जिरह क्यूँ कर रहे हो...

Author: दिलीप /


जिरह क्यूँ कर रहे हो तुम भला, शातिर वक़ीलों से...
सियासत चल रही है आजकल, बम के ज़ख़ीरों से...

चाहत नाख़ुदा में हो, तो सब कुछ डूबता ही है...
भला कब तक चलेगा मुल्क़, भाड़े के वजीरों से...

भला बर्बाद क्यूँ करते हो आतिश, बम या बंदूकें...
यहाँ इंसान मर जाता है बस बातों के तीरों से...

वहाँ बस्ती में सब घर जल गये, कुछ जल गये ज़िंदा...
चलो छोड़ो थे छोटे लोग, है दुनिया अमीरों से...

था गुल के साथ मैने दे दिया ये हाथ भी तुझको...
पड़ी सिलवट है पन्नों में, किताबों के, लकीरों से...

ज़रा पूछो ज़रूरत इन निगाहों की शुवाओं की...
अंधेरों में सफ़र जो कर रहे, उन राहगीरों से...

तबीयत में ज़रा बदलाव से उनको शिकायत है...
असर लहरों की चोटों का, ज़रा पूछो जज़ीरों से...

चाहूँ दाद, ही वाह, बस दिल की कही मैने...
कहाँ लिखता हूँ अच्छा मैं भला ग़ालिब या मीरों से...

7 टिप्पणियाँ:

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बहुत बढ़िया ग़ज़ल...
वज़नदार शेर..........

अनु

Jyoti khare ने कहा…

तबीयत में ज़रा बदलाव से उनको शिकायत है...
असर लहरों की चोटों का, ज़रा पूछो जज़ीरों से...------
जीवन का सच गहन अनुभूति
बहुत खूब

आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
http://jyoti-khare.blogspot.in

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत खूब .... सुंदर गज़ल

Dr.J.P.Tiwari ने कहा…

ख़ूबसूरत अंदाज में बेहतरीन गजल ...

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

लाजवाब कहूँ तो भी लगेगा कि कम ही कहा है!!

Manav Mehta 'मन' ने कहा…

बहुत बढ़िया

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

जबरजस्त..प्रभावित करती पंक्तियाँ..

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