band kya??...bhai aisa gazab mat karo Dilip bhai apne chahne waalon par.....but jokes apart ...bahut sadhee huyee , bebaak..oj jagaatee huyee rachna...keep it up buddy!!
Shukriya yogesh ji bahut bahut dhanyawaad...waise kya pata kab talvaar pakadni pade...
waah bhai...
kya likha hai aapne..
mann khush ho gaya..........
Indraneel aur Mithilesh ji bahut bahut abhaar
Shukriya shekhar ji...
"उजाड़ रहा उपवन मेरा मैं अलसाया सोया था "
ये पंक्तिया दंतेवाडा में हुए नरसंहार और आई पी एल में खोई भारतीय युवा पीढ़ी के ऊपर भी कितनी सार्थक लग रही है ,हर पंक्ति प्रशंसनीय
अच्छा लिखा है आपने
अच्छा लिखा है आपने
Sonal ji aise jaane kitni baar hamara baag ujda hai...hamara kya pet se upar soch badhti hi nahi...
सादर वन्दे !
आपकी रचना पढ़ने के बाद अनायास ही विचार मन में कौंध जाते हैं, तो लीजिये मुझे भी झेलिये ........
ले संकल्प बढे आगे
चाहे कितनी बाधा आये
जब कलम चलानी हो तो चले
जब तलवार मिले तलवार चले
जो डूब रहे, ना डूबने दें
जो डुबा रहे, ना जीने दें
यूँ दर्शक बनकर जीना क्या
खुद हाथों ले पतवार चलें
जब कलम चलानी हो तो चले
जब तलवार मिले तलवार चले
रत्नेश त्रिपाठी
waah ratnesh ji adbhut ...josh ko dugna kar diya...
अब अश्रु नहीं अंगार चाहिए
जनाब बस अब देशभक्ति का अंगार भड़का कर ही दम लेना
बहुत बढ़िया...सच आज अश्रु नहीं अंगार चाहिए....मन में जोश भारती हुई
दिलीप जी,
आपको पढ़ते हैं तो कई बार दुष्यंत कुमार की याद आ जाती है।
बहुत अच्छा और प्रेरक लिखते हैं आप।
कलम की ताकत केवल श्रृंगार रस में ही नहीं है।
itna sammaan dene ke liye bahut bahut shukriya...
bahut sunder aur josheelee rachana acchee lagee .
रग़ों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जो आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है.
ग़ालिब की इस विचारधारा को आगे बढाते हुए आपने तो आँख से टपकने वाले आँसू को अंगार बना डाला...बेहतरीन!!
एक आग्रहः आप अपना ले आउट थोड़ा बदल दें... कमेंट्स बाईं ओर से करीब एक चौथाई कट जाते हैं. अतः पढने में कष्ट होता है...
तुम बढ़िया कविता लिख कर सुन्दर चित्र ढूंढते हो या बढ़िया चित्र देखकर सुन्दर कविता लिखते हो भाई.. बताओ तो जरा.. :)
बहुत अच्छा दिलीप जी
इस ब्लॉग जगत को आप जैसी ही कलम की धार चाहिये ।
Suman ji aur Deepak ji bahut bahut dhanyawaad...waise Deepak ji...pehle bhav aate hain fir kuch likhta hun...bhala ho google ka chitr ke maamle me niraash nahi karta...
शानदार और धारदार कविता !!
Bhai mere bahut gussa ho? Lekin likha bada sashakt hai! Sach kahoon to maza aa gaya! Rachna vaastav mein achhi hai!
Shubhkamna sweekarein!
अब तो अंगार की ही जरूरत है
बेहतरीन गीत...पढ़ कर मज़ा आ गया..सुंदर भाव और हर पंक्तियाँ लाज़वाब साथ ही साथ लयबद्ध भी...बधाई हो
sabhi mitron ko is sneh ke lie dhanywaad...
बहुत अच्छे कवि हो... शुभकामनायें !
बहुत खूब...........कितना साधा हुआ लेखन हैं आपका........हमेशा की तरह बेहतरीन प्रस्तुति।
कलम तलवार का ही काम कर रही है , अच्छा लिखा है ।
बहुत सुन्दर भाव भरे हैं।
ऊर्जस्वी काव्य ही नहीं मित्र दिलीप... मेरे खयाल से आपसे साक्षात कर्म भी अपेक्षित किया जा सकता है।
अच्छी कविता है हकीकत से रुबरु कराती हुई।
अंतिम ६ पंक्तियाँ दिल को छूं गई दिलीप जी !
बहुत सुन्दर रचना दिलीप जी. बहुत बहुत धन्यवाद.
बढ़िया लिखा है, रचना सशक्त बन पड़ी है।
बधाई हो दिलीप!
वाह वाह सर जी...............
"सत्य जगत में आग लगी, मैं सपनो में खोया था"
वाह.........अनोखी कविता.
आखिर कहाँ से ला पाते हैं, आप ऐसी सोंच.
बहुत अच्छा लिखा है मेरे दोस्त ,,,,,एक सशक्त रचना ....हमें गर्व है तुम पर और तुम्हारे ...लेखन पर ....बहुत खूब
वाह!!!!!!!!!!!!!!! भाव और भाषा पर जोर दार पकड़ है आपकी
बहुत सही प्रार्थना की है आपने ......आपके स्वर में हमारा भी स्वर शामिल है.......अश्रु नहीं अंगार चाहिए.....सही कहा आपने. आपकी पोस्ट पढ़ कर महान कवि दुष्यंत जी की याद आ गयी " हो गयी है पीर पर्वत....." का याद दिलाने का आभार....!
"शब्दों में जो धार हो तो कलम कम नहीं तलवार से,
आँखों में आंसूं हो गर स्वाभिमान के कम नहीं अंगार से,
सहानुभूति के लिए ही जीना बस,कम नहीं धिक्कार से,
कम से कम आत्मा को तो दूर रखो किसी विकार से!"
आपकी लेखनी तलवार ही तो है!हे शब्दों के योद्धा बिगुल बज गया है,मचाओ जितनी मार-काट मचानी है!किसी ना किसी की तो बेशर्मी कट मारेगी,कोई तो अपने झूठे दायरों को कटा हुआ महसूस करेगा!
लगे रहो....
कुंवर जी,
बहुत शानदार कविता |बधाई
आशा
सोया साहस जागती ... हिलोरों का संचार करती ... विप्लव के गीत गाती लाजवाब रचना है ... आज की आवश्यकता है ये ...
इतना विदीर्ण हो चका है ह्रदय दुश्मन को राह मे लाने को अब नही कोई प्यार चाहिये वे समझेन्गे एक ही भाषा, शायद उन्हे "वार" चाहिये सरस्वती स्व्यम विराजमान हैं दिलीप भाई। आभार!
bahut bahut dhanyawad Suryakant ji...
bahut khoob Dilip ji.
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