दो मुझे वरदान माँ.....

Author: दिलीप /


इस कलम को प्राण जो तूने दिया उपकार तेरा,
भाव का विस्तार जो तूने दिया उपकार तेरा...
भाव की इस मृत मृदा को उंगलियों का स्पर्श देकर...
ये विविध आकार जो तूने दिया उपकार तेरा...

आज पर वरदान तुझसे एक माँ मैं चाहता हूँ...
मैं अकिंचन आज तुझसे स्वप्न अपने बाँटता हूँ...
न अमरता न तो यश ही, न विजय की चाह मुझको...
मृत्यु, अपयश, हार से निर्भीक होना चाहता हूँ...

तेरी भक्ति की ज़रा स्याही पिला मेरी कलम को...
ऋण चुकाने की धरा का शक्ति दे मेरी कलम को...
जब लिखूं मैं सत्य मेरी लेखनी न लड़खड़ाए...
तू अभय का ग्रास कोई अब खिला मेरी कलम को...

डूबता यह पूर्व का दिनकर पकड़ कर खींच लाए...
मूर्छित होते हुए मन को छुए और सींच जाए...
दो मुझे वरदान माँ जब साँस भी उखड़े कलम की...
लेखनी उसकी चले यूँ यम को भी जो जीत जाए...

आज अपनी लेखनी माँ मैं तुझे करता समर्पित...
ज्योत धीमी ही सही पर भाव से रखना अखंडित...
चाह है परिवर्तनों की, क्रांति की, फिर शांति की...
फिर तुम्हारी राह मे ये प्राण कर दूँगा विसर्जित....

ए शाम! आख़िर तुम मुझसे इतना शरमाती क्यूँ हो...

Author: दिलीप /


बचपन मे जब खेल मेरा हाथ थाम चला ही होता था..
जब लगता था की बस तुम्हे छूने ही वाला हूँ...
तू जाने कहाँ छिप जाती थी...
तेरा घर निहारता था, तो बरामदे मे तुम्हारी माँ बैठी मिलती थी...
जवानी मे जब एक हाथ से कुछ एहसास बाँधे बैठता था...
बहुत मुश्किल से, कुछ डरते, कुछ छिपते...
तब भी मन करता था दूसरे हाथ से तुझे भी थाम लूँ...
पर जाने क्या जलन थी तुम्हे...
मेरे एहसास जानकर भी भाग ही जाती थी...
आज उम्र के साहिल फिर बैठा हूँ तन्हा अकेला...
तुम्हारी बाहों के इंतज़ार मे...
तुम्हारी आँखों मे हर याद फिर से जी लेने के लिए...
पर जानता हूँ तुम फिर से जल्दी मे ही होगी...
आज बता ही दो मुझे...
ए शाम ! आख़िर तुम  मुझसे इतना शरमाती क्यूँ हो...