भला कैसे...

Author: दिलीप /


हम तोहमतें भेजें भी तो, भेजें भला कैसे...
हम बेवफा को बेवफा, लिख दें भला कैसे...

माना कि मेरा यार, अदाकार बड़ा है...
झूठा है चश्मे-तर, मगर देखें भला कैसे...

जिसको नहीं मालूम था तौर--वफ़ा कभी...
उसको ही बेवफा सनम, लिखें भला कैसे...

तवा--हुस्न तो मिला, वो आग मिली...
हम इश्क़ की ये रोटियाँ सेंकें भला कैसे...

जिन बुतो ने हमसे की हर वक़्त बेरूख़ी...
खुदा, कलम से उनको ही कह दें भला कैसे...

हमपे है ये इल्ज़ाम, जबां है ज़रा बुरी...
अब दायरे में बँध के भी, लिखें भला कैसे...

जिनकी किरायेदार बन है उम्र कट रही...
हम आशियाना ख्वाब का दे दे भला कैसे...

है एक नज़्म में ही खुदा, मय, सनम, नमी...
अब इसके सिवा ज़िंदगी लिखें भला कैसे...

मैने तो उसमें लिखा माँ से जो मिला मुझको...

Author: दिलीप /


अपने मज़हब के पैंतरे न तू सिखा मुझको...
बना सकेंगी क्या हदें कभी खुदा मुझको...

कितने चीरे थे चीथड़े, कोई सबूत भी दो...
कितनी लाशों में मिला राम या खुदा तुमको...

मैं लिख रहा था जिसे वो ही मुझे पढ़ न सका...
अपनी किस्मत से बस यही रहा गिला मुझको...

हिन्दी, उर्दू के नाखुदा में शुमारी क्या है...
मैने तो उसमें लिखा माँ से जो मिला मुझको...

क़लम के साथ तजुर्बा बहुत ज़रूरी है...

Author: दिलीप /


अभी है इब्तेदा, प्यालों को फिर भरो साक़ी...
अभी तो चाँद में, हममें ज़रा सी दूरी है...

शरीफ नज़्म को महफ़िल कहाँ मयस्सर है...
ज़रा बदनाम भी होना बहुत ज़रूरी है...

कभी देखे हैं फकीरों की आँख में आँसू...
खुशी के वास्ते कहते हो छत ज़रूरी है..

उनसे कह दो हथेलियों से टहनियाँ न छुएँ...
क़ुफ्र होने को है, हवाएँ कुछ सुरूरी हैं...

पूरा मयखाना पी गये, नशा भी न हुआ...
भरी महफ़िल में तेरा ज़िक्र भी ज़रूरी है...

हमपे तोहमत है इश्क़ हमने कई बार किया...
क़लम के साथ तजुर्बा बहुत ज़रूरी है...