कल कुछ लोग कह रहे थे..
कि अब तुम मेरी नहीं हो...
क्यूँ..कुछ बदल गया है क्या...
ज़ुल्फो की उस छाँव के कुछ तिनके ही तो टूटे होंगे...
कुछ बारिश की बूँदों से ऊपर ऊपर गीले ही तो हुए होंगे...
वक़्त की धूप ने उन्हे कुछ कड़ा ही तो कर दिया होगा...
पर चाँद देखने को, वो बादल हथेलियों से हटाने का
एहसास...
लट भूल गयी होगी क्या...
चेहरे पर कुछ झुर्रियाँ हो शायद अब...
शायद थोड़ी शिकन किसी ने खींच दी हो माथे पर...
आँखों के नीचे कुछ अंधियारा भी हो सकता है...
पर उन निगाहों के दिए मे जलता मेरा नाम...
मिटा तो नहीं होगा...
थोड़ा और भर गया हो शायद बदन तुम्हारा...
शायद अब दुपट्टे की जगह साड़ी का पल्लू होता हो...
शायद कुछ रंग बिरगी चूड़ियों ने बाँध लिया हो तुमको...
पर वो तुम्हारा काँधे का तिल, अब भी काँधे पर ही
होगा न...
कुछ तो कहता ही होगा...
चादर पर सिलवट हो चाहे, रात हो ज़रा शरमाई सी...
पर तकिये पर अब भी शायद...
कभी कभी इक बूँद गिरा करती होगी...
यादें भले छिपा दी हों, पर ज़िंदा होंगी...
नहीं लकीरों मे तो क्या, किसी पुराने छल्ले में..
लटका के रखा होगा मुझको...
बड़े नादान हैं वो जो कहते हैं...
कि अब तुम मेरी नहीं हो...