कल मुंडेर पे एक बंदर था मुझे दिखाई दिया...
शांत बैठा था, शायद खुद मे ही कहीं गुम था...
तभी एक बंदरिया ने उसे हल्के से था भींचा...
उस ध्यान की डोर को था अपनी ओर खींचा...
एक नन्हा भी बंदरिया की गोद से चिपका था...
माँ की छाती से मासूम प्यार से चिपटा था...
फिर वो दोनो जम कर अठखेलियाँ करते रहे...
ज़िंदगी के ख़ालीपन को प्यार से भरते रहे...
फिर कहीं से बंदर एक रोटी का टुकड़ा लाया...
फिर तीनों ने मिलकर उसे बड़े प्यार से खाया...
सब कुछ देख जाने क्यूँ मेरा मन भर आया...
शायद उन्होने एक परिवार का मतलब सिखाया...
फिर सोचा की हम भी कभी बंदर ही तो थे...
उस खुशहाली भरी दुनिया के अंदर ही तो थे...
जाने किसने प्रकृति को था क्या सुझा दिया...
कि उसने हमें बंदर से ये इंसान बना दिया...
पहले तो हमारा अपनापन ही खुद से डर गया...
फिर धीरे से इन आँखों का पानी भी मर गया...
अब तो हम दूसरो की रोटी भी छीन लेते हैं...
नोच खाते है फिर हड्डियाँ तक बीन लेते हैं...
इन बंदरों को देखो ये अभी तक एक साथ हैं...
पर अब दिल मे खल रही बस यही एक बात है...
कहीं फिर वक़्त अपना रंग तो नहीं दिखाएगा...
ये बंदर कहीं कल इंसान तो नही बन जाएगा...
23 टिप्पणियाँ:
आपकी चिंता जायज है, मुझे भी ऐंसा ही डर है :)
बन्दर इन्सान बन जाये, कोई गल नही कब आयेगा वह पल जब इन्सान ऐसा "बन्दर" बने सुन्दर अभिव्यक्ति!
रोटी छीनना जब हम सीखे तब इन्सान बन गये
इन्सान की सोहबत में नहीं पड़े तो बंदरपना बचा रहेगा!!
वाह कितनी गहरी बात कह दी आपने....
गहरी और सच्ची बात कहा दी ........वो भी एक सुन्दर कविता के तरीके से .....बहुत खूब
इनमे और हमे बस फर्क इतना है
इनकी पूंछ लम्बी और
हमारे कर्मों कि दास्ताँ लम्बी है
रत्नेश त्रिपाठी
वाह! बहुत सुन्दर, भगवान् इन्हें बन्दर ही बनाए रखे तो ठीक है!
आओ मिरल के दुआ माँगें... अगर तरक्की इसी को कहते हैं, तो ये बंदर, बंदर ही बने रहें...
कहीं ये बन्दर इंसान तो नहीं बन जायेगा.....बहुत सार्थक बात.....संवेदनशील रचना
बहुत खूब ................ यह डर जायज है !!
bhav samjhne ke liye bahut bahut abhaar..
... बेहतरीन !!!
क्या बात है !!!.....बेहतरीन रचना .
बहुत सुंदर
http://nanhen deep.blogspot.com/
http://adeshpankaj.blogspot.com/
बेहतर है कि बन्दर बन्दर ही रहे, इंसान बनेंगे तो खुद से शर्मसार हो जायेंगे ! बढ़िया रचना !
Karara vyangya.Badhai.
bahut achha vyangya....
yun hi likhte rahein...
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mere blog mein is baar...
जाने क्यूँ उदास है मन....
jaroora aayein
regards
http://i555.blogspot.com/
बहुत सार्थक बात.....संवेदनशील रचना
यह जो आग और गुस्सा है,जाएज है। यह बना रहे, यही चाहूँगा। मेरे ब्लॉग पर आप आए, स्वागत है बंधु !
vaah......bahut hi gahri baat kah di.
Dilip bhai , naahak chintaa mat karein ,waise isee mein hee bhalaai hai mere khyaal se bandar agar firse insaan banegaa to kram ke hissab se fir satyug aayegaa bhale hee todee der ko hee sahee ....jab tak poora bigregaa tab tak shushti aur chal jaayegee ...lekin bahut khoob ...bahut gehree rachnaa hai
ek sunder vyng makhmal me lapet kar..........
aaj ke insan kee soch aur neeyat par sahee kataksh.........
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