प्यारी ममता, याद मुझे जब करती होगी....(पुनः संपादित..)

Author: दिलीप /


पिछवाड़े के कमरे का खाली सा बिस्तर...
बिना सिलवटें गर्द भरी वो सूनी चादर...
पड़ी हुई मायूस छतो पे कटी पतंगें ...
अलमारी मे पन्नी के दो चार तिरंगे...

घड़ियों की टिक टिक भी कितनी खलती होगी...
प्यारी ममता, याद मुझे जब करती होगी....

मुरझाया सा प्यार, किसी की सूनी बाहें...
दरवाजे की दस्तक को, बेचैन निगाहें...
सोच रहा, वो चेहरा कितना पीला होगा...
कोना क्या, पूरा ही आँचल गीला होगा...

तब यादों की बेल, कभी मन चढ़ती होगी...
प्यारी ममता, याद मुझे जब करती होगी....

शाम, सामने मैदानों मे नन्हे मेले..
खट्टी जामुन वाले रस्ते चलते ठेले...
पीपल के आँगन मे फैले सूखे पत्ते...
अलमारी के इक कोने में मेरे लत्ते...

देख देख ममता, मन मे घुट मरती होगी...
प्यारी ममता, याद मुझे जब करती होगी....

दीवाली पे बाकी घर जब सजते होंगे...
गली मे जब होली के गाने बजते होंगे...
राखी पे जब बहना छुप छुप रोती होगी...
लड़ती होगी सबसे, भूखी सोती होगी...

राह मेरे आने की, माँ तब तकती होगी...
प्यारी ममता, याद मुझे जब करती होगी....

कभी कह नही पाया पर बहन, तू मुझे जान से प्यारी है......

Author: दिलीप /




कभी कोई आया था ज़िंदगी मे...
तो चिढन सी थी की मेरे हिस्से का प्यार कम हो गया....
माँ की गोद मुझसे छिन किसी और को मिल गयी....
पिताजी की नज़रो मे कोई और चेहरा चढ़ गया....
नाराज़ था मैं उससे क्यूँ आई वो...
छिन गया था मुझसे मेरा संसार....
मौका मिलते ही उसे परेशान करता था
खींचता था उसके बाल....
पर कभी उसकी प्यारी सूरत देखकर प्यार आ जाता था
तो मुँह सड़ाकर चला जाता था....
अपने कमरे से छिप्कर उसे मुँह चिढ़ाता था....
पर वो सच मे बहुत प्यारी थी...
इसीलिए सबकी दुलारी थी....
उसकी आँखें मुझे देख कर खिल उठती थी....
टुक टुक कर मुझे ही देखती रहती थी....
शायद वो मुझसे कुछ कहना चाहती थी....
मेरी भी गोद मे आकर रहना चाहती थी....
फिर मेरे भी हाथ उसे गोद मे लेने को मचलने लगे....
थोड़ा थोड़ा उसकी बातें समझने लगे....
मेरे मन का युद्ध समाप्त हुआ....
जब उसने अपनी छोटी सी उंगलियो से मुझे छुआ....
अब मैं अपने खिलौने उसके साथ खेलने लगा....
उसकी गुड़िया के हाथ और आँखें तोड़ने लगा...
टूटी चूड़ियाँ फटे हुए काग़ज़ जो भी थे....
मेरे बचपन के सारे ख़ज़ाने अब उसके भी थे....
अब वो धीरे धीरे मेरी उंगली पकड़ कर चलने लगी....
मेरे हान्थो से चॉक्लेट टॉफियाँ छीनने लगी....
फिर एक दौर आया जब हम बिछड़े....
उसकी एहमियत अब ज़्यादा समझ मे आने लगी....
सोते मे उसकी याद तकिया भिगाने लगी......
फिर दुबारा मिले लड़े झगड़े साथ रहे....
ज़िंदगी के सबसे प्यारे लम्हे बिताए....
साथ रोए, साथ खाए....
आज मैं यहा हूँ दूर उससे....
आँखों मे उसका चेहरा अब भी सताता है....
दिल रह रह कर उसी के पास चला जाता है....
पहले उसके हर जन्मदिन पर साथ थे....
अब वो हर साल मेरे बिना बड़ी होती है....
दिल मे इक टीस सी होती है....
एक दिन वो कहीं और चली जाएगी....
लगता है भाग दौड़ मे कट वो भी घड़ी जाएगी....
और मैं फिर यही आ जाऊँगा....
अपनी ज़िंदगी मे खो जाऊँगा....
वो पल जो उसके साथ थे....वो भी सताएँगे....
और पल जो उसके बिना कटे वो भी रुलाएँगे....
कभी कह नही पाया पर मैं उससे बहुत प्यार करता हूँ....
हमेशा उससे मिलने की घड़ी का इंतज़ार करता हूँ....
वो तब भी मेरे लिए गुड़िया थी....
अब भी मेरी दुलारी है....
कभी कह नही पाया पर बहन....
पर तू मुझे जान से प्यारी है......

मैं अच्छा कैसे बन जाऊं, मैं अच्छाई से डरता हूँ....

Author: दिलीप /


इसमें कुछ प्रश्न छिपे हैं जो कभी बचपन में उठा करते थे...फिर आज की एक सोच दिखानी चाही...प्रश्न अभी भी मन में है...इसलिए आपसे उत्तर की आशा रखता हूँ.....

मर्यादा जीवन भर पूजी, बदले मे वनवास मिला...
बड़ी सती थी जिसको कहते जग का तब उपहास मिला...
शिव का आधा अंग बनी, पर बदले मे थी आग मिली...
सत्यमूर्ति बन भटक रहा था, बुझी पुत्र की साँस मिली...

इंद्रिय सारी जीत चुका था, उसको पुत्र वियोग मिला...
विष प्याला उपहार मिला था कृष्ण भक्ति का जोग लिया...
दानवीर, आदर्श सखा, पर छल से था वो वधा गया...
ज्ञान मूर्ति इक संत का शव भी, था शैय्या पर पड़ा रहा...

धर्म हेतु उपदेश दिया पर पूरा वंश विनाश मिला...
हरि के थे जो मात पिता उनको क्यूँ कारावास मिला...
मात पिता का बड़ा भक्त था, बाणों का आघात हुआ...
ऐसे ही ना जाने कितने अच्छे जन का ह्रास हुआ....

थे ऐसे भी जो पाप कर्म की परिभाषा का अर्थ बने...
जो अच्छाई को धूल चटाते, धर्म अंत का गर्त बने...
जो अत्याचार मचाते थे, दूजो की पत्नी लाते थे...
वो ईश के हाथों मरते थे, फिर परम गति को पाते थे...

अब ये बतलाओ सत्य बोल मैं कौन सा सुख पा जाऊँगा...
मैं धर्म राह पे चला अगर,दुख कष्ट सदा ही पाऊँगा...
नाम अमरता नही चाहिए, चयन सुखों का करता हूँ...
मैं अच्छा कैसे बन जाऊं, मैं अच्छाई से डरता हूँ....

आसमान से टूटा तारा...आँख से टूटी पलक....और इंसान की फितरत...

Author: दिलीप /

अक्सर सोचता हूँ जब भी तारा टूटता है या पलक का बाल टूट कर गिरता है...तो हम कुछ मांगते क्यूँ है...उसी सवाल का जवाब जो सोच पाया वही है ये रचना...पुरानी है...थोड़े संपादन के साथ...


नभ के दामन से कल इक सितारा गिरा...
माँ के आँचल का सूना हुआ फिर सिरा...
माँ को फ़ुर्सत ना थी पर दो आँसू गिरे...
भाई तकते रहे बस खड़े ही खड़े...

वो भी अंतिम सफ़र को बिलखते चला...
इतना रोता रहा की वो खुद बुझ गया...
माँ भी खाली जगह को यूँ तकती रही...
मोती यादों के चुन चुन के रखती रही...


कल बिछड़ने का इक और किस्सा हुआ...
खिलखिलाते हुए दिल का हिस्सा हुआ...
कल थी किस्मत की कैसी यूँ बुद्धि फिरी...
इक पलक टूट कर आँख से कल गिरी...


आँख की आँख मे कुछ नमी गयी...
दुख की बदली नयन मन पे थी छा गयी...
पर पलक को बिछड़ना ना मंजूर था...
टिक गया आँख से वो थोड़ी दूर था...


अपनी किस्मत से वो था चिढ़ा और कुढा...
उससे टूटा गिरा, जिससे कबसे जुड़ा...
आँख भी अपने आँसू रही पोंछती...
अपनी किस्मत को जी भर रही कोसती...


दोनो क़िस्सो मे अपनों से बिछड़ा कोई...
बच्चे रोते रहे माँ बिलखती रही...
पर अद्भुत था दोनो ने किस्सा गढ़ा...
आदमीयत की फ़ितरत को कल फिर पढ़ा...


देखा इंसान ये दोनो ही होते हुए...
उन तारों को, पलकों को खोते हुए...
उसकी आँखों मे अद्भुत चमक गयी...
स्वार्थ के गीत उसकी नज़र गा गयी...


आग तारे की जैसे ही मद्धम हुई...
बंद इंसानियत की भी पलकें हुई...
जब वो तारा छटक कर कहीं मर गया...
आदमी अपनी फ़ितरत बयान कर गया...


वो चिपकी पलक थी मचलती रही...
उसके मन मे अभी भी थी आशा बची...
पर तभी आदमी की वो उंगली उठी...
फिर पलक को उठा के कहीं चल पड़ी...


वो इंसान की नीयत सितम हो गयी...
सारी उम्मीद उसकी ख़तम हो गयी...
वो पलक को हथेली पे रखे हुए...
मन मे कुछ कुछ ना जाने क्या कहते हुए...


उसके होंठों से फिर एक आँधी चली...
वो पलक रोते रोते कहीं उड़ गयी....
कल वो तारा मरा, वो पलक मर गयी...
ज़िंदगी की व्यथा आँसुओं मे बही...


उनके दुख मे भी जो बस था हंसता रहा...
ऐसे इंसान को दूजों से मतलब कहाँ...
उन दोनो ने जब आख़िरी साँस ली...
उसने अपने लिए तब दुआ माँग ली.... 

मैं जहाँ था तुम वहाँ थे, रास्ते सब एक थे... (समाज की विषमताओं की वेदना लिखने वाला कवि और एक हास्य कवि)

Author: दिलीप /

शिवम मिश्रा जी ने एक मुहिम शुरू की....आप सभी का सहयोग चाहिए...ये लिंक्स पढ़े....पहली बरसी पर विशेष :- अश्रुपूरित श्रद्धांजलि और मेरी वह मुराद ............बिन मांगे जो पूरी हुयी !! यह एक सार्थक और भावनात्मक प्रयास है....साहित्य के उन स्तंभों को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी यह...चार वरिष्ठ हास्य कवि हमारे बीच नहीं रहे...उनके परिवार को यदि कोई आर्थिक संकट है...तो हमारा धर्म है की हम उनकी यथासंभव सहायता करें...किसी भी माध्यम से...ज्यादा जानकारी शिवम् जी से प्राप्त की जा सकती है...
समाज की विषमताओं की वेदना लिखने वाला कवि और एक हास्य कवि दोनों का एक ही काम है समाज से दुःख दर्द मिटाना...बस इसी विचार को ध्यान में रख कर कुछ लिखने का प्रयास किया है....

मैं जहाँ था तुम वहाँ थे, रास्ते सब एक थे...
मैं भी शायद नेक ही था, तुम भी बिल्कुल नेक थे...
राह से गुज़रे ही थे हम, इक भिखारी छटपटाया...
दोनो ही उस तक गये, फिर दोनो ने उसको सम्हाला...

देख कर हालात सारे, ये हृदय था जल उठा...
मन मे मैं बदलाव का, संकल्प लेकर चल पड़ा...
पर वहाँ बैठे रहे तुम, जाने क्या कहते रहे...
लफ्ज़ जो निकले लबों से गुदगुदी करते रहे...

मैं उधारी दर्द की ले, चल पड़ा कुछ खोजने...
मन मे थी उम्मीद, कोई आए आँसू पोंछ ले...
मूक बधिरों की ही बस्ती, हर जगह मुझको मिली...
दर्द की तस्वीर वो बस, तालियाँ ही पा सकी...

हार कर लौटा वहीं पर, देख मैं विस्मित हुआ...
तुम वहीं बैठे थे तुमको, दे रहा था वो दुआ...
आँसुओं की उस नदी के, द्वीप चौड़े हो गये...
आँसुओं से उस सिनचे मुख पर हँसी तुम बो गये..

फिर तुम्ही तो कह रहे थे, काम तेरा है बड़ा...
जो बदलने तू चला है, वक़्त कुछ लग जाएगा...
कोशिशें करते रहो, बदलाव की उम्मीद ले...
लफ्ज़ गढ़ना इस तरह की खो ना जाना भीड़ मे...

लौटना जब जीत जाओ, मैं यही बैठा मिलूँगा...
लफ्ज़ की इन उंगलियों से गुदगुदी करता रहूँगा..
जब तलक संजीवनी इन आँसुओं की ना मिलेगी...
मेरी मीठी गोलिया तब तक हँसी देती रहेंगी...

तू तो यशोदा है मगर मैं कृष्ण न बना...

Author: दिलीप /


जब भी मैं गिरा आँख से आँसू तेरे गिरा...
मुझको जो सदा थामता आँचल का वो सिरा...
शीत मे छाती से वो चिपका हुआ बचपन...
वो गोद मे तेरी कहीं दुबका हुआ बचपन...

मैं चल रहा समेटते यादें यूँ अनमना...
तू तो यशोदा है मगर मैं कृष्ण न बना...

उज्ज्वल भविष्य की हृदय में कामना लिए...
मन युद्ध मे वियोग का तू सामना किए...
जल जल के स्वयं मुझको यू आलोक सा दिया...
मन मे तो कष्ट था परंतु शोक ना किया...

तू सह रही चुपचाप क्यूँ विरह की वेदना...
तू तो यशोदा है मगर मैं कृष्ण न बना...

इस जग मेरे नाम से पहचान तेरी हो...
कारण मेरे खिलती कभी मुस्कान तेरी हो...
ऐसा तो कोई कर्म कभी कर न सका मैं...
आशाओं का ये कुंभ कभी भर न सका मैं...

इक युद्ध सा स्वयं से मेरा आज है ठना...
तू तो यशोदा है मगर मैं कृष्ण न बना...

मैं भी तो कर्म पथ पे बहुत दूर तक चला...
इस कर्म मोहिनी ने मुझे देर तक छला...
विस्मृत मैं करूँ कैसे वो ममतामयी दुलार...
कैसे करूँ सूना तेरा आँचल मैं तार तार...

स्पर्श चाहिए तेरा वो प्रेम से सना...
तू तो यशोदा है मगर मैं कृष्ण न बना...

मैं तो प्रभु नहीं की ये जन्मों की बात हो...
भूत का भविष्य का हर भेद ज्ञात हो...
मैं तो नहीं इस सृष्टि के कण कण मे समाया...
ममता भरे हृदय मे तो तूने ही बसाया...

हर स्वप्न स्वयं का तुझे आधार ले बुना...
अच्छा ही हुआ माँ! यदि मैं कृष्ण न बना...