मैं न कोई नेता हूँ, जो मेरे मरने पर तिरंगा झुका दिया जाए....
सैनिक भी नही, की मेरे शव को तीन रंगों मे लिपटा दिया जाए....
मैं कोई ऐसा भी नही की किसी इमारत पे ये तिरंगा फहरा सकूँ....
इतनी फ़ुर्सत भी नही मुझे की कभी इन हाथों से इसे लहरा सकूँ....
मैं तो बस इक बीमार बीवी दो बच्चों के सपने सहेजता हूँ....
खरीदना हो तो खरीद लो बाबूजी, मैं तिरंगे बेंचता हूँ....
खरीद लो आपका क्या जाएगा ग़रीब को दो पैसे ही मिल जाएँगे....
ग़रीबी ,मुफ़लिसी के चेहरे दो पल के लिए ही सही पर खिल जाएँगे....
और एक क्यूँ बाबूजी, दो लीजिए एक गाड़ी पे एक घर पे फहरायियेगा....
आस पड़ोस के लोगों को अपने देश प्रेम की झलक दिखलाइएगा....
आपकी देशभक्ति की आँच पे ही मैं घर की रोटियाँ सेंकता हूँ....
खरीदना हो तो खरीद लो बाबूजी, मैं तिरंगे बेंचता हूँ....
बस ये तिरंगा ही है जो मेरे सपनों को नये पंख लगाता है....
अपने रंगों से हर बार मुझे इक नया संदेश सुनाता है....
यूँ समय का चक्र चलेगा, इस चूल्हे मे हरदम आग रहेगी....
सब्जियाँ बच्चों को मिलेगी खाने को, दूध की नदियाँ बहेगी....
अपनी नमक प्याज़ रोटी से भरी थालियों के टुकड़े बेंचता हूँ,
खरीदना हो तो खरीद लो बाबूजी, मैं तिरंगे बेंचता हूँ....
बाबूजी भी अजीब थे मेरी बात पे हंस बिना कुछ लिए चल दिए....
ऐसा लगा की ग़रीबी के ज़ख़्मों पे हँसी का नमक मल गये....
मेरी आँखें अभी भी उन्ही की गाड़ी से उड़ती धूल ताक रहीं थी....
मेरी मायूसी देखने वो नही, उनकी लूसी खिड़की से झाँक रही थी....
फिर डबडबायी आँखें लिए सोचता हूँ ये सब तो रोज़ झेलता हूँ....
मैं कब आज़ाद हुआ बाबूजी, मैं तो बरसों से तिरंगे बेचता हूँ....
सैनिक भी नही, की मेरे शव को तीन रंगों मे लिपटा दिया जाए....
मैं कोई ऐसा भी नही की किसी इमारत पे ये तिरंगा फहरा सकूँ....
इतनी फ़ुर्सत भी नही मुझे की कभी इन हाथों से इसे लहरा सकूँ....
मैं तो बस इक बीमार बीवी दो बच्चों के सपने सहेजता हूँ....
खरीदना हो तो खरीद लो बाबूजी, मैं तिरंगे बेंचता हूँ....
खरीद लो आपका क्या जाएगा ग़रीब को दो पैसे ही मिल जाएँगे....
ग़रीबी ,मुफ़लिसी के चेहरे दो पल के लिए ही सही पर खिल जाएँगे....
और एक क्यूँ बाबूजी, दो लीजिए एक गाड़ी पे एक घर पे फहरायियेगा....
आस पड़ोस के लोगों को अपने देश प्रेम की झलक दिखलाइएगा....
आपकी देशभक्ति की आँच पे ही मैं घर की रोटियाँ सेंकता हूँ....
खरीदना हो तो खरीद लो बाबूजी, मैं तिरंगे बेंचता हूँ....
बस ये तिरंगा ही है जो मेरे सपनों को नये पंख लगाता है....
अपने रंगों से हर बार मुझे इक नया संदेश सुनाता है....
यूँ समय का चक्र चलेगा, इस चूल्हे मे हरदम आग रहेगी....
सब्जियाँ बच्चों को मिलेगी खाने को, दूध की नदियाँ बहेगी....
अपनी नमक प्याज़ रोटी से भरी थालियों के टुकड़े बेंचता हूँ,
खरीदना हो तो खरीद लो बाबूजी, मैं तिरंगे बेंचता हूँ....
बाबूजी भी अजीब थे मेरी बात पे हंस बिना कुछ लिए चल दिए....
ऐसा लगा की ग़रीबी के ज़ख़्मों पे हँसी का नमक मल गये....
मेरी आँखें अभी भी उन्ही की गाड़ी से उड़ती धूल ताक रहीं थी....
मेरी मायूसी देखने वो नही, उनकी लूसी खिड़की से झाँक रही थी....
फिर डबडबायी आँखें लिए सोचता हूँ ये सब तो रोज़ झेलता हूँ....
मैं कब आज़ाद हुआ बाबूजी, मैं तो बरसों से तिरंगे बेचता हूँ....
25 टिप्पणियाँ:
वाह ... क्या बात है ... अपने देश की गरीबों के लिया वैसे भी आज़ादी है क्या ... जिस आज़ादी को लेकर हम इतनी लंबी हांकते हैं ... उस आज़ादी ने उन्हें क्या दिया है ...
बहुत गहराई देते हैं आप रचना में
मैं तो कहता हूँ हालात इतने बुरे होते हैं कि तिरंगा तो क्या लोग खुद को ही बेच देते हैं.
mehanat to kar raha hai
तिरंगे को तो हम लोग ही बेच रहे है किसी ना किसी रूप में, कभी टैक्स चोरी कर के, कभी बिजली चोरी करके, और भी ना जाने क्या-क्या करके .
यह तो मेहनत की कमाई खा रहा है
द्रवित कर दिया भाई.................
काश !
काश !
काश ! यह कविता मैंने लिखी होती..................
बहुत उम्दा ............बधाई !
बहुत भावपूर्ण रचना है..देश का असली चहरा दिखाती हुई बढिया रचना है।बहुत सुन्दर!!
kamaal par kamaal kiye ja rahe ho yaar tum.. manch par padhoge to aag laga doge tum to.
ab laghukatha ke sandarbh me-
Kya kahoon Dileep bhai ye tumhari-meri sabhi ki kahani hai.. haan shayad tumhe achchha lage jaankar ki mera naam pahle Dileep hi rakha gaya tha panditon aur mere nana ji ke anusaar.. :)
... प्रसंशनीय रचना,बधाई!!!!
वो तो चलो ....परिवार का पेट भरने के लिए ही तिरंगा बेचता है ...पर कुछ लोग .....ये काम सिर्फ भोग - विलास के लिए .. करते है ......देश में हो रहा ..brasthachaar ...तिरंगे का सबसे बड़ा सौदा है .....इस से बड़ा कोई गुनाह नहीं .....आपकी रचना ...वाकई शानदार है ...प्रसंशनीय ...
bahut badhiya.....vah.
स्तब्ध!!! अब इसके आगे कुछ भी लिखा तो वो भावनाओं को छोटा बनाने जैसा होगा.
dilip ji bahut hi sundar kavita aapki..kal ke charcha manch par hogi..
aabhaar..
वाह, क्या बात है, अति सुन्दर !
दिलीप जी क्या लिखते हैं आप ............
लगता है आप लेखन की बुलन्दी को जरूर पा लेंगे।
शुभकामनाएं
क्या आदमी हो यार !! एकदम अन्दर तक हिला दिया तुमने अपनी इस कविता से !!
जितनी तारीफ की जाये कम ही रहेगी !! Hats Off Brother !!
जय हिंद !!
कमाल का लिखा है...देश भक्ति की आंच पर...सच कितना कड़वा होता है दिलीप जी!
तुम्हारी कलम को सलाम
बेहद भावपूर्ण रचना............
भाई जी, गजब लिखते हैं आप!!
"डबडबायी आंखे यही सोचता हूं.....मैं कब आजाद हुआ....मैं तो बरसों से तिरंगे बेचता हूं"
वास्तविकता का चित्रण गजब का है।
मेरे ब्लॉग पर आने के लिए आपका धन्यवाद...
एक कटु सत्य को जिस तरह आपने बाँधा है उसे नमन है………………हर बार कमाल कर रहे हैं……………………दिल को हिलाने वाली और सोये हुओं को जगाने वाली प्रस्तुति।
aapki deshbhakti vaali pankti pasand aayi dost...
bahut bahut abhar sabhi mitron ka...
tiranga bech kar desh prem sikhaa gaye dost....bahut khoob..wah
ultimate
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