शहर के बीच में ये घोंसले नहीं होते…

Author: दिलीप /


कब्र में ज़िंदगी के हौंसले नहीं होते
सरहदों पे यहाँ, घोंसले नहीं होते

चबा रहे हैं ज़मीं, आसमाँ, फ़िज़ा सारी
यहाँ इंसान कभी पोपले नहीं होते

कहीं सूखे में, खाली आसमाँ है और यहाँ
ये अब्र बाढ़ पर भी खोखले नहीं होते

क्या चीर फाड़ के भूनोगे, खा भी जाओगे
अरे इंसान कभी ‘ढोकलेनहीं होते

 जो अपने घर का पता हमको खुदा दे देता
ये बुतो, मस्जिदों के चोंचले नहीं होते

इस बस्ती में हैं ग़रीब और पास मे ‘मिल’…
यहाँ बच्चे भी कभी तोतले नहीं होते

ये परिंदे जो समझते, इस आग के करतब
शहर के बीच में ये घोंसले नहीं होते

मजबूरी...

Author: दिलीप /


बूँद...
बड़ी उम्मीद से निकली थी घर से...
सोचा था एक दिन कोई नदी ब्याह लेगी उसे...
फिर एक सागर की हो जाएगी...
उसे मालूम न था...
शहर की सड़कों में गढ्ढे बड़े होते हैं...
फँस गयी एक गढ्ढे में...
पहिए आए बहुत से...
रौंद कर निकल गये...
सबको थाम कोशिश करती रही भागने की...
किसी ने थामा नहीं..
थामा भी, तो कुछ दूर ले जाकर पटक दिया...
आज उसी गढ्ढे मे दफ़्न हो गयी...

फ्लाइंग किस और इक ख़याल

Author: दिलीप /


याद है तुमको...
उस शाम जब तुमने लौटते हुए...
फ्लाइंग किस दी थी...
बादल शरमा के लाल हो गये थे...
बहुत याद करते हैं तुम्हें...
अब जब भी तुम्हारा खत आता है...
आ जाते हैं खिड़की से...
ले जाते हैं तुम्हारा काजल...
जो उन नम कोरे काग़ज़ो संग आ जाता है...
फिर उसे फैलाकर आसमान मे लोटते हैं...
तुम्हें याद करते हैं...
और खूब रोते हैं..

---------------------------------------------

बड़ी देर से जहेन में...
इक ख़याल भिनभिना रहा था...
बड़ा परेशान किया कम्बख़्त ने...
अंदर घूमते घूमते थककर...
पलकों के नीचे बैठ गया...
फिर धीरे से उतर आया काग़ज़ पर...
मौका देखते ही मार दिया उसको...
धब्बा पड़ गया है...
गीला हो गया है काग़ज़...

ग़ज़ल के ज़ायके में, गम का तड़का भी ज़रूरी है...

Author: दिलीप /


ज़हेन में चाहे ही, बिकने की तैय्यारी अधूरी है...
सियासत में मगर, मालूम हो कीमत, ज़रूरी है...

फटी हरियालियों ने कब भला ढँका ग़रीबी को...
कभी सरकार ने घूरी, कभी लाला ने घूरी है...

था जिसका घर, उसी को आज, इक कमरा मयस्सर है...
है घर का एक कोना थार, और बाकी मसूरी है...

वो बोले साँप, रस्सी को, कई डसवा भी आए हैं...
यहाँ पर बिक रही चमचा-गिरी और जी-हुज़ूरी है...

बनाई आग, फिर मज़हब, बनाई झोपड़ी फिर भी...
ज़मीं है सोचती, इंसान भी, कितना फितूरी है..

बड़ी उम्मीद से, खेतों को गिरवी रखके भेजा था...
है अब मुन्ने को लगता, अम्मा कहना बेसहूरी है...

वो लिखना चाहती थी हाल माँ से, पर वो क्या लिखती...
वो बेटी जल गयी, बाकी बची चिट्ठी अधूरी है...

मना करते रहे साहब, मगर वो खा गया रोटी...
सड़क पर गिर गयी तो क्या, वो दिन भर की मजूरी है....

डुबोया आँसुओं में नाम तेरा, आँच दी थोड़ी...
ग़ज़ल के ज़ायके में, गम का तड़का भी ज़रूरी है...

बस्ती में प्यासे मर रहे हैं लोग...

Author: दिलीप /


ज़रूरत है मदारी, और करतब कर रहे हैं लोग...
वहाँ घुटने ही दिखते हैं जहाँ पर सर रहे हैं लोग...

उधर भी गम यही हैं, ख्वाब भी, खुशियाँ भी ये ही हैं...
लकीरों से ज़मीं की, खामखा ही डर रहे हैं लोग...

चुनावों की अजब होली के अब आसार दिखते हैं...
वहाँ पर खून से अपने कुओं को भर रहे हैं लोग...

अजब जम्हूरियत का इक तमाशा, है हमारा मुल्क...
कहीं पर जिस्म खाली और कहीं पर चर रहे हैं लोग...

थी सपनों की दुकानें, लूट ली दंगाइयों ने कल...
ये बोनस मजहबों का है, घरों को भर रहे हैं लोग...

मकानों में नरम रिश्तों की गर्मी रह नहीं पाती...
यकीं होता नहीं इस ही शहर में, घर रहे हैं लोग....

तरक्की की परत मे दब गये, कुछ ख्वाब अधनंगे...
इसी सूखी नदी के दो मुहानों पर रहे हैं लोग...

जहां मे लोग तो उम्मीद से ज़्यादा खरे उतरे...
खुदा जो सोच न पाया, वही सब कर रहे हैं लोग...

है इतना ख़ौफ़ खाने लाश, कौवे भी नहीं आते...
यकीं होता नहीं, इस मुल्क मे मंदर रहे हैं लोग...

छीना झपटी, और घुड़की, और बंदर-बाँट...
कोई कल कह रहा था कि कभी बंदर रहे हैं लोग...

तेरी इक लट से बीते साल, बादल बाँध आया था...
गिरह वो खोल दो, बस्ती में प्यासे मर रहे हैं लोग...

आखरी निशानी और ख़याल का अंडा...

Author: दिलीप /


गुस्सा थी तुम एक दिन मुझसे और...
गुस्सा और गर्म गर्म चाय ...
दोनो ही उडेल दिए बेचारे कप में...
कुछ ज़्यादा ही...
कप झेल न पाया, रो दिया...
तुम कान पकड़ कर उसे लाई...
और रख दिया आकर...
उस काग़ज़ पर जिस पर...
नज़्म गढ़ने की मुसलसल कोशिश जारी थी...
तुम मन ही मन हॉर्न बजाते...
यू टर्न लेकर चल दी...
कप डर के चिपक गया काग़ज़ से...
पकड़ का वो गोल निशान अब तक रखा है...
संभाल कर...
जैसे चूम कर तुमने दिया हो कोई कंगन...
आखरी निशानी की तरह...
---------------------------------------------------

आँख लग गयी यूँही...
काग़ज़ के बिस्तर पर...
कहीं से इक ख़याल रेंगता हुआ...
पलकों में घुस आया...
इक अंडा देकर चला गया..
शायद पलकें सेती रहीं उसे...
अब आँख खुली तो देखा अंडा फूटा पड़ा है...
इक मासूम सी नज़्म पैदा हुई है...
लावारिस है..
सोच रहा हूँ अपना नाम दे दूं..

सूरज का हलवा, त्रिवेणी, तुम्हारी याद...

Author: दिलीप /



रात को सस्ते मे मिल गया शायद...
कुछ सुर्ख, कुछ काले कद्दूकस से...
उस एक पाव सूरज को घिसे जा रही है...
तारे भूखे हैं बहुत आज...
अमावस है न...
चाँद की बोरी कल चुक गयी थी...
पर लगता है...
आज रसोई महकेगी...
आज सूरज का हलवा बनेगा...
---------------------------------------------------------
कल रात मैं दिल के..
प्रयाग मे था, संगम पर खड़ा...
देख रहा था त्रिवेणी को...
उजली सी ग़ज़ल, स्याह सी मय...
तुम दिखी तो नहीं, पर जानता हूँ...
उन दोनो के नीचे तुम...
धीरे से बह रही थी...
--------------------------------------------------------
याद है तुमने एक बार तोहफे में...
राधा कृष्ण दिए थे...
पत्थर के...
तुम दूर क्या हुई..
अब उनमें भी दरारें आ गयी हैं..
--------------------------------------------------------
तुम्हारी याद...
जानता हूँ सेहत के लिए ठीक नहीं...
पर छोड़ी नहीं जाती...
आदत जो पड़ गयी है...
इसलिए अब फिल्टर लगा कर पीता हूँ...

मुझे तुम माफ़ कर देना...

Author: दिलीप /


 मेरा, नज़मों की झाड़ू से, यूँ मन को साफ कर देना...
तुम्हे खलता बहुत होगा, मुझे तुम माफ़ कर देना...

है ये मालूम, बन बादल, बरस कर फिर जलाएँगे...
ज़रूरी है मगर, यादों का दरिया, भाप कर देना...

सफ़र का दर्द, पतझड़, फिर बहारें और फिर पतझड़....
किसी को आप से तुम, और फिर से, आप कर देना...

मैं यादों को बना नश्तर, खुला रखता हूँ ज़ख़्मों को...
मुझे अच्छा सा लगता है, खरोन्चे घाव कर लेना...

तड़पने का मज़ा बढ़ता है, जितना जल्दी डूबोगे...
अकलमंदी है, चाहत के सफ़र में, नाव भर लेना...

खुदा मुझको समंदर दे दिया है, ग़म नहीं मुझको...
मगर जिसको भी अब देना, ज़रा सा नाप कर देना...

तुम्हे तकलीफ़ ही देंगी, हैं बेमौसम, मेरी ग़ज़लें...
कभी छतरी, कभी स्वेटर, कभी तुम छाँव कर लेना...

अंधेरी राह, पत्थर, आग, दलदल और काँटों से...
तुम्हें पड़ता है, यूँ होकर गुज़रना, माफ़ कर देना..

कोहरा झोंक दिया करती थी...

Author: दिलीप /


याद है तुम...
लब खोलती थी और...
कोहरा झोंक दिया करती थी..
आईने की आँख मे...
फिर रोशनी का कोई टुकड़ा...
उंगली की पोर पर रख कर....
नाम लिख देती थी मेरा...
चमक जाता था आईना...
और साथ में, मैं भी...
अब आईनों पर कोहरे नहीं रखता कोई...
आँधी चलती है...
गर्द रह जाती है...
कुछ दिखता नहीं....
फिर बारिश होती है...
कुछ अंदर भी, कुछ बाहर भी...
पर आईना चमकता नहीं,
बस धुल जाता है...
और नाम मेरा जो फीका फीका चमक रहा था...
बुझ जाता है, बह जाता है...

अजीब लोग और जंग...

Author: दिलीप /


 बड़ा अजीब है वो...
रोज़ दुआ करता है कहीं भूकंप, एक्सीडेंट...
दंगा या कोई और बड़ा हादसा हो जाए...
सबसे पहले पहुँचता है वहाँ...
खून के तालाब उसे रास आते हैं...
लाशों के ढेर उसकी आँखें चमका देते हैं...
वो लाशों का बोझ हल्का करता है...
अब लाश को वक़्त क्या देखना..
कौन सा ऊपर जाकर रिश्वत देनी है...
घड़ियाँ, चेन, जो कुछ भी काम का हो...
सब उतार लेता है...
भगवान, खुदा में जब जब ठनती है...
ये तमाशा देखने ज़रूर जाता है...
जब जब ऊपरवाला बड़ा नाराज़ होता है...
ये बड़ा खुश होता है...
कोई काम नहीं करता...
पर घर मे सब कुछ है...
"आख़िर भगवान का दिया सब कुछ जो है "




जंग...
-------
एक ताकतवर पड़ोसी को...
अच्छे नहीं लगते थे...
वो पड़ोस के काँच....
स्टील के गिद्ध भेजे थे...
मुँह मे पत्थर लिए...
ऊपर से काँच पर फेंक दिए...
काँच टूट कर बिखर गये...
लाशों की किरचे पड़ी रहीं...
कुछ नन्हे काँच जिन तक पत्थर पहुँच नहीं पाए...
चमक नहीं रहे थे...
बस आवाज़ कर रहे थे...
कोई कुछ टूटे काँच...
कैमरे में भर कर ले गया था....
कहता था ये टूटे काँच...
बड़े 'रेयर' हैं...
बड़े मँहगे बिकते हैं...

फिर अधूरा हो गया हूँ...

Author: दिलीप /


सियासत और मज़हब का सा रिश्ता हो गया हूँ...
बड़ी जद्दोजहद के बाद इंसां हो गया हूँ...

मुझे सिर पर चढ़ाया, डूबने को फेंक आए...
मैं पत्थर का कोई बेबस, खुदा सा हो गया हूँ...

मेरे अपने, मेरे चुकने की राहें ताकते हैं...
पुराने क़र्ज़ का कोई, बकाया हो गया हूँ...

तुम्हारे साथ था तो आसमाँ ढकने चला था...
तुम्हारे बाद इक उधड़ा सा धागा हो गया हूँ...

यहाँ पर लोग पास आए, बुझाई प्यास अपनी...
मगर लगता है अब सूखे कुएँ सा हो गया हूँ...

तुम्हारा साथ शायद सिर्फ़ इक शाही भरम था...
मैं अब बस वक़्त के हाथों का प्यादा हो गया हूँ...

कई ग़ज़लें जो दिल के बोझ से कुचली गयी हैं...
उन्हीं का ख़ूं से लथपथ एक हिस्सा हो गया हूँ...

मुकम्मल हो सकूँ शायद, मेरी किस्मत नहीं ये...
अधूरा ही चला था, फिर अधूरा हो गया हूँ...

ये काफ़िर क्या होता है?

Author: दिलीप /


नन्हा मोहसिन...
दादा जी के साथ रोज़ मस्ज़िद जाता...
टोपी पहन के जब झुकता...
तो लगता तारा लिपट गया हो चाँद से...
बाहर निकलता, तो एक पल को ठिठक जाता...
मस्ज़िद के अहाते में लगे आम के पेड़...
को एकटक देखने लगता...
कोई पुराना रिश्ता था शायद...
जाता उसके पास कुछ पपड़ी जमे ज़ख़्मों पर...
अपने नन्हे हाथ से मरहम रख देता....
पेड़ को गुदगुदी होती...
हँसता तो एक एक पत्ता हिलने लगता...
पेड़ सोचता, अबके गर्मी आने दो...
कुछ मीठा खिलाऊँगा...
खैर वक़्त लुढ़का..गर्मी आई...
कच्ची कैरियाँ बाहों मे लटकाए..
धूप मे पका रहा था...
खुश था आख़िर मोहसिन को कुछ दे तो सकता था...
जैसे जैसे आम पकने लगे..उसकी खुशी बढ़ती गयी...
अपनी कलाइयाँ और नीचे कर दी थी...
शायद मोहसिन के लिए ही...
एक दिन सुबह मोहसिन आया...
पेड़ को निहारा...
वो उदास सिर झुकाए खड़ा था...
उसके पास देने के लिए कुछ नहीं बचा था...
कल शाम को कोई साहब आए थे...
बड़ी सी गाड़ी में...
सफेद कलफ किए हुए कुर्ते में...
उतार लिए सारे आम उन्होनें...
कोई बता रहा था...
उन्हे पके आमों का रंग नहीं पसंद था...
कह रहे थे की ये रंग काफिरों का है...
नन्हा मोहसिन भीगी पलकें लिए...
पूछता रहा दादाजान से...
"ये काफ़िर क्या होता है?"

कल रात इक ग़ज़ल पी थी..

Author: दिलीप /


सभी दोस्तों व शुभचिंतकों का बहुत बहुत शुक्रिया...वक़्त नहीं मिल पाता आप सभी का आभार जताने का..इसलिए आपसे माफी भी माँग रहा हूँ और आपसे अनुनय भी कर रहा हूँ, कि अपना स्नेह यूँही बनाए रखिएगा...
आज की नज़्म...

कल रात इक ग़ज़ल पी थी...
चाँद निचोड़ा था पहले पेग मे...
ख्यालों के कई सर्द टुकड़े भी डाले...
गले से गुज़रा तो किक लगी थी...
अगला इक शॉट बनाया...
जिसमें गम की कुछ बूँदें डाली...
तारों को पीस कर ओस मे मिलाया...
हथेली पर रखा और चाट लिया...
फिर जाने कितने पेग लगाए जिसमे दुनिया की...
कुछ रस्म रिवाजें घोली थी...
कुछ दर्द पसीने के मिलाए...
दिल की कुछ कड़वाहट इसी बहाने...
ख़त्म हुई थी...
आख़िर मे नीट मारी...
तुम्हारे नाम की...
ज़्यादा हो गयी कल शायद...
अब तक हॅंगओवर में हूँ...
पर एक बात समझ गया मैं...
मुझे ग़ज़ल नहीं चढ़ती...
मुझे तो बस...
तुम्हारा नाम चढ़ता है...

छुट्टी और काम...

Author: दिलीप /


दूर इक मुहल्ले में...
मज़हब नन्गई पर उतर आए थे...
बहुत भूखे थे शायद...
बस्तियाँ पका रहे थे...
खून मे डुबो डुबो कर माँस भुन रहा था...
आँसुओं में खून मिलाकर पी रहे थे...
खून की मय चढ़ गयी थी ...
झूम रहे थे, जश्न मना रहे थे...
इतने भूखे थे कि जाने कितनी इज़्ज़तें...
यूँही कच्ची चबा गये...
इधर इस मुहल्ले में सब ख़ौफज़दा थे...
बस मिन्कू खुश था...
दिन भर की प्लानिंग कर रहा था...
आज स्कूल में छुट्टी जो थी...
----------------------------------------------------------

जबसे क़ानून बन गया है...
कि पेड़ काटना ज़ुर्म है...
झोपड़ी के इर्द गिर्द...
कई इमारतें उग आई हैं...
हरिया को अब टूटते तारे दिखते ही नहीं...
अब वो कोई दुआ माँग नहीं पाता...
आजकल वो इमारतों मे काम माँगता है...

कल मैं कूड़ा-दान न रहा...

Author: दिलीप /


सुबह होने से पहले ही..
कोई आकर मुझे जगा देता है...
दिन भर की गाढ़ी कमाई छीन ले जाता है मुझसे...
मैं बस ताकता रहता हूँ...
जूठन, काग़ज़ के पुर्ज़े, सड़ी गली पन्नीयाँ...
और जाने क्या क्या...
सब ले जाता है...
और मैं कूड़ा-दान फिर दिन भर...
भिखारी की तरह खड़ा रहता हूँ...
कोई करीब आता है..कुछ देता है...
पर प्यार से पूचकारता नहीं...
अछूत जो ठहरा...
कुछ तो दूर से ही निशाने का खेल खेलते हैं...
जब नहीं जाता मेरे अंदर, तो उठाते नहीं...
चले जाते हैं...
ये हार जीत की बात थोड़े ही है....
पर कल रात कुछ जल्दी ही उठ गया मैं...
एक बच्चे के रोने की आवाज़ से...
कोई छोड़ गया था मेरे दामन में...
अजीब बात है..मैं कूड़ा बच्चों की तरह संजोए रखता हूँ...
और लोग बच्चों को भी कूड़ा समझते हैं....
खैर मैं पूरी रात जागा...
अपने सख़्त हाथों से उसे थामे रखा...
कल मैं कूड़ा-दान न रहा...
माँ हो गया...

डरता हूँ गाँव जाने से...

Author: दिलीप /


डरता हूँ गाँव जाने से...
बड़ा उल्टा निज़ाम है वहाँ का..
रास्ते कच्चे, पर मीठे...
रास्ते के दोनो तरफ...
खेत, जैसे हरी चादरें डाल दी हो...
आसमान ने सूखने के लिए...
खेत के परली तरफ, बरसों से बैठा वो कुँआ...
चाँद छुपा कर बैठा है अंदर...
अंदर झाँको तो चाँद में कोई...
अपनी सूरत का भी दिखता है...
चाँदनी बाल्टियों मे भर कर ले जाते हैं लोग उससे...
रात को उछाल देता है चाँद...
और कैच कर लेता है आसमान...
थोड़ा आगे चलो...
तो कुछ पुराने जोगियों सी झोपडियाँ दिखती हैं...
पास एक तालाब भी है...
बूढ़े बुजुर्ग की तरह खटिया पर लेटा रहता है...
बच्चे उसकी गोदी में जाकर खूब उधम मचाते हैं...
नीम, आम के पेड़ जो बैठे रहते हैं सिंहासन पर...
मोटी लाठियाँ लेकर...
हवाएँ हल्की सी गुदगुदी कर दें...
तो खुश होकर...
राजा की तरह सब जवाहरात उतार कर दे दे...
शाम को चौपाल मे लोग नहीं बैठते...
मिठाइयाँ बैठती हैं...
हवा मे चाशनी घुलती है...
अपनेपन, प्यार से दीवारें लीपी जाती हैं...
गाँव मे ज़िंदगी ख़रीदनी नहीं पड़ती...
हाथ बढाओ और मुफ़्त मे तोड़ लो...
पर अब आदत नहीं रही इन सबकी...
न जिंदगी की, न अपनेपन की...
बहुत कुछ भूला हूँ तब जाकर...
शहर के काबिल बन पाया हूँ...
डरता हूँ, कहीं फिर से गँवार न हो जाऊँ...
बस इसीलिए डरता हूँ गाँव जाने से...

मनी प्लांट...

Author: दिलीप /

यूँही झाड़ियों मे खेलता रहता था...
बारिश मे जब बूँदें उछल उछल कर थक जाती...
तब चीटियाँ अक्सर आती...
मेरी चौड़ी बाहों पर चढ़ती...
नीचे कुल्ली भर पानी के स्वीमिंग पूल में कूद जाती...
बरगद बाबा, पड़ोस वाले नीम ताऊ...
तुलसी बुआ सब थे वहाँ...
जब मैं सुबह देर तक सोता रहता...
नीम ताऊ अक्सर ऊपर से अपने फल गिराते...
चोट न लग जाए...
तो पहले पत्तों का पीला कंबल भी डाल देते थे...
मैं सुस्त धीरे धीरे रेंग कर...
तुलसी बुआ के पास पहुँच जाता...
रोज़ मुझे कुछ इत्र डालकर ओस से नहलाती...
दिन भर महक आया करती...
बरगद बाबा तो बहुत बूढ़े हो गये थे..
लाठियों पर चलते...
अक्सर उनकी लाहती पकड़कर उन्हे घुमा लाता...
थोड़ा बड़ा हुआ तो नामकरण की बारी आई...
आदमी को बुलाया गया पर...
उस दिन सब बदल गया...
मेरा वो अपना घर..रिश्ते सब छूट गये...
आदमी ले गया मुझे झपट्टा मार के...
मेरा नाम जो रखा था उसने...
मनी प्लांट....

आसमान ने नये पर्दे खरीद लिए हैं...

Author: दिलीप /


आसमान ने नये पर्दे खरीद लिए हैं...
ग्रे शेड के...
कोने मे हल्के काले से दिखते हैं तो...
लगता है कि ज़ुल्फ तुम्हारी...
जो कल तकिये से अनबन मे टूट गयी थी...
उससे तकिये ने तुरपाई कर दी है...
आसमान के उस पर्दे की...
गर्मी ने जो बूँदें तुम्हारी माथे पर रख छोड़ी थी...
मोती बन गयी सारी...
तुम जागती उससे पहले ही...
बेंच दिए गर्मी ने मोती आसमान को...
देखो न कैसी झालर सी लटका दी है पर्दे से...
सुना है कल रात तुम्हारा बहा था काजल...
इसीलिए ये पर्दे भी अब तक गीले हैं...
देखो न तुम रोती हो जब याद मे मेरी...
सारी दुनिया भीगी भीगी सी लगती है...
एक मैं रोता हूँ...
तो बस कुछ काग़ज़ गीले होते हैं...
कुछ लफ्ज़ उसी मे घुल जाते हैं...
बारिश न हो पर...
यहाँ भी कुछ बरसता ज़रूर है...

कल शहर मे आग पकड़ने वाले घूम रहे थे...

Author: दिलीप /


कल शहर मे आग पकड़ने वाले घूम रहे थे...
मैं अपनी झोपड़ी मे दुबक बस शोर सुन रहा था...
छत के छेद से झाँक कर देखा तो...
लोग हाथों मे आग दबोन्चे दौड़ रहे थे...
आग तड़प रही थी...
चीख रही थी...
हवा से गुहार कर रही थी की बचाले...
हवा भी अपनी ही धुन मे थी...
आग को दो चार हाथ लगाए और चलती बनी...
तभी कोई आग किसी हथेली से छिटक कर...
मेरी छत पर उड़ आई...
पेट से थी शायद, न जाने कितने अंडे दे डाले...
समझ नहीं पाया किसे बचाऊँ..
आग को या झोपड़ी को...
बाहर भाग गया, रात भर नहीं लौटा...
सुबह लौटा, तो न आग बची थी, न झोपड़ी..