आज बारिश हुई है...

Author: दिलीप /


बादल के पंखों मे कुछ लफ्ज़ बाँध कर भेजे हैं...
बस पहुँचते ही होगे अभी...
छत पर जाना और और खोल लेना उन्हें...
फिर पढ़ कर बिखेर देना ज़मीन पर...
चिंता मत करना, लोग नहीं समझ सकते...
वो तो यही समझेंगे कि आज बारिश हुई है...
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जब बारिश हौले से छूती है...
तो सुबक उठती हैं दीवारें...
उन गर्म दीवारों में...
कुछ पुरानी यादों की बर्फ भी होती है...
जो पिघल उठती है...
उन ठंडी बूँदों की गर्माहट से...
पर दीवारों के आँसू कोई नहीं पोछता..
उन्हे खुद सूखना पड़ता है...
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घड़ी...
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पुरानी उन रसभरी बीती घड़ियों के गुच्छे से...
वो घड़ी मेरे सामने फुट पड़ी...
जब ये घड़ी तुमने मुझे दी थी...
उस दिन नब्ज़ रख दी थी मेरी कलाई पर...
अब यूँ रहती है मेरी कलाई पर...
जैसे तुमने अपनी ही हथेलियाँ रख दी हो...
और हर बार संभाल लेती हों गिरने से...
पर कभी तेज़ भागती है...कभी धीमे...
अब सही वक़्त नहीं बताती...
हाँ पर कोई पिछला 'सही' वक़्त ज़रूर बताती है....
जब सब सही था...

ये 'अब' वो नहीं है...

Author: दिलीप /


कल शायद मुझे वो दिखाई दी...
हाँ वही तो थी, सड़क के उस पार खड़ी...
हम दो किनारों के बीच वो काली नदी,
जिसमें मीलों की रफ़्तार से छोटी बड़ी लहरें गुज़र रही थी...

उसका बदन कुछ भर गया था, जैसे सर्दियों का उगता सूरज...
वक़्त के सुनार ने, बालों के रेशम में, थोड़ी चाँदी जड़ दी थी...
चेहरे की रेत पर, कुछ गुज़रे सालों ने अपने निशान छोड़े थे...

छोटी छोटी बूटियों वाली साड़ी...
जैसे जब सुबह ने आने से पहले जब चादर झाड़ी हो...
तो सितारे छिटक कर उसके आँचल मे आ गये हों...
और चाँद गिर कर अटक गया हो माथे पर...

हाँ वही तो थी,
क्यूंकी पीले रंग की चूड़ियाँ थी उसके हाथों मे...
उसकी साड़ी को मैच नहीं करती थी...
पीला रंग मुझे बहुत पसंद था...

सोचा नदी मे छलाँग लगा ही देता हूँ...
फिर सोचा मुझे पहचान पाएगी वो...
चेहरे पे ज़ीब्रा क्रौसिन्ग सी झाड़ियाँ, बालों मे चूने की पुताई...
मिडिल क्लास घर जैसी हालत थी मेरी...

खैर हिम्मत जोड़ी और बढ़ गया उस ओर...
आज एक किनारा दूसरे किनारे से मिलने वाला था...
उसने भी मुझे देखा...
उसकी आँखों मे नमी देखी, या शायद मेरी आँखें दबदबा गयी थी...
पता नहीं, पर वही तो थी...

उसकी उँगलियाँ आपस मे जाने क्या बातें कर रही थी...
नर्वस थी वो शायद...
मैं उस तक पहुँचता कि उसने कदम दूसरी ओर बढ़ा दिए...
कदम मे इंतेज़ार सी रफ़्तार थी..धीमी बहुत धीमी...
मैं समझ गया ये वो नहीं है...
हाँ, ये 'अब' वो नहीं है...

हम क्यूँ जागे रात भर, फिर क्या करोगे जान कर..

Author: दिलीप /

ख्वाब की ख़ुफ़िया पोलीस की धरपकड़ से भाग कर...
आज फिर एक रात है हमने गुजारी जाग कर...

आसमाँ से चाँद के टुकड़े उठाने हम गये...
और उतरे एक बोरी फिर तुम्हारी लाद कर...

ओस की बूँदें ज़रा खारी हुई, हम डर गये...
छिप गये झीनी सी चादर, हम समझ की तान कर...

ख्वाब से तो बच गये, लेकिन ख़यालो से कहाँ...
फिर से तुम आ ही गये, कहने लगे की बात कर....

तुमने पूछा क्या वजह है रतजगे की, बोले हम...
पहले अपनी लाल आँखों की वजह तो साफ कर...

ख्वाब कितने ही, तुम्हारी आँख नीचे जल गये...
हम क्यूँ जागे रात भर, फिर क्या करोगे जान कर...

सालगिरह और भीड़...

Author: दिलीप /

सालगिरह...
 
आँख की छत से बारिश की झालर लटका दी है...
काग़ज़ का फ्लोर लगा दिया है...
कुछ गुज़रे लम्हों की फ्लैश लाइट लगा दी है
थोड़ा ओल्ड फैशंड हूँ न इसलिए...
पुरानी गुरुदत्त वाली प्यासा के किसी गाने पर...
नीली स्याही और कुछ लफ्ज़ बॉल डांस कर रहे हैं...
बस अब नज़्म उगने ही वाली है...
अरे मैं तो बताना ही भूल गया...
आज किसी ज़ख़्म की सालगिरह है...

भीड़...

एक गुच्छा, जो देखता रहता है तड़पते कीड़े को...
जैसे सूरज देखता है धरती को मरते हुए...
कुछ नही कहता...
बस बड़ा होता जाता है...
और जब बोझ सहन नहीं होता...
तो गुच्छा बिखर जाता है....
आज फिर कोई कीड़ा मर रहा है शायद...
काली बेल पर हर बार की तरह...
एक गुच्छा निकल आया है...

क़र्ज़...
 
क़र्ज़ उतर ही नहीं रहा था...
इसीलिए वो ज़हर लाया था मरने के लिए...
सोचा था किसी दिन खाने मे मिला के मर जाएगा...
आज हफ्ते भर बाद मरा है...
भूख से....



भिखारी...
वो भिखारी मेरे ही सामने दम तोड़ता रहा...
मैं वहाँ सिर्फ़ अपनी जेब ही टटोलता रहा...

 

चाय, यादें, रोटी, मैं और बुज़ुर्ग...

Author: दिलीप /



चाय...
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अदरक की चाय...
तुलसी की चाय...
काली मिर्च की चाय...
मसाले की चाय...
इलायची की चाय...
इनमें से कुछ भी पसंद नहीं आता...
अब तुम्हारे हाथ की चाय जो नहीं मिलती...

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यादें...
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कल रात से बारिश हो रही है...
कागज़ी लॉन में भूल गया था उन्हें...
अभी उठा कर लाया हूँ...
अंदर हेंगर मे टाँग दिया हैं...
पर अंदर भी सीलन ही है...
वक़्त लगेगा सूखने में...
मोटे कपड़े की जो हैं...
कभी सर्द रातों मे ओढ़ लिया करता था उन्हे...
गर्माहट के लिए...
अब पुरानी हो चली है..
सोचता हूँ अब जब ठंड हो...
तो उन्हे जलाकर ही ताप लूँ..
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रोटी...
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कल बहुत दिन बाद...
कैक्टस मे फूल आए थे...
चूल्हा जो जला था, रोटी बनी थी...
थाली मे कुछ नमक और रोटी...
गाँव मे सब भूखे थे...
गाय, कुत्ते, लोग, पेड़ सब कोई...
पर शायद नदी को कुछ ज़्यादा ही भूख लगी थी...
चली आई घर में कुछ खाने...
मैने सोचा रोटी ही खाएगी...
पर वो तो सब खा गयी...
चूल्हा, छप्पर, यहाँ तक कि माँ और बेटा भी...
बस रोटी नहीं खाई...उसे हथेलियों मे पकड़े चली गयी...
रोटी अब आसमान मे दिखती है...
रोज़ उसके टुकड़े होते हैं...
इंसानो से ज़्यादा शायद आसमान भूखा था...
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मैं...
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मैं कुछ पन्नों भर का हूँ...
सामने कुछ मोटी लकीरों वाली नुमाइशी खबरें...
कुछ ब्रांड्स के इश्तिहार भी हैं...
थोड़ा पलटो तो अरमानों के बलात्कारों की खबरें...
ख्वाबों की दुर्घटनाएँ, भरोसे की लूट...
कुछ पुरानी यादों की बरसियाँ...
किसी एक पन्ने पर चमकती दमकती इच्छाएँ...
तीसरा पन्ना होगा शायद वो....
किसी एक पन्ने पर मन की दुनिया छपी मिलेगी...
पर रोज़ नया हो जाता हूँ मैं...
क्यूंकी लोग बासी पसंद नहीं करते...
पर कोई है जिसके पास मेरे कई बासी एडिशन पड़े होंगे...
उसके लिए मैं अख़बार नहीं था न इसलिए...
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बुजुर्ग...
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तुम खड़े मसाले की तरह...
घर मे छौंके जाते हो...
महका देते हो घर...
इक नया स्वाद दे देते हो...
पर जब खाने की बारी आती है...
तो बाहर निकाल देते हैं तुम्हें......
कहते हैं कि तुम मुँह मे आके...
स्वाद बिगाड़ देते हो...


ज़ेवर.....

Author: दिलीप /

तेरी यादों को जलाऊं, तो चमक उठती हैं...
तेरी यादें हैं ये, कुंदन सी बात है इनमे...
इनके ज़ेवर बना के मैने रख लिए हैं अभी...
किसी ग़ज़ल को चार चाँद लगाएँगे कभी...
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प्यार के मोती, बिछड़ने का नमक, रेत किस्मत की...
कितना कुछ रख दिया है आके, इसी चौखट पर...
लहर चुपके से आके साहिल पर इक दस्तक दे गयी...
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खिड़कियाँ के पल्ले, पुचकार के बुलाओ....
तो पास नहीं आते, भागते हैं मुझसे...
आपास मे दिन भर लड़ते रहते हैं...
कभी चहक कर एक दूसरे के गले लग जाया करते थे...
तुम्हारे हथेली की छुवन भर से...
अब ये मानने को तैयार ही नहीं...
कि तुम यहाँ नहीं हो...
सच में, बहुत बुरी लत है तुम्हारी....
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माँ...पापा...बेटी...कुआँ...

Author: दिलीप /


माँ...

सुना है रोज़ रात, हड़बड़ा के उठती है...
फिर आँख मूंद के, जाने क्या बुदबुदाती है...
तभी शायद मैं यहाँ, चैन से सो पाता हूँ...

पापा...

वो मोम से बना, लोहे का एक पुतला है..
बस एक गुनगुनी छुवन से पिघल जाएगा...

बेटी...

इत उत फिरती है...
कितना उछलती है...
जो आता है पुचकार के जाता है...
पर एक खूँटे से बँधी है...
गला कभी नहीं खुलता...
बस खूँटा उखड़ता है...
कहीं और गाड़ने के लिए...
गाय होती तो यूँही बिक भी जाती...
एक गाड़ी मे जोत के भेजी जाती है...
ढेर सा सामान बाँध के...
जानवर नहीं है न इसलिए...

कुआँ...

मैने उसकी बस एक झलक ही देखी थी...
कभी एक बार पानी भरने आई थी...
सोने के कंगन मेरे पत्थर को छूकर गुज़रे थे....
घूँघट के अंदर से ही झाँका था उसने...
दो काले बादल बरस के मुझे भरने को थे....
आज कोई गोद मे मेरी सुला गया है उसे...
उन हथेलियों पर ज़ुल्म की कालिख लगी थी...
आँखें सूख चुकी थी...
अब सोचता हूँ वो सोने की छुवन थी...
या फिर हथकड़ी की रगड़....
यही सोचते सोचते...
मेरा पानी कुछ खारा हो गया...

आज भी गुज़रता हूँ कभी कभी...

Author: दिलीप /

आज भी गुज़रता हूँ कभी कभी, तुम्हारी यादों से...
आगे जाकर बड़ी संकरी और भूल भुलैय्या सी हो जाती हैं...
जाओ तो बाहर आना मुश्किल हो जाता है...
इसलिए समझदारी का धागा बाँध कर आता हूँ....

देखता हूँ वो गेट अभी भी वैसे ही बाहें पसारे खड़ा है...
मुझे देखता है तो इक धीमी सी आवाज़ करता है...
इंतेज़ार की ठंड मे हड्डियाँ जकड गयी हैं उसकी...

सीढ़ियाँ अभी भी वहीं लेटी हैं, अंतिम साँसें गिन रहीं है...
तुम थी तो तुम्हे गोद मे लिए आसमान छू आती थी...

एक दरवाजा भी है बूढ़ा सा, ऊन्घ्ता रहता है...
मुझे देख कर ज़रा सी आँख खोलता है...
मुझे अकेला देख कुछ बड़बड़ सी करता है...
मानो गाली दे रहा हो...

आगे खिड़कियों की फटकार, बर्तनों की खामोशी...
अलमारियों के सन्नाटे, जाने क्या क्या मिलेगा...
नहीं मिलेगा तो बस तुम्हारा साथ इसलिए...
आगे जाने की हिम्मत नहीं होती...

समझदारी की वो कमजोर सी डोर थामे...
संहाल के वापस चला आता हूँ अपने आज मे....

कुछ यूँही...

Author: दिलीप /

दोस्ती और ज़रूरत....

छुटपन में बड़ी चवन्नीयाँ इकट्ठी की थी...
कई चवन्नीयाँ वक़्त रहते रुपयों में बदल ली....
कुछ अभी भी रहती होंगी, पुराने ज्योमेट्री बॉक्स वाले घर मे...
पर अब क्या..अब तो चवन्नीयाँ नहीं चलती...
दादी...

घर की थाली मे गुन्थे हुए आटे की तरह...
बैठी रहती है, उससे कोई बात नहीं करता...
रोट पकते अगर बासी वो न हुई होती...
रोटी...
घर आया ही था मचल उठे नन्हे तारे...
वो आज पोटली मे चाँद भर के लाया था...
चाँद टुकड़ों मे बँट गया है रोशनी के लिए...
ज़िंदगी...
ज़िंदगी क्या है? कबाड़ के खिलौना बनने से...
खिलौनों के कबाड़ बन जाने की दास्तान...
उम्र बढ़ने के साथ साथ कीमत घटती जाती है...
कहते हैं...
  कहते हैं जब घर की मुंडेर पे कौव्वा बोले...
तो समझो घर मे कोई मेहमान आएगा...
पहले होता होगा, अब तो वो घर हैं...
न मुंडेर, न कौव्वे और न ही वो मेहमान...
याद के बच्चे
तुम्हारी याद के बच्चे बड़े शैतान है....
दरवाजा खटखटाते हैं, भाग जाते हैं...
उनसे बोलो न दरवाजा खोलने मे तकलीफ़ होती है...
अब दिल के जोड़ों मे बड़ा दर्द रहता है...

वो मुझसे पूछ रहा है, कहो ग़ज़ल क्या है...

Author: दिलीप /

वो मुझसे पूछ रहा है, कहो ग़ज़ल क्या है...
बीज को क्या बताऊं मैं कि ये फसल क्या है...

सूद तन्हाइयों का इस कदर चढ़ा मुझ पर...
मैं भूल सा गया हूँ इश्क़ का असल क्या है....

तवायफो की गली मे भजन सुना तो लगा...
आज मैं जान गया खिल रहा कमल क्या है...

मैं कह गया नशा रगों में, दिल मे वहशत सी....
कोई था पूछ रहा आज की नसल क्या है...

थे काग़ज़ों पे बन रहे वो बड़े शेर मगर...
जो आया वक़्त तो पूछा तेरी पहल क्या है...

हवा उड़ा के लाई बादलों को दिल्ली से...
वो बाढ़ देके सोचते हैं इसका हल क्या है...

वो झोपड़ी, जहाँ रिश्तों के दिए जलते हों...
उसकी चौखट ही जानती है कि महल क्या है...

लिखते लिखते, किसी ख़्याल मे वो फिर आए...
पूछने हमसे लगे फिर नयी ग़ज़ल क्या है...

"खुली आँख की मौत"

Author: दिलीप /



जब दिन भर की मेहनत से हो कुछ बूँद पसीने की ढल्की...
जब चूल्हों मे सर्दी सी हो, और आँखों में बारिश हल्की...

जब अन्न उगाने वाले ही मुट्ठी भर चावल खाते हो...
जब मेघ घने आकर भी झूठी उम्मीदें बरसाते हो...

जब रूप लक्ष्मी का दुनिया मे आने को हो तरस रहा....
जब नुची कोख का लहू आँख से पानी बन हो बरस रहा...

जब सच हो बना तवायफ़, झूठों की महफ़िल हो नाच रहा...
जब धर्म-बिल्लियों की रोटी हो बंदर कोई बाँट रहा...

जब कूड़े मे कचरे के संग-संग बेटी फेंकी जाती हो...
जब मजबूरी हो नंगी, उससे आँखें सेंकी जाती हो...

जब पढ़े लिखे बंदर जैसे हो, और लोमड़ी राज करे...
जब कोई माँ रोटी की खातिर बीच सड़क निज लाज धरे....

जब अंधे की लकड़ी के अंदर दीमक करे बसेरा तो...
जब आँधियारे मे छिप कर बैठा हो बेशर्म सवेरा तो...

जब जहाँ कवायद जीने भर की पाँच साल का मुद्दा हो...
जब नग्न सियासत सोती हो और भूख, ग़रीबी गद्दा हो...

तब बोलो कैसे कलम मेरी फिर खुशियों वाली बात कहे...
फिर बोलो कैसे दिन हर होली और दीवाली रात कहे...

मैं तो बस मिट्टी और हवा मे घुले अश्क़ को भरता हूँ...
मैं "खुली आँख की मौत" को केवल दर्द समर्पित करता हूँ...