बेईमानी की सुरंग मे, झुक के जाना पड़ रहा है...
घर बड़ा करने की खातिर, कद घटाना पड़ रहा है...
हमको ये मालूम है कि एक दिन ओले पड़ेंगे...
भीड़ का हिस्सा हैं पर, तो सिर मुन्डाना पड़ रहा
है...
थी अमानत और की, महफ़िल में पर दीदार तो था..
कौन जाना चाहता था, फिर भी जाना पड़ रहा है...
शाम से बस्ती की छत पर इक सितारा भी नहीं है...
उनको भट्टी मे कहीं बचपन जलाना पड़ रहा है...
ख्वाब भी उड़ने का देखे, हक कहाँ बेटी को ये है...
अपने पंखों को उसे ताला लगाना पड़ रहा है...
गाँव की मिट्टी, हवा, रिश्तों का सौंधापन कहाँ अब...
अब शहर के इस गणित मे सब घटाना पड़ रहा है...
वो पुराना खंडहर, मेहमान घर से दिख रहा था...
अब उसे बाबा को, कमरे से हटाना पड़ रहा है...
8 टिप्पणियाँ:
कितनी मजबूरियों में घिरता आकाश..
gambheer ...
antas chhooti ...
sundar abhivyakti ...
गाँव की मिट्टी, हवा, रिश्तों का सौंधापन कहाँ अब...
अब शहर के इस गणित मे सब घटाना पड़ रहा है..जाने कौन सा जहाँ बनता जा रहा है
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
जाने क्या क्या करना पड़ रहा है इंसान को......मगर फिर भी हैवान बना जा रहा है....
hmmmmm
बहुत गहन भाव लिए हुए ,बेहतरीन रचना
सुभानाल्लाह....आजकल बड़ी कातिल ग़ज़लें ला रहें हैं आप.....बहुत ही शानदार ग़ज़ल है ये.....दाद कबूल करें।
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