भूख बढ़ती ही रही और ज़िंदगी नाटी रही...
Author: दिलीप /
झूठी आज़ादी की बस, इतनी ही परिपाटी रही...
भूख बढ़ती ही रही और ज़िंदगी नाटी रही...
जब सियासी दाँव, उनको खेलने का मन हुआ...
गड्डिया लोगों की हैं पीसी गयी, बाँटी गयी...
जिस्म सारा नोच कर खा ही चुके ये भेड़िए...
हड्डियाँ मज़हब के पैमाने से हैं छान्टी गयी...
ख्वाब इंसानी बढ़ा, कितने घरौंदे तोड़ कर...
घर के बूढ़े पेड़ की सब डालियां काटी गयी...
घर के मंदिर में सजी है मूर्ति देवी की, पर...
ख्वाब इक गुड़िया ने देखा, और वो डान्टी गयी...
बोझ क्या खेतों पे है, ये उस नहर से पूछिए...
था जिसे पानी से भरना, लाश से पाटी गयी...
भूख बढ़ती ही रही और ज़िंदगी नाटी रही...
जब सियासी दाँव, उनको खेलने का मन हुआ...
गड्डिया लोगों की हैं पीसी गयी, बाँटी गयी...
जिस्म सारा नोच कर खा ही चुके ये भेड़िए...
हड्डियाँ मज़हब के पैमाने से हैं छान्टी गयी...
ख्वाब इंसानी बढ़ा, कितने घरौंदे तोड़ कर...
घर के बूढ़े पेड़ की सब डालियां काटी गयी...
घर के मंदिर में सजी है मूर्ति देवी की, पर...
ख्वाब इक गुड़िया ने देखा, और वो डान्टी गयी...
बोझ क्या खेतों पे है, ये उस नहर से पूछिए...
था जिसे पानी से भरना, लाश से पाटी गयी...
ख्वाब में चावल के कुछ दाने दिखे...
Author: दिलीप /
मिन्नतें रोटी की वो करता रहा...
मैं भी मून्दे आँख बस चलता रहा...
आस में बादल की, धरती मर गयी...
फिर वहाँ मौसम सुना अच्छा रहा...
दूर था धरती का बेटा, माँ से फिर...
वो हवा में देर तक लटका रहा...
काग़ज़ों पर फिर ग़रीबी मिट गयी...
और जो भूखा था, वो भूखा रहा...
घर जले, बहुएँ जली, अरमां जले...
आग का ये कारवाँ चलता रहा...
अधपके एहसास, कच्ची चाहतें...
एक थाली ख्वाब वो चखता रहा...
मौत ने आकर के सुलझाया उसे...
रात भर इक नज़्म में उलझा रहा...
ख्वाब में चावल के कुछ दाने दिखे...
नाम उन पर रात भर लिखता रहा...
हर खबर अख़बार की खूं से सनी...
चाय की चुस्की मे सब घुलता गया...
सब जो रट के आए थे वो कह गये...
और जो मुद्दा था वो मुद्दा रहा...
कौन लेगा मुल्क़ की तकलीफ़, जब...
सबने सोचा जो हुआ अच्छा हुआ...
महफ़िलों में एक जलती नज़्म गा लेते हैं हम...
Author: दिलीप /
बढ़ रही सर्दी में इक बस्ती जला लेते हैं हम...
प्यास जो बढ़ने लगी, खूं से बुझा लेते हैं हम...
इस सियासत ने हमें करतब सिखाए हैं बहुत...
आँख से सड़कों की भी काजल चुरा लेते हैं हम...
जुर्म अब करते यहाँ है, ताल अपनी ठोक के...
और फिर हंसता हुआ बापू दिखा देते हैं हम...
खूँटियों से बाँध कर रखते हैं अपनी बेटियाँ...
भाषणों में उसको इक देवी बता लेते हैं हम...
क्या करें उस जंग के मैदान के भाषण का हम...
भर चुकी हर पास बुक, गीता बना लेते हैं हम...
बैठ कर घुटनों के बल, सिज्दे में क्या क्या न कहा...
उसकी कुछ सुनते नहीं, अपनी सुना लेते हैं हम...
हमसे ज़्यादा गर हुनर वाला दिखे तो बोलना...
लाश के ढेरों पे भी, दिल्ली बसा लेते हैं हम...
मुल्क़ की रहमत का हमपर, क़र्ज़ जो बढ़ता दिखे....
महफ़िलों में एक जलती नज़्म गा लेते हैं हम...
चंद्रशेखर आज़ाद को जलते हुए सुमन..
Author: दिलीप /
अब खून में आतिश का आगाज़ ज़रूरी है...
ज़हनी गुलामों होना आज़ाद ज़रूरी है...
हो बाँसुरी के स्वर से गूंज़ीं भले फ़िज़ायें...
पर चक्र सुदर्शन भी इक हाथ ज़रूरी है...
काग़ज़ से रगड़ खाकर चिंगारियाँ उठाए...
स्याही में क़लम की अब कुछ आग ज़रूरी है...
तुम अश्क़, चाँद, मय से ग़ज़लें सजाओ लेकिन...
जलती हुई चिता की भी राख ज़रूरी है...
यूँ मुफ़लिसी के दाने, खाएँगे पेट कब तक...
सूखे शजर से निकले इक शाख ज़रूरी है...
बदलाव का बवंडर चौखट पे फिर खड़ा है...
गूंगे गले से निकले आवाज़ ज़रूरी है...
जिस मुल्क के महल अब बेफ़िक्र सो रहे हैं...
उस मुल्क में जगा इक फुटपाथ ज़रूरी है...
दिल्ली की सल्तनत पे क़ब्ज़ा है मसख़रों का...
संजीदगी का उनको अब पाठ ज़रूरी है...
बारूद हो नसों में, आँखों में बेकली हो...
अब फिर से मुल्क को इक 'आज़ाद' ज़रूरी है...
पेट और सीने की लौ, लय में पिरोकर देखिए...
Author: दिलीप /
दूसरों
के
ग़म
से
भी
आँखें
भिगोकर
देखिए...
तन को, चुप फुटपाथ के कंकर चुभो कर देखिए...
गर समझ आती न हो मिट्टी के बेटों की कसक...
क़र्ज़ लेकर पत्थरों पर धान बोकर देखिए...
आपको लेना हो जो फाका फकीरी का मज़ा...
भीख में मिलते महल को मार ठोकर देखिए...
थक गये जो लिखते लिखते, याद से भीगी ग़ज़ल...
खून में अपनी क़लम, अबके डुबोकर देखिए...
पेट, आँखों और साँसों का समझिए फलसफा...
जून दो की रोटी की खातिर, जान खोकर देखिए...
पत्थरों से सिर रगड़ कर क्या मिला है अब तलक...
एक दिन अम्मा के आँचल में भी रोकर देखिए....
जिनको लगता इन्क़लाबी गीत लिखना है सरल...
पेट और सीने की लौ, लय में पिरोकर देखिए...
तन को, चुप फुटपाथ के कंकर चुभो कर देखिए...
गर समझ आती न हो मिट्टी के बेटों की कसक...
क़र्ज़ लेकर पत्थरों पर धान बोकर देखिए...
आपको लेना हो जो फाका फकीरी का मज़ा...
भीख में मिलते महल को मार ठोकर देखिए...
थक गये जो लिखते लिखते, याद से भीगी ग़ज़ल...
खून में अपनी क़लम, अबके डुबोकर देखिए...
पेट, आँखों और साँसों का समझिए फलसफा...
जून दो की रोटी की खातिर, जान खोकर देखिए...
पत्थरों से सिर रगड़ कर क्या मिला है अब तलक...
एक दिन अम्मा के आँचल में भी रोकर देखिए....
जिनको लगता इन्क़लाबी गीत लिखना है सरल...
पेट और सीने की लौ, लय में पिरोकर देखिए...
हो सके तो दिल को ही अपने शिवाला कीजिए...
Author: दिलीप /
भूखे दिल को इन्क़लाबी इक निवाला दीजिए...
बर्फ जैसे खून में थोड़ा उबाला दीजिए...
मुल्क की माँओं, बनाना राम जो मुश्किल लगे...
कोख की मिट्टी से इक चाणक्य ढाला कीजिए...
सीखने को है बहुत कुछ राम के किरदार में...
न मुझे शंभूक का झूठा हवाला दीजिए....
कब तलक हौव्वा संहालेगी दुपट्टा हाथ से...
आप ही अपनी ज़रा नज़रें सम्हाला कीजिए...
लाँघ कर दहलीज रातें, लील जाएँ दिन अगर...
रूह को सूरज बनाकर कुछ उजाला कीजिए...
मौत पर कब तक चलेगा यूँ तमाशा बोलिए...
ज़िंदगी के हक़ का अब, मुद्दा उछाला कीजिए...
दौड़ते, इस आज की जब धूप में थक जाइए...
छाँव में माज़ी की, बीता कल खंगाला कीजिए....
मंदिरों और मस्जिदों में सिर रगड़ कर क्या मिला...
हो सके तो दिल को ही अपने शिवाला कीजिए...
बर्फ जैसे खून में थोड़ा उबाला दीजिए...
मुल्क की माँओं, बनाना राम जो मुश्किल लगे...
कोख की मिट्टी से इक चाणक्य ढाला कीजिए...
सीखने को है बहुत कुछ राम के किरदार में...
न मुझे शंभूक का झूठा हवाला दीजिए....
कब तलक हौव्वा संहालेगी दुपट्टा हाथ से...
आप ही अपनी ज़रा नज़रें सम्हाला कीजिए...
लाँघ कर दहलीज रातें, लील जाएँ दिन अगर...
रूह को सूरज बनाकर कुछ उजाला कीजिए...
मौत पर कब तक चलेगा यूँ तमाशा बोलिए...
ज़िंदगी के हक़ का अब, मुद्दा उछाला कीजिए...
दौड़ते, इस आज की जब धूप में थक जाइए...
छाँव में माज़ी की, बीता कल खंगाला कीजिए....
मंदिरों और मस्जिदों में सिर रगड़ कर क्या मिला...
हो सके तो दिल को ही अपने शिवाला कीजिए...
कुछ ऐसे रिश्ते होते हैं, जो सौदेबाज़ नहीं होते...
Author: दिलीप /
जो
इश्क़,
खुदाई
न
होती,
ये
गीत
औ
साज़
नहीं
होते...
जो कान्हा न फेरे उंगली, मुरली में राग नहीं होते,
दो जिस्म मिले, इक आँच उठी, गर इश्क़ इसी को कहते हैं...
तो सूर, बिहारी, मीरा क्या, राधे और श्याम नहीं होते...
जो सूखे चेहरे देखे थे, उन पर मुस्काने छिड़काते...
जो तब गीला दिल कर लेते, यूँ सूखे आज नहीं होते...
पत्थर की चोटों से जिसके सिर से खून टपकता था...
यही कहा हंसकर उसने, हरदम सिर ताज नहीं होते...
जो कहना है आँख बंद कर रूह से अपनी तू कह दे...
इन सब चेहरों पर लब भी हैं, ये सब हमराज़ नहीं होते...
कोयल, तोते, मैना, बुलबुल और गौरैय्या से रिश्ते हैं...
गाँवों में अब भी छत पर क्यूँ, ये चीलें, बाज़ नही होते...
मैं बोला माँ कुछ ला न सका, उसने माथे को चूम लिया...
कुछ ऐसे रिश्ते होते हैं, जो सौदेबाज़ नहीं होते...
जो कान्हा न फेरे उंगली, मुरली में राग नहीं होते,
दो जिस्म मिले, इक आँच उठी, गर इश्क़ इसी को कहते हैं...
तो सूर, बिहारी, मीरा क्या, राधे और श्याम नहीं होते...
जो सूखे चेहरे देखे थे, उन पर मुस्काने छिड़काते...
जो तब गीला दिल कर लेते, यूँ सूखे आज नहीं होते...
पत्थर की चोटों से जिसके सिर से खून टपकता था...
यही कहा हंसकर उसने, हरदम सिर ताज नहीं होते...
जो कहना है आँख बंद कर रूह से अपनी तू कह दे...
इन सब चेहरों पर लब भी हैं, ये सब हमराज़ नहीं होते...
कोयल, तोते, मैना, बुलबुल और गौरैय्या से रिश्ते हैं...
गाँवों में अब भी छत पर क्यूँ, ये चीलें, बाज़ नही होते...
मैं बोला माँ कुछ ला न सका, उसने माथे को चूम लिया...
कुछ ऐसे रिश्ते होते हैं, जो सौदेबाज़ नहीं होते...
सबकी सुरक्षा का बिल ला रहे हैं वो....
Author: दिलीप /
उनपे जो झेल भूख, खेलें खेल ज़िंदगी का...
धर्म के ज़हर का कहर ढा रहे हैं वो...
महलों को भूख जब सूखे जिस्मों की हुई...
बस्तियों की हड्डियाँ चबा के खा रहे हैं वो...
वादे के बुरादे भरे खोखले चुनावी अब्र...
पाँच साल बाद फिर बरसा रहे हैं वो...
बेड के भी पास 'ज़ेड' रख के बिलों मे रहें...
सबकी सुरक्षा का बिल ला रहे हैं वो....
धर्म के ज़हर का कहर ढा रहे हैं वो...
महलों को भूख जब सूखे जिस्मों की हुई...
बस्तियों की हड्डियाँ चबा के खा रहे हैं वो...
वादे के बुरादे भरे खोखले चुनावी अब्र...
पाँच साल बाद फिर बरसा रहे हैं वो...
बेड के भी पास 'ज़ेड' रख के बिलों मे रहें...
सबकी सुरक्षा का बिल ला रहे हैं वो....
चुनावी भाषणों में अब, भुना रहे हैं यहाँ..
Author: दिलीप /
सियासी आग के करतब, दिखा रहे हैं यहाँ...
नाखुदा मुझको भंवर में, फँसा रहे हैं यहाँ...
कोई क्लाइमैक्स सिनेमाई चल रहा है अभी...
मौत के बाद मेरी जाँ बचा रहे हैं यहाँ...
मैने कमरों में भर लिए हैं नुकीले पत्थर...
चुनाव आने की खबर दिखा रहे हैं यहाँ...
न मयस्सर हुई है आग जहाँ लाशों को..
सियासी आग का हवन करा रहे हैं वहाँ...
सऊर है नहीं जिनको सड़क पे चलने का...
गाड़ियाँ वो मुल्क़ की चला रहे हैं यहाँ...
जवान भूख ने माँगा जो उनसे काम ज़रा...
उसे चकले का रास्ता दिखा रहे हैं यहाँ...
आज लाशें चला रही हैं रथ सियासत का...
कई परतों में ज़िंदगी, दबा रहे हैं यहाँ...
एक शायर ने तब लिखी थी इन्क़लाबी ग़ज़ल...
चुनावी भाषणों में अब, भुना रहे हैं यहाँ...
आओ मिलकर ज़रा इस पर भी गौर करते हैं...
Author: दिलीप /
मुल्क़ ज़िंदा न फिर हो जाए, ख़ौफ़ रखते हैं...
वो तो लाशों की नुमाइश का शौक रखते हैं...
यहाँ संसद ने तड़पते हुए, दम तोड़ दिया...
वो अपनी बात में ज़हरीला छौंक रखते हैं...
वो जो ऐलान कागज़ी उड़ा रहे हैं अभी...
उसके नीचे छिपी मुहर में मौत रखते हैं....
एक हमले में जो दुबके हुए थे मेज तले...
बदन पे देखो तो खादी का रौब रखते हैं...
जो कई साल से बाँटा किए थे भूख यहाँ...
वो आज हाथ में रोटी का कौर रखते हैं...
यूँ दिल की आग को आँसू से मिटाएँ कब तक...
आओ मिलकर ज़रा इस पर भी गौर करते हैं...
अभी मेरे लिए हिंदोस्तान बाकी है...
Author: दिलीप /
अभी सुलग़ेगा वो कुछ और, शाम बाक़ी है...
हमारे बीच की बातें तमाम बाक़ी हैं...
वो बाँधती है कलावा अभी भी पीपल से...
अभी उस घर में बुढ़ापे का मान बाक़ी है...
जबसे आँगन से उखाड़ी गयी हरी तुलसी...
वो घर रहा ही नहीं, बस मकान बाक़ी है...
उठी बेटी पे जो नज़र बुरी, मिटा दी गयी...
अभी बस्ती में मेरे आन बान बाक़ी है...
आसमाँ छू के रुक गया था परिंदा देखो...
बादलों ने कहा, प्यारे उड़ान बाक़ी है...
फिर से लेने लगा है मुल्क़ मेरा अंगड़ाई...
उसे यकीं है कि बेटे जवान बाकी हैं...
वो काफिला बढ़ा मरते फकीर की जानिब
और फिर लौट गया कह के जान बाक़ी है...
हमारे बीच की बातें तमाम बाक़ी हैं...
वो बाँधती है कलावा अभी भी पीपल से...
अभी उस घर में बुढ़ापे का मान बाक़ी है...
जबसे आँगन से उखाड़ी गयी हरी तुलसी...
वो घर रहा ही नहीं, बस मकान बाक़ी है...
उठी बेटी पे जो नज़र बुरी, मिटा दी गयी...
अभी बस्ती में मेरे आन बान बाक़ी है...
आसमाँ छू के रुक गया था परिंदा देखो...
बादलों ने कहा, प्यारे उड़ान बाक़ी है...
फिर से लेने लगा है मुल्क़ मेरा अंगड़ाई...
उसे यकीं है कि बेटे जवान बाकी हैं...
वो काफिला बढ़ा मरते फकीर की जानिब
और फिर लौट गया कह के जान बाक़ी है...
करेंगे बात मज़हबों की कभी फुरसत में...
अभी मेरे लिए हिंदोस्तान बाकी है
अभी मेरे लिए हिंदोस्तान बाकी है
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