अरे भैया..जंगल घट नही, बढ़ रहा है...

Author: दिलीप /


कल सुना कि देश मे जंगल ख़त्म हो रहे हैं...
सारे जंगली जानवर घर के लिए रो रहे हैं...
सुन मैं हंसा, क्यूंकी मैं जानता हूँ ये झूठ है...
ये तो बस हमारी खबर बनाने की इक भूख है...

दरअसल हम तो सर्वत्र आदमीयत फैला रहे हैं...
धरा का हरा सिंदूर पोंछ लाल सज़ा रहे हैं...
और कौन कहता है जानवर बेघर हो रहे हैं...
अरे उनके लिए हम किराए का घर हो रहे हैं...

सोच रहे हैं कैसे तो चलिए मैं ही बताता हूँ...
घटने नही, जंगल बढ़ने की कहानी सुनाता हूँ...
अब लोमड़ी और सियार कल की तस्वीर बुनते हैं...
फिर आम सहमति से बंदर को राजा चुनते हैं...

बंदर जी बस कुर्सी के आगे पीछे ही नाचते हैं..
भूखे की रोटी छीनते हैं फिर उसे चिढ़ाते हैं...
साँप बिल बना, छुप के रहते हैं आस्तीन में...
चीते तो बस पीते हैं और वो भी दंत विहीन हैं...

पहले गीदड़ मरते समय शहेर की ओर थे आते...
अब तो वो शहेर मे ही है अक्सर सोते और खाते...
कभी कुछ हो जाए तो तोते कुछ रटा बोलते हैं...
गिद्ध, जी भर मौज करते और जिस्म नोचते हैं...

कुछ ज़्यादा बुरा हो तो मगर रोने चले आते हैं...
कुछ उल्लू से हैं जो देश के लिए मर जाते हैं...
बस एक शेर ही हैं जो अब थोड़े से ही बचे हैं...
वो भी बेचारे अब सरहद पे ज़ंजीरों मे बँधे हैं...

कहीं से कुत्ते आते हैं और उन्हे नोच खा जाते हैं...
फिर तबाही मचाने के लिए घरों मे घुस जाते हैं...
बस इसी तरह तो हमारा महान देश चल रहा है...
इसीलिए कहता हूँ, जंगल घट नही, बढ़ रहा है...

10 टिप्पणियाँ:

rajiv ने कहा…

Theek kaha jungle to badh raha hai. concrete ka jungle. chalte firte robot ka jungle .. socalled insano ka jungle.

बेनामी ने कहा…

bahut khub....
sahi farmaya aapne...
achhi rachna par badhai...

manish badkas ने कहा…

ये सच है के हमाम में सब नंगे हैं...,
सवाल मगर ये के हुआ शर्मिंदा कौन..!!

सूर्यकान्त गुप्ता ने कहा…

बहुत खूब!
क्या कल्पना है।
शायद मैने किसी पोस्ट मे लिखा है
कि यह मानव जानवर कहलाने के भी काबिल नही रहे
अपनी हरकतों के कारण।

शशि "सागर" ने कहा…

waaah! bahut hee sundar! kyaa kuch nahee kah dala hai aapne apanee is rachanaa k dwaara!

सु-मन (Suman Kapoor) ने कहा…

सुन्दर रचना

Uma Shankar Yadav ने कहा…

waha ji wah, Science bhi nahi prove kar sakti thi is baat ko aur aapne isko sabit kar diya
maza aa gaya, ab to sahi lag raha hai ki insaan
"Janwar" hai
tabhi main sonchu kisi ko gali do to sun leta hai kutta, billi, kuch bhi bolo ma behen seko koi dikkat nahi, kehte hain hum haathi hai hamein zamane ki fikr nahi, aur jaake chupke se apne bil mein ghus jate hain,
dukan se saman lete hain, 2 paisa bacha kar apne ko chatur batate hain sale ye bandar ki adat ko palte hain wo cheen ke late hain
suwaro ki tarah kuch bhi kabhi bhi khate hain aur daru pe ke kahi bhi pade rehte hain..

ab to hum bhi likhenge kuc time lagega lekin ha aap kuch hi dinu me mre blog pe kuch naya payenge

Rachna to ati sunder hain
hamein pasand hain

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" ने कहा…

बहुत अनुपम व्यंग कविता है ! अच्छा लगा ! आपकी कल्पना की दाद देनी पढेगी !

tilak ने कहा…

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SANSKRITJAGAT ने कहा…

achchha likha hai
shubh kamnaaen

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