बादल के पंखों मे कुछ लफ्ज़ बाँध कर भेजे हैं...
बस पहुँचते ही होगे अभी...
छत पर जाना और और खोल लेना उन्हें...
फिर पढ़ कर बिखेर देना ज़मीन पर...
चिंता मत करना, लोग नहीं समझ सकते...
वो तो यही समझेंगे कि आज बारिश हुई है...
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जब बारिश हौले से छूती है...
तो सुबक उठती हैं दीवारें...
उन गर्म दीवारों में...
कुछ पुरानी यादों की बर्फ भी होती है...
जो पिघल उठती है...
उन ठंडी बूँदों की गर्माहट से...
पर दीवारों के आँसू कोई नहीं पोछता..
उन्हे खुद सूखना पड़ता है...
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घड़ी...
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पुरानी उन रसभरी बीती घड़ियों के गुच्छे से...
वो घड़ी मेरे सामने फुट पड़ी...
जब ये घड़ी तुमने मुझे दी थी...
उस दिन नब्ज़ रख दी थी मेरी कलाई पर...
अब यूँ रहती है मेरी कलाई पर...
जैसे तुमने अपनी ही हथेलियाँ रख दी हो...
और हर बार संभाल लेती हों गिरने से...
पर कभी तेज़ भागती है...कभी धीमे...
अब सही वक़्त नहीं बताती...
हाँ पर कोई पिछला 'सही' वक़्त ज़रूर बताती है....
जब सब सही था...