बालकांड-
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इक बचपन साधन की दुनिया मे एकाकी मग्न हुआ...
सुख सुविधा की दुल्हनिया से बचपन मे ही लग्न हुआ...
न आँचल की छाया पाई न बाबा का प्यार मिला...
रखी इस एककीपन ने एक नयी आधारशिला...
आदर जैसे शब्द सहम के तिलचट्टे से दुबक गये...
अपनापन और प्यार गले मिल अंधकार मे सुबक रहे...
वहीं एक ऐसा बचपन है, जिसका बचपन बीत गया...
जंग खिलौने और भूख की, अन्न का दाना जीत गया...
मायूसी चेहरे की देखो स्वेद बिंदु है सींच रही...
रिक्त उदर की रिक्त हथेली अपनी मुट्ठी भींच रही...
कहीं साधनों कहीं प्रेम को तरस रहा अब बचपन है...
बालकांड मे व्यथा समेटे, ये अपना हिंदायन है...
तरुण काँड
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आशाओं का कोमल कांधों पे है इतना बोझ चढ़ा...
गला काट आगे बढ़ के भी दोराहे पे हुआ खड़ा...
इस उलझन मे धीरे धीरे मर्यादा लुट जाती है...
मद्यपान के घने धूम्र मे तरुणाई घुट जाती है...
जयमाला की चाह घनी मे अपनी शक्ति भूल रहे...
एक पराजय असह्य हो रही मृत्यु हार पे झूल रहे...
यौवन की रफ़्तार बढ़ गयी, समय खुदी से हार गया...
चंचलता की विजय हुई और लज्जा का संहार हुआ...
आशाओं के भंवरजाल मे बुरी तरह है फँसा हुआ...
तर्क-शक्ति निष्प्राण हो गयी अंधकार का वरण किया...
चालाकी के क्रूर प्रहारों से मरता भोलापन है...
दुविधा के इस तरुण काँड संग ये अपना हिंदायन है....
युवाकाँड
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आजीवन बंदी मर्यादा कोने मे चिल्लाती है...
यौवन की अंधी आँधी मे पीढ़ी उड़ती जाती है...
कृष्ण राधिका हुए कलंकित, प्रेम काम पर्याय बना...
भ्रष्ट हुआ आचार आज है, उन्नति का सदुपाय बना...
देशप्रेम आहत हो डटकर सीमाओं पे बैठा है...
और युवा माया का साधक बन अपने में ऐंठा है...
परिस्थिति से समझौता ही जीवन की परिभाषा है...
माया से जितनी हो दूरी उतनी घोर निराशा है...
फिर भी देखो डूब नशे मे बेसुध होकर झूम रहे...
अपने ही वो अंत द्वार के इर्द गिर्द हैं घूम रहे...
अपने पथ से भटक चुका है, लक्ष्यहीन अब यौवन है...
युवाकाँड का मिथक संजोए, ये अपना हिंदायन है...
सुंदरकाँड
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लक्ष्मण की रेखा की शक्ति धीरे धहेरे क्षीण हुई...
शत्रु गृहों मे घुस घुस आए माँ मर्यादा हीन हुई...
राम लोभ मे स्वर्ण हिरण के, दूर कहीं हैं चले गये...
और यहाँ पे लक्ष्मण सीता माया से हैं छले गये....
जनक अभी भी खेतों मे ही हल खुद रोज़ चलाते हैं...
सूना सूना नभ मिलता है बूँद एक न पाते हैं...
न अब कोई मटका मिलता, न सीता ही मिलती है...
जीवन की ये सांझ यूँही बस आशाओं मे ढलती है..
कहीं ग़रीबी की सुरसा ने हनुमत को है निगल लिया...
भ्रष्ट हुए वानर सेनानी राम हृदय को विकल किया...
लंका ने भी धीरे धीरे अपने पाँव पसारे हैं...
वीर सभी बलशाली सारे अब रावण से हारे हैं....
रामचंद्र को मिला खंडहर रावण पूजा जाता है...
किसी और की श्रम की रोटी कोई दूजा ख़ाता है...
रामभूमि जल राख हो रही, सूना इसका आँगन है..
कैसा सुंदरकाँड चल रहा, ये अपना हिंदायन है....
उत्तरकाँड
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ये बचपन जब यौवन होगा, प्रलय धरा पे आएगी...
जाति मनुज की मानवता को नोच नोच के खाएगी.....
इतिहासों के पन्ने सारे कालिख से सन जाएँगे...
कहीं और से आकर कोई फिर राजा बन जाएँगे...
शील और पुरुषार्थ सभी कुछ भूतकाल बन जाएगा..
धर्म अधर्म का इकतरफ़ा सा युद्ध कोई ठन जाएगा...
अग्नि उदर की धीरे धीरे सर पे चढ़ के नाचेगी...
आपस मे ही लड़ मरने की सत्य कथायें बान्चेगी...
धीरे धीरे भारत अपने संस्कार सब खो देगा...
और कोई फिर बँटवारे के बीज हृदय मे बो देगा...
अभी समय है उठे आज फिर वध कर दे हम रावण का...
उत्तरकाँड बदल सकते हैं, हम अपने हिंदायन का...
लक्ष्मण की रेखा की शक्ति धीरे धहेरे क्षीण हुई...
शत्रु गृहों मे घुस घुस आए माँ मर्यादा हीन हुई...
राम लोभ मे स्वर्ण हिरण के, दूर कहीं हैं चले गये...
और यहाँ पे लक्ष्मण सीता माया से हैं छले गये....
जनक अभी भी खेतों मे ही हल खुद रोज़ चलाते हैं...
सूना सूना नभ मिलता है बूँद एक न पाते हैं...
न अब कोई मटका मिलता, न सीता ही मिलती है...
जीवन की ये सांझ यूँही बस आशाओं मे ढलती है..
कहीं ग़रीबी की सुरसा ने हनुमत को है निगल लिया...
भ्रष्ट हुए वानर सेनानी राम हृदय को विकल किया...
लंका ने भी धीरे धीरे अपने पाँव पसारे हैं...
वीर सभी बलशाली सारे अब रावण से हारे हैं....
रामचंद्र को मिला खंडहर रावण पूजा जाता है...
किसी और की श्रम की रोटी कोई दूजा ख़ाता है...
रामभूमि जल राख हो रही, सूना इसका आँगन है..
कैसा सुंदरकाँड चल रहा, ये अपना हिंदायन है....
उत्तरकाँड
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ये बचपन जब यौवन होगा, प्रलय धरा पे आएगी...
जाति मनुज की मानवता को नोच नोच के खाएगी.....
इतिहासों के पन्ने सारे कालिख से सन जाएँगे...
कहीं और से आकर कोई फिर राजा बन जाएँगे...
शील और पुरुषार्थ सभी कुछ भूतकाल बन जाएगा..
धर्म अधर्म का इकतरफ़ा सा युद्ध कोई ठन जाएगा...
अग्नि उदर की धीरे धीरे सर पे चढ़ के नाचेगी...
आपस मे ही लड़ मरने की सत्य कथायें बान्चेगी...
धीरे धीरे भारत अपने संस्कार सब खो देगा...
और कोई फिर बँटवारे के बीज हृदय मे बो देगा...
अभी समय है उठे आज फिर वध कर दे हम रावण का...
उत्तरकाँड बदल सकते हैं, हम अपने हिंदायन का...
18 टिप्पणियाँ:
वाह बहुत ही सुन्दर महाकाव्य रच डाला है आपने ... बधाई हो !
वाकई महाकाव्य ही है, बहुत ही सुन्दर प्रयोग!
बहुत ही खूबसूरती से देश का हाल बयान किया है, आपने।
आपके आह्वान को सलाम।
सादर वन्दे !
क्या कहें लाजबाब या यूँ कहें हमारी वर्त्तमान कि तस्वीर जिसने अपने इतिहास से कुछ नहीं सीखा और जो निश्चित ही भविष्य को वीभत्स बनाएगी, मै सिर्फ यही कहूँगा कि..........
है अजर अमर यह हिंद धरा
कोई क्या इसे मिटाएगा
लेकिन तूफां से लड़ने कि
गर शक्ति हममे नहीं होगी
यह देश, धरा क्या खुद का तन
मिट्टी में मिल जायेगा
रत्नेश त्रिपाठी
नि:शब्द रह गई ये रचना पढ़ कर ....बहुत खूब
एक अच्छी रचना
wah sahab kya likha hain ,ultimate ,padh kar laga ,ki haan koi rachna padhi hain ,bahut samay baad ,jo batati hain us samay se aaj tak ki baat
ab to shabd hi nahi mil rahe hain ki kaise aapki is sundar kavita ki vyakhya karoon
apne sabdo main ye hi kahoonga ke aapne jhaam macha diya diya hain ,bindaas ...........
बहुत बढ़िया रचना !! आपको बधाई।
...बहुत सुन्दर!!!!
बहुत ही खूबसूरती से देश का हाल बयान किया है...बहुत खूब! +1
..बहुत खूब!
बहुत खुब बढिया रचना...
फिलहाल बाल कांड पढ़ा, बेहद मार्मिक रचना। आईना रचना।
दिलीप, तुम बेहद अच्छा और प्रवाह में लिखते हो.एक एक शब्द बहुत ही सुन्दरता से गढ़ा हुआ लगाता है.भावनाएं भी बहुत अच्छी है. मैं इतना विशेषज्ञ नहीं हूँ कि तुम्हारी कविता के बारे में कुछ लिखूं. भगवान तुम्हें हर बुरी नज़र से बचाए. बहुत सुभ-कामनाएं
हिदायन बदल सकते हैं....बहुत बढ़िया कविता है..प्रवाहमयी और प्रभावशाली....बहुत पसंद आई...
apki kavitayen behtarin hain.
Dileep bhai tumhari qalam ko 7 topon ki salami dene ka man karta hai.. chalo tumhe blogrole me to daal hi sakta hoon. yahi mere bas me hai abhi tak to.. par poora bharosa hai ki tum Hindi kavita jagat me apna naam hi roshan nahin karoge balki use naye aayam bhi doge.
apna mail ID dena ya mashal.com@gmail.com par baat karna
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