कैसी शय है यार मोहब्बत, बारिश सूखी लगती है...
धूप ज़रा ठंडी लगती है, सर्दी गर्मी लगती है...
कैसे कह दूं नाम तुम्हारा, और किसी से वाह सुनू...
कुछ ग़ज़लें तो बस सीने मे, उलझी अच्छी लगती हैं...
कहाँ मोहब्बत के जज़्बे को, इन आँखों से तोले हम...
कभी कभी सौ फूल नही, इक पत्ती अच्छी लगती है...
उनके लब की खामोशी का, दर्द कहाँ तक सह पाते...
हमें आज उनकी होठों से, गाली अच्छी लगती है...
बड़े करिश्मे हैं दुनिया मे, इससे बेहतर क्या होगा...
माँ के हाथों से रूखी, रोटी भी अच्छी लगती है...
तुम कहते हो हम सुनते हैं, 'अभीऔरहैजहाँ' 'सनम'...
कुछ बातें तो बस कहने सुनने मे अच्छी लगती हैं...