एक कटोरी याद से तेरी, खाकर फिर दो ग़ज़ल 'करिश'...

Author: दिलीप /

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बहुत दिनों बाद आज फिर से आपके सामने आया हूँ... ज़िन्दगी जीना सीख रहा था...जब नहीं सीख पाया तो फिर से फक्कड़ी बन के जीने चला आया...उम्मीद है आपका प्यार ज़रूर मिलेगा....ग़ज़ल विधा में थोडा लिखने का प्रयास किया है....बताइयेगा कैसा लगा ये प्रयास....

तेरा गम जब भी चखता हूँ, कड़वा सा हो जाता हूँ.... 
धीरे से अम्मा कहता हूँ, मैं मीठा हो जाता हूँ...

अँधा एक पपीहा देखो, रोज़ तरसता सावन को...
  मर जायें वो उम्मीदें , रोज़ वहाँ रो आता हूँ...

ग़ज़ल बगल मे बाँध के अपने, तेरी राह गुज़रता हूँ...
 जाता हूँ बाजार, बेचने, रोज़ वहीं खो आता हूँ...

वहाँ जहाँ पर एक भिखारी, मरा पड़ा था दो दिन से... 
चिल्लर थोड़े फेंक के अपने, पाप ज़रा धो आता हूँ...

जब लगता है फसल तुम्हारी, यादों की हो गयी खराब... 
दिल को आँखों से नम करके, बीज ज़रा बो आता हूँ...

एक कटोरी याद से तेरी, खाकर फिर दो ग़ज़ल 'करिश'... 
और आँख का पानी पीकर, मैं भूखा सो जाता हूँ....

                                                                                     -दिलीप तिवारी 'करिश'

दो मुझे वरदान माँ.....

Author: दिलीप /


इस कलम को प्राण जो तूने दिया उपकार तेरा,
भाव का विस्तार जो तूने दिया उपकार तेरा...
भाव की इस मृत मृदा को उंगलियों का स्पर्श देकर...
ये विविध आकार जो तूने दिया उपकार तेरा...

आज पर वरदान तुझसे एक माँ मैं चाहता हूँ...
मैं अकिंचन आज तुझसे स्वप्न अपने बाँटता हूँ...
न अमरता न तो यश ही, न विजय की चाह मुझको...
मृत्यु, अपयश, हार से निर्भीक होना चाहता हूँ...

तेरी भक्ति की ज़रा स्याही पिला मेरी कलम को...
ऋण चुकाने की धरा का शक्ति दे मेरी कलम को...
जब लिखूं मैं सत्य मेरी लेखनी न लड़खड़ाए...
तू अभय का ग्रास कोई अब खिला मेरी कलम को...

डूबता यह पूर्व का दिनकर पकड़ कर खींच लाए...
मूर्छित होते हुए मन को छुए और सींच जाए...
दो मुझे वरदान माँ जब साँस भी उखड़े कलम की...
लेखनी उसकी चले यूँ यम को भी जो जीत जाए...

आज अपनी लेखनी माँ मैं तुझे करता समर्पित...
ज्योत धीमी ही सही पर भाव से रखना अखंडित...
चाह है परिवर्तनों की, क्रांति की, फिर शांति की...
फिर तुम्हारी राह मे ये प्राण कर दूँगा विसर्जित....

ए शाम! आख़िर तुम मुझसे इतना शरमाती क्यूँ हो...

Author: दिलीप /


बचपन मे जब खेल मेरा हाथ थाम चला ही होता था..
जब लगता था की बस तुम्हे छूने ही वाला हूँ...
तू जाने कहाँ छिप जाती थी...
तेरा घर निहारता था, तो बरामदे मे तुम्हारी माँ बैठी मिलती थी...
जवानी मे जब एक हाथ से कुछ एहसास बाँधे बैठता था...
बहुत मुश्किल से, कुछ डरते, कुछ छिपते...
तब भी मन करता था दूसरे हाथ से तुझे भी थाम लूँ...
पर जाने क्या जलन थी तुम्हे...
मेरे एहसास जानकर भी भाग ही जाती थी...
आज उम्र के साहिल फिर बैठा हूँ तन्हा अकेला...
तुम्हारी बाहों के इंतज़ार मे...
तुम्हारी आँखों मे हर याद फिर से जी लेने के लिए...
पर जानता हूँ तुम फिर से जल्दी मे ही होगी...
आज बता ही दो मुझे...
ए शाम ! आख़िर तुम  मुझसे इतना शरमाती क्यूँ हो...

खोल आँखें देख हिन्दुस्तान बेचा जा रहा है...

Author: दिलीप /


मिल रही शिक्षा उदर पोषण का बस इक माध्यम है...
कर्म से भी पूर्व फल की राह अब तकते नयन हैं...
"
स्व" का ही पर्याय बन जीवन बिताया जा रहा है...
क्या प्रयोजन मातृभूमि के सजल चाहे नयन हैं...

गर्व है किस बात का परभूमि मे सम्मान भी हो...
पूजते हैं वो तुम्हे सस्ते मे उनको मिल रहे हो...
कल बढ़ाकर मूल्य अपना सत्य को भी जान लेना...
आज जो सम्मान के आभास मे ही खिल रहे हो...

सिंह के दांतो को गिनते थे कभी अब स्वान हैं हम...
दुम हिलाते भागते हैं पश्चिमी हड्डी के पीछे...
सभ्यता, परिवार, शिक्षा सब कहीं बिखरे पड़े हैं...
हम स्वयं आदर्श की खिल्ली उड़ाते, आँख मीचे...

जो खड़े सीमा पे अपने राष्ट्र के हित मर रहे हैं...
अब ज़रा आँखों पे पट्टी बाँध दो उनकी भी बढ़ के...
दिखे उनको कहीं की सत्य का संसार क्या है...
पा रहे हैं क्या वो बंजर सी धरा हित प्राण तज के...

व्यवसाय की ही आड़ मे परतंत्रता बेची गयी थी...
आज क्यूँ हालात वो फिर से बनाए जा रहे हैं...
वीरता जनती कभी थी बांझ वो धरती हुई है...
अब नपुंसक भीरू ही बल से उगाए जा रहे हैं....

आज अपना राष्ट्र ही एक हाट बन कर रह गया है...
और हमारा ही यहाँ सम्मान बेचा जा रहा है...
मूढ़ सी कठपुतलियाँ क्यूँ बन गये हैं आज सारे...
खोल आँखें देख हिन्दुस्तान बेचा जा रहा है...

कुछ ख्याल....

Author: दिलीप /

बारूद तो तुम्हारे सीने मे भी है, मेरे सीने मे भी...
बस देखना ये है की चिंगारी पहले किसे छूती है...
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रात के घर की रसोई की वो गोल खिड़की खोलो ना...
जाने कबसे वो चाँदी का गोल ढक्कन लगा हुआ है...

चूल्हे के धुएँ से रात की माँ का दम घुटता होगा...
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चाँदी के वर्क मे चमचमाता हुआ वो देसी घी का लड्डू...
बड़े चाव से उसे उठाया तो देखा नीचे फफूंद लगी थी...

सोच मे पड़ गया की आख़िर ये लड्डू है या मेरा भारत....
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पिछ्ले पंद्रह दिनों से मैं चाँद के साथ पलक झपकाने का खेल खेल रहा था....
कम्बख़्त ने आज जाके हार मानी है, मुआ कल फिर अकड़ के चला आएगा...

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कलम ज़िंदगी मे बस डुबो ही दी है मैने...
अब बस जल्दी से कोई एक काग़ज़ दे दो...
ऐसा न हो कुछ लिखने से पहले ज़िंदगी सूख जाए....

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नब्ज़ का शोर था इतना ना तुझे सुन पाया...
वो थमे ज़रा तो तेरी हर बात सुनाई देगी...

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न जाने जिस्म के अंदर कहाँ दुबकी मरी सी है...
मिले जो मौत तू मुझको, मैं ज़िंदा रूह को कर लूँ...

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था कभी चमकता सोने सा, सब देख उसे ललचाते थे...
प्यासी आँखों से देख देख सब उसको नज़र लगाते थे...
बीमार हुआ बेचारा यूँ चेहरे पर उसके दाग पड़े...
बीमारी मे भी घूर रहे, अब उसमे रोटी ढूँढ रहे...

डरता है चाँद कहीं अब अमावस उसकी ज़िंदगी ना बन जाए...

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कुछ ऐसे ही...

Author: दिलीप /

मौत तू भी बड़ा लंबा सफ़र तय करवाती है खुद तक पहुँचने को...
तुझ तक पहुँचने का रास्ता इतना खूबसूरत है तो तू कितनी खूबसूरत होगी...

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मेरे इश्क़ के कुछ टुकड़े अब भी तो किसी कोने मे होंगे...
किसी दराज मे , किताबों के बीच बैठे सुस्ता रहे होंगे...
धूल ने अब भी उनसे लिपट कर उन्हे महफूज रखा होगा...
शायद इस दीवाली पर तुम्हारी हथेलियाँ मुझ तक पहुँचे...
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कल जब खिड़की से देखा था...
तब तो नीले मैदान मे सर उठाए उछल रहे थे...
आज जाने किसने डांटा है...
मुँह लटकाए घूम रहे हैं...
रंग इतना उतर गया है की...
लगता है अभी रो ही देंगे...
हवाओं से कहो वही थोड़ा पुचकार दें...
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धूल उड़ी, आँखों तक पहुँची, आँखें गीली कर गयी...
बड़े शर्म की बात है, आँखों का पानी ज़िंदा रखने के लिए, मिट्टी को अब इतनी मेहनत करनी पड़ती है....
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एक विषैले नैना तेरे, दूजा मुझको डन्स लेते हैं...
तड़प हृदय मर जाता है जब, नैन तुम्हारे हँस देते हैं...
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तूने भी कम्बख़्त बड़ा इंतज़ार करवाया...
देख न जब दिल सुसताने लगा, नब्ज़ की टिक टिक कम हो गयी...
जब ताक़त न रही की उठ कर तुझे गले लगाऊं,
तब जाकर तू आई है...
मौत तेरे इंतज़ार मे तो पूरी एक ज़िंदगी ही गुज़र गयी....
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ज़िंदगी के किसी एक छोर पे बेपरवाह सी...
मेरे आने के इंतज़ार मे गुम्सुम सी खड़ी...
पता है मुझे, एक दिन तू मुझे पा ही लेगी...
पर दिल मे तो अफ़सोस हमेशा रहेगा यही ...
तूने ज़िंदगी भर मेरा बेसब्र हो इंतज़ार किया...
...पर ए मौत ! मिलकर भी तुझे देख ना सका..
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मुझे मालूम है अक्सर मुझे तुम कोसती होगी...
कभी तन्हाई मे आँखों से आँसू पोंछती होगी...
मैं ज़िंदा हूँ अगर तो इसलिए कि है मुझे उम्मीद...
बहाना चाहे कोई हो, मुझी को सोचती होगी...

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कभी आदत बनी थी जो, वो अब बातें नही होती...
हो तुम भी, चाँद भी हो साथ, वो रातें नहीं होती...
मेरे अपनों ने भी उम्मीद सारी छोड़ दी अब तो...
की दिल मे दर्द होता है, मगर आँखें नही रोती... 

एक डायरी का दर्द...

Author: दिलीप /


 काफी लम्बी है पर कुछ ऐसा था दिमाग में जो लिखता ही रहा...लम्बाई के लिए माफ़ी चाहूँगा...
मुझमें जान नहीं, पर किसी की उम्र का एक टुकड़ा चखती हूँ...
कोरे काग़ज़ों, कुछ गीले पन्नों को खुद में सम्हाले रखती हूँ...
मैं किसी की ज़िंदगी, तो किसी का गीत, तो किसी की शायरी हूँ...
कुछ सिसकते दर्द, कुछ हंसते पल समेटे, मैं एक डायरी हूँ...

आज फिर कोई भूत, भविष्य, वर्तमान के सपने बुन रहा था...
मेरा हृदय, मेरे पन्नो मे सिमटी, उसकी कहानी सुन रहा था...
आज पच्चीस सालों बाद, हम दोनों का परिवार बढ़ चुका था...
जाने मेरे पन्नों पे,सफलता की कितने किस्से गढ़ चुका था...

उसके सपने, उसके दिल की तरह भोले, मासूम और प्यारे थे...
उन्हे पूरा करने के लिए जाने कितने हान्थपाँव मारे थे...
उसके दिल की दुनिया बस उसकी बीवी और दो प्यारे से बच्चे थे...
खुशहाल था वो परिवार, उनके प्यार के वो मोती सच्चे थे...

पर तेज रफ़्तार से आकर, फिर निकल, ये सुख का घोड़ा जाता है...
और पीछे उसकी दुम को पकड़े, दुख दौड़ा दौड़ा आता है...
ये पैसे की कमी, आदमी को कितना बेचैन,हताश कर देती है...
इसकी निशानी मैने अपने फटे पड़े, मुड़े पन्नों मे देखी है...

मेरे काग़ज़ों के फटने का दौर कुछ दिन तक यूँही चलता रहा...
फिर कई दिनों तक, अपनी कलाम मे वो क़र्ज़ की स्याही भरता रहा...
पर उसे क्या पता था, ये हालाती आँधियाँ कहाँ थम पाती है...
अगर क़र्ज़ की स्याही भरो, तो कलाम को उसकी आदत पड़ जाती है..

ज़रूरतों के मुँह अब बस क़र्ज़ के निवालो से ही भर रहे थे...
उसकी उम्र के साथ साथ क़र्ज़ के दानवी पंजे भी बढ़ रहे थे...
पर एक छोटे से कारोबार से उसे कुछ सहारा मिल रहा था...
उस क़र्ज़ की मार से फटे, खुद के चीथदों को वो सिल रहा था....

पर उपर बैठे भगवान को कब इन मजबूरों पे दया आती है...
ये मुसीबतें तो मेरी तारीखों की तरह बस बढ़ती जाती है...
बिल, बच्चों की फीस, जाने कितनी परेशानियाँ उसे सता रही थी...
उसका हर दुख, वो कलम, मुझे अपने गीलेपन से जता रही थी...

मार्च का महीना था, अब होली के रंग दस्तक देने ही वाले थे...
पर यहाँ उन हमराहियों मे रंग कहाँ, वो दिल तो बस काले थे...
पर एक दिन, मासूमियत ने उठ, कुछ नये कपड़ों की ज़िद कर दी...
उन कोने से फटे चीथड़ो ने, तो मेरी आँखें भी नम कर दी...

मासूम नन्ही आँखों को कैसे समझाता अपनी मजबूरियाँ...
खिलाता रहा वो उन्हें झूठ का नमक लगा दिलासे की पूरियाँ...
मुझमें तारीख के साथ साथ गीलापन बढ़ता ही जा रहा था...
और क़र्ज़ का बोझ उस लाचार के सिर पे अब चढ़ता ही जा रहा था...

एक दिन अचानक उस मजबूर के दरवाज़े पे ज़ोर की दस्तक हुई...
दरवाज़ा खोला तो उम्मीद के उस ताबूत मे एक कील और धँसी...
अब तो रोज़ क़र्ज़ की रकम माँगने वाले उसके घर आने लगे...
कुछ प्यार से माँगते तो कुछ वसूली के लिए धमकाने लगे...

अब ये बोझ ना मैं सह पा रही थी ना वो खुद ही सह पा रहा था...
और अपने सीने मे छुपा दर्द वो किसी से ना कह पा रहा था...
पूरा एक दिन वो बस मुझपे आजीबो ग़रीब चित्र बनता रहा...
मस्तिष्क मे उठते तूफान की कथा इसी तरह मुझे सुनाता रहा...

काश उन चित्रों को समझ पाती, पर समझ के भी क्या कर पाती...
कहाँ मैं उठ के अपने हान्थो से उसे थाम, उसे संहाल पाती...
पर जाने क्या हुआ वो चित्र मुझसे उसकी आख़िरी कहानी कह गये...
उस दिन के बाद से मेरे कुछ काग़ज़ कोरे के कोरे ही रह गये...

पर अच्छा ही हुआ उसने उसे लिखा नही, अगले दिन मैने जो देखा ...
उसने एक अजीब तरकीब निकाली बदलने को, अपनी किस्मत का लेखा...
आज वो घर आया तो वो खुश था उसकी आँखों मे चमक थी...
उसकी आवाज़ मे आज पहले जैसा कोई ठहराव था, कोई खनक थी...

कल जो अपनी मायूसी मे, मजबूरी मे, परेशान हो पगलाया था...
आज वो बच्चों के लिए नये कपड़े, बीवी के लिए साड़ी लाया था...
बोला अब हमारा सारा दुख, सारी तकलीफें दूर हो जाएँगी...
अब फिर से एक बार हमारे दरवाज़े से होके खुशियाँ आएँगी...

अपनी नन्ही गुड़िया से बोला आज हम तुम्हारा जन्मदिन मनाएँगे...
आज फिर से खूब सारी मस्ती करेंगे मिलके सारा केक खाएँगे...
फिर एक प्लेट में, अपने दिल से भी बड़ा एक केक वो लेकर आया...
फिर पूरे परिवार ने उसे मिल के काटा, और बहुत चाव से खाया...

आज दोनो हमसफ़र बहुत खुश थे उनकी आँखों मे नमी थी...
बस अब उसकी कलम के उठने और उसके मुझपे चलने की कमी थी...
मैं सोच ही रही थी कि वो बाहर गया और दरवाज़ा बंद कर लिया...
कुछ समझ नही आया पर आज शैतान ने अपना काम कर दिया...

वो दोनो मासूम और उसकी बीवी तड़प तड़प के चिल्ला रहे थे...
वो बच्चे बार बार दर्द मे बस पापा पापा ही बुला रहे थे...
पर वो दरवाज़ा नही खुला और यहाँ बदल सारा मंज़र गया...
उस मजबूर का वो पूरा परिवार तड़पते तड़पते वही मर गया....

सब खामोश था, तभी दरवाज़े के खुलने ने सन्नाटा तोड़ा...
इक बाप तड़पते तड़पते रेंगते, अपने बच्चों की ओर दौड़ा...
उनके गालों को चूमते चूमते वो एक बार ज़ोर से चिल्लाया...
फिर उन सबको उठा, पास के बिस्तर पे, आराम से लिटा, सुलाया...

फिर बहती आँखों संग तड़पते तड़पते वो भी उनमें खो गया...
फिर शायद सदा के लिए पूरा परिवार वहीं बिस्तर पे सो गया...
मैं कुछ समझ नही पा रही थी,मैं उस पूरी रात बस रोई...
मेरे सामने कुछ प्यार लुटा था, एक प्यारी सी दुनिया थी खोई...

पर सुबह एक बार फिर मैने अपने दिल की कली को खिलते देखा...
जब उस मजबूर बेचारे को उस बिस्तर पर धीरे से हिलते देखा...
सोचा शायद अभी सब फिर से उठ कर खुशियाँ मनाएँगे...
फिर से वो मिल के झूमेंगे, खुशियों से भरे गीत गाएँगे...

पर मुझे क्या पता था उस प्यारे से केक मे मिला ज़हर था...
वो मजबूरी का, मायूसी का, एक परिवार पे टूटा कोई क़हर था...
उस ज़हर ने उस मजबूर पे जाने क्यूँ असर नही दिखाया था...
वो जब धीरे से उठा तो वो सारा मंज़र देख नही पाया था...

पागल सा पूरे कमरे मे इधर उधर घूम, चिल्ला रहा था...
कभी अपनी बीवी, तो कभी बच्चों को सीने से लगा रहा था...
आज फिर भगवान ने जाने ये मज़ाक किया, या कोई खता की...
उसकी ये बेमानी ज़िंदगी, उस मजबूर के लिए सबसे बड़ी सज़ा थी....

वो बार बार सबको चूम चूम कर, ज़ोर ज़ोर से रो रहा था..
उसका दर्द देख कर बता नही सकती, मुझे कितना दर्द हो रहा था...
वो कभी चादर को सहेजता, फिर कभी इधर उधर देखने लगता...
कभी सब कुछ निहारता, और ज़ोर से रोने लगता, चीखने लगता...

जाने कितने पछ्तावे के फन्दो मे अब वो बेचारा कसने लगा...
रोते रोते थक गया और फिर अचानक पागलों की तरह हँसने लगा...
एक बार सबको जगाने की कोशिश करता, फिर उन्हे मार रहा था...
शायद अपनी ग़लतियों का गुस्सा, अब उन लाशों पे उतार रहा था...

वो वहशी सा पागल सा, चीज़ों को इधर उधर बिखराने लगा...
फिर मन ही मन कुछ बड़बड़ाते हुए दरवाज़े से बाहर जाने लगा...
फिर पता नही चला, वो अब कहाँ था, ज़िंदा भी था, या मर गया...
पर जो उसने किया, वो मेरे लिए एक बड़ा सवाल खड़ा कर गया...

क्यूँ पैसे की कीमत अब इतनी बढ़ गयी, कि ज़ंदगी सस्ती हो गयी...
क्यूँ इन चंद कौड़ियों की दौड़ मे फ़ना इंसान की हस्ती हो गयी...
क्यूँ पैसे की खातिर खून होते हैं, और बहुएँ जला दी जाती है...
क्यूँ पैसे के लिए बाप का प्यार, माँ की ममता भुला दी जाती है...

इंसानी रिश्तों की मजबूती भी, क्या अब बस इन पैसों की मोहताज है...
क्या अब हर दिल में हर दिमाग़ मे, बस इन्हीं कौड़ियों का ही राज है...
कब तक ये रंगीन काग़ज़ के टुकड़े, आदमी का सौदा करते रहेंगे...
और ये बेचारे इंसान, इनके बिना भूख, से ऐसे ही मरते, सडते रहेंगे...

वन्दे मातरम्...

Author: दिलीप /


हस्ती नहीं मिटी पर इंसान मिट चुका है...
फन्दो पे जो चढ़ा था वो जवान मिट चुका है...
कोई महल मे सोता, कोई मरा सड़क पे...
माँ भारती का मन से अब ध्यान मिट चुका है...

यौवन नशे मे डूबा, बचपन दबा हुआ है...
वृद्धों का आज कल तो सम्मान मिट चुका है...
इक नीव थी बनाई, उसपर थे स्वप्न रखे...
वो राम कृष्ण कल्पित निर्माण मिट चुका है...

पूरब अभी भी थोड़ा रक्तिम सा दिख रहा है...
देखो कहीं ये लाली कालिख में ढल न जाए...
हैं संस्कार वो ही , बस धूल कुछ जमी है...
सम्हलो जरा कहीं ये भारत बदल न जाए...


जो धरती वर्षों से तुम्हारा बोझ उठा रही है...
देखना कहीं जाते समय उसका कोई बोझ दिल पे ना रह जाए....
वन्दे मातरम्...



स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें...

Author: दिलीप /




कुछ कूट विषैले सर्प यदि फुँकार करें तो करने दो...
ये है स्वाभाव उनका तुम उनके विष की सरिता बहने दो...
किंतु यदि तुम मूढ़ बने वो विष धमनी मे घोलोगे...
वर्षों का सम्मान अगर यूँ खड़े खड़े ही खो दोगे...


ये मात तुम्हारी अबला सी रक्तिम आँचल ले रोएगी...
कैसे फिर कल की नवपीढ़ी इस दुष्कलंक को धोएगी...
सज्जन होने का अर्थ नही कि निष्क्रिय जीवन हो जाए...
आओ जीवन के अंत पूर्व हम बीज विजय का बो जाए...

प्यारी ममता, याद मुझे जब करती होगी....(पुनः संपादित..)

Author: दिलीप /


पिछवाड़े के कमरे का खाली सा बिस्तर...
बिना सिलवटें गर्द भरी वो सूनी चादर...
पड़ी हुई मायूस छतो पे कटी पतंगें ...
अलमारी मे पन्नी के दो चार तिरंगे...

घड़ियों की टिक टिक भी कितनी खलती होगी...
प्यारी ममता, याद मुझे जब करती होगी....

मुरझाया सा प्यार, किसी की सूनी बाहें...
दरवाजे की दस्तक को, बेचैन निगाहें...
सोच रहा, वो चेहरा कितना पीला होगा...
कोना क्या, पूरा ही आँचल गीला होगा...

तब यादों की बेल, कभी मन चढ़ती होगी...
प्यारी ममता, याद मुझे जब करती होगी....

शाम, सामने मैदानों मे नन्हे मेले..
खट्टी जामुन वाले रस्ते चलते ठेले...
पीपल के आँगन मे फैले सूखे पत्ते...
अलमारी के इक कोने में मेरे लत्ते...

देख देख ममता, मन मे घुट मरती होगी...
प्यारी ममता, याद मुझे जब करती होगी....

दीवाली पे बाकी घर जब सजते होंगे...
गली मे जब होली के गाने बजते होंगे...
राखी पे जब बहना छुप छुप रोती होगी...
लड़ती होगी सबसे, भूखी सोती होगी...

राह मेरे आने की, माँ तब तकती होगी...
प्यारी ममता, याद मुझे जब करती होगी....

कभी कह नही पाया पर बहन, तू मुझे जान से प्यारी है......

Author: दिलीप /




कभी कोई आया था ज़िंदगी मे...
तो चिढन सी थी की मेरे हिस्से का प्यार कम हो गया....
माँ की गोद मुझसे छिन किसी और को मिल गयी....
पिताजी की नज़रो मे कोई और चेहरा चढ़ गया....
नाराज़ था मैं उससे क्यूँ आई वो...
छिन गया था मुझसे मेरा संसार....
मौका मिलते ही उसे परेशान करता था
खींचता था उसके बाल....
पर कभी उसकी प्यारी सूरत देखकर प्यार आ जाता था
तो मुँह सड़ाकर चला जाता था....
अपने कमरे से छिप्कर उसे मुँह चिढ़ाता था....
पर वो सच मे बहुत प्यारी थी...
इसीलिए सबकी दुलारी थी....
उसकी आँखें मुझे देख कर खिल उठती थी....
टुक टुक कर मुझे ही देखती रहती थी....
शायद वो मुझसे कुछ कहना चाहती थी....
मेरी भी गोद मे आकर रहना चाहती थी....
फिर मेरे भी हाथ उसे गोद मे लेने को मचलने लगे....
थोड़ा थोड़ा उसकी बातें समझने लगे....
मेरे मन का युद्ध समाप्त हुआ....
जब उसने अपनी छोटी सी उंगलियो से मुझे छुआ....
अब मैं अपने खिलौने उसके साथ खेलने लगा....
उसकी गुड़िया के हाथ और आँखें तोड़ने लगा...
टूटी चूड़ियाँ फटे हुए काग़ज़ जो भी थे....
मेरे बचपन के सारे ख़ज़ाने अब उसके भी थे....
अब वो धीरे धीरे मेरी उंगली पकड़ कर चलने लगी....
मेरे हान्थो से चॉक्लेट टॉफियाँ छीनने लगी....
फिर एक दौर आया जब हम बिछड़े....
उसकी एहमियत अब ज़्यादा समझ मे आने लगी....
सोते मे उसकी याद तकिया भिगाने लगी......
फिर दुबारा मिले लड़े झगड़े साथ रहे....
ज़िंदगी के सबसे प्यारे लम्हे बिताए....
साथ रोए, साथ खाए....
आज मैं यहा हूँ दूर उससे....
आँखों मे उसका चेहरा अब भी सताता है....
दिल रह रह कर उसी के पास चला जाता है....
पहले उसके हर जन्मदिन पर साथ थे....
अब वो हर साल मेरे बिना बड़ी होती है....
दिल मे इक टीस सी होती है....
एक दिन वो कहीं और चली जाएगी....
लगता है भाग दौड़ मे कट वो भी घड़ी जाएगी....
और मैं फिर यही आ जाऊँगा....
अपनी ज़िंदगी मे खो जाऊँगा....
वो पल जो उसके साथ थे....वो भी सताएँगे....
और पल जो उसके बिना कटे वो भी रुलाएँगे....
कभी कह नही पाया पर मैं उससे बहुत प्यार करता हूँ....
हमेशा उससे मिलने की घड़ी का इंतज़ार करता हूँ....
वो तब भी मेरे लिए गुड़िया थी....
अब भी मेरी दुलारी है....
कभी कह नही पाया पर बहन....
पर तू मुझे जान से प्यारी है......