कैसे माँ मुझसे कह पाए, उसको बड़ी उदासी है...
खून भरा उसकी आँखों मे, दिखती बहुत रुवान्सी है...
सोच रही है कैसे उसके, बेटे निरे नपुंसक हैं...
बिस्तर मे दुबके बैठे हैं, जलते मथुरा काशी हैं...
शायद हम अँग्रेज़ों की ही, करते अभी गुलामी है...
उनका ही पहनावा है और बस उनकी ही बानी है...
सदियों की पूंजी को हमने, सस्ते मे है बेच दिया...
साल मे ऐसे दो ही दिन हैं, जब हम हिन्दुस्तानी हैं...
जिसको तब पावन कहते थे, अब बिकती वो खादी है...
अपने हमको लूट रहे हैं, जाने क्या आज़ादी है...
रीढ़ बिना हम जीव हैं सारे, रेंग रहे हैं यहाँ वहाँ...
गूंगे बहरे हैं कहने को, सौ करोड़ आबादी है...
शेर कहीं मरते जो लड़कर, कीमत यहाँ लगाते हैं...
उनकी कुर्बानी को अक्सर हम कर्तव्य बताते हैं...
कहाँ समझते हैं हम बोलो, करुण रुदन उन हृदयों के...
जिनके टुकड़े देश की खातिर, अपनी जान लुटाते हैं....
चूर नशे मे चिल्लाते हैं, कहाँ कभी कुछ बदला है...
अपनी तो फ़ितरत है ऐसी, यहाँ सभी कुछ चलता है....
आज हमें विद्रोह की हल्की चिंगारी सुलगानी है...
और दिखाना है सबको कि, सब कुछ यहाँ बदलता है...
खून भरा उसकी आँखों मे, दिखती बहुत रुवान्सी है...
सोच रही है कैसे उसके, बेटे निरे नपुंसक हैं...
बिस्तर मे दुबके बैठे हैं, जलते मथुरा काशी हैं...
शायद हम अँग्रेज़ों की ही, करते अभी गुलामी है...
उनका ही पहनावा है और बस उनकी ही बानी है...
सदियों की पूंजी को हमने, सस्ते मे है बेच दिया...
साल मे ऐसे दो ही दिन हैं, जब हम हिन्दुस्तानी हैं...
जिसको तब पावन कहते थे, अब बिकती वो खादी है...
अपने हमको लूट रहे हैं, जाने क्या आज़ादी है...
रीढ़ बिना हम जीव हैं सारे, रेंग रहे हैं यहाँ वहाँ...
गूंगे बहरे हैं कहने को, सौ करोड़ आबादी है...
शेर कहीं मरते जो लड़कर, कीमत यहाँ लगाते हैं...
उनकी कुर्बानी को अक्सर हम कर्तव्य बताते हैं...
कहाँ समझते हैं हम बोलो, करुण रुदन उन हृदयों के...
जिनके टुकड़े देश की खातिर, अपनी जान लुटाते हैं....
चूर नशे मे चिल्लाते हैं, कहाँ कभी कुछ बदला है...
अपनी तो फ़ितरत है ऐसी, यहाँ सभी कुछ चलता है....
आज हमें विद्रोह की हल्की चिंगारी सुलगानी है...
और दिखाना है सबको कि, सब कुछ यहाँ बदलता है...
25 टिप्पणियाँ:
सार्थक आह्वान !
कैसे माँ मुझसे कह पाए, उसको बड़ी उदासी है.
खून भरा उसकी आँखों मे, दिखती बहुत रुवान्सी है.
सोच रही है कैसे उसके, बेटे निरे नपुंसक हैं.
बिस्तर मे दुबके बैठे हैं, जलते मथुरा काशी हैं.
@ बेटे नालायक निकल जाएँ तो खून के आँसू रोती ही है माँ.
इसलिये आज की माँओ को चाहिए कि वे अपने बच्चों को धूल से बचाने की चाह न पालें, बिस्तर घूसू न बनाएँ, वह पड़ताल करे कि 'घर से बाहर क्या उसके दोस्त बने हैं? क्या वह हर वर्ग के लोगों से मिलता है या नहीं? माँ को आज अपने लाड़-दुलार की वर्तमान परिभाषा बदलनी होगी.
शायद हम अँग्रेज़ों की ही, करते अभी गुलामी है.
उनका ही पहनावा है और बस उनकी ही बानी है.
सदियों की पूंजी को हमने, सस्ते मे है बेच दिया.
साल मे ऐसे दो ही दिन हैं, जब हम हिन्दुस्तानी हैं.
@ बहुत उम्दा पंक्तियाँ, सांस्कृतिक विरासत की जब पूरे साल बेकदरी हो और तब केवल दो-तीन दिन उसके सम्मान का नाटक अखरता ही है.
जिसको तब पावन कहते थे, अब बिकती वो खादी है.
अपने हमको लूट रहे हैं, जाने क्या आज़ादी है.
रीढ़ बिना हम जीव हैं सारे, रेंग रहे हैं यहाँ वहाँ.
गूंगे बहरे हैं कहने को, सौ करोड़ आबादी है.
मित्र, अंतिम पंक्ति में 'अर्धविराम' को गूंगे बहरे हैं(,) के बाद लगाएँ.
'कहने को सौ करोड़ आबादी है'... ठीक रहेगा.
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आपके शब्द हृदय को विदारित कर रहे हैं.
शेर कहीं मरते जो लड़कर, कीमत यहाँ लगाते हैं.
उनकी कुर्बानी को अक्सर हम कर्तव्य बताते हैं.
कहाँ समझते हैं हम बोलो, करुण रुदन उन हृदयों के.
जिनके टुकड़े देश की खातिर, अपनी जान लुटाते हैं.
@ देश की सीमाओं पर लड़कर शहीद होने वालों का तो 'कर्तव्य' कहा जाता है. देह की सीमाओं को लांघने वाला 'दैहिक सुख का भोक्ता' उसे मौलिक अधिकार कहता है. असल में, देश-धर्म पर मिटने वाले कीमत की चाहना नहीं रखते, फिर भी सैनिकों की शहादत को 'आदर्श घोटालों से सेल्यूट किया जाता है.
चूर नशे मे चिल्लाते हैं, कहाँ कभी कुछ बदला है.
अपनी तो फ़ितरत है ऐसी, यहाँ सभी कुछ चलता है.
आज हमें विद्रोह की हल्की चिंगारी सुलगानी है.
और दिखाना है सबको कि, सब कुछ यहाँ बदलता है.
@ किसी मंत्री के अपराध पर जब न्यायमूर्ती साहब कहें "चल्लो, आम बात लगती ना कोई खता है." तब खेद होता है.
लेकिन जब मामूली सी गलती की भी सजा 'मुकर्रर' होगी और बड़ी संजीदगी से उसपर कार्रवाई होगी तब बदलाव आयेगा.
छोटे-छोटे अपराध तो दूर की बात... ह्त्या, बलात्कार और लूट-खसौट के अपराधियों को पहचाने जाने पर भी खुलेआम घूमते ही नहीं सामाजिक सम्मान पाते देखा जाता है.
सटीक आह्वान
सुन्दर रचना
सदियों की पूंजी को हमने, सस्ते मे है बेच दिया...
साल मे ऐसे दो ही दिन हैं, जब हम हिन्दुस्तानी हैं...
सटीक ....भरत माँ के हृदय की बात को शब्दों में ढाला है ..सुन्दर अभिव्यक्ति
मन झकझोरती कविता। बहुत ही प्रेरक।
बेह्द उम्दा आह्वान्।
बहुत सुन्दर और भावमयी रचना।
बेह्द उम्दा आह्वान्....भावमयी रचना
कैसे माँ मुझसे कह पाए, उसको बड़ी उदासी है...
खून भरा उसकी आँखों मे, दिखती बहुत रुवान्सी है...
रुला दिया पहली ही दो लाइनों ने
चूर नशे मे चिल्लाते हैं, कहाँ कभी कुछ बदला है...
अपनी तो फ़ितरत है ऐसी, यहाँ सभी कुछ चलता है....
आज हमें विद्रोह की हल्की चिंगारी सुलगानी है...
और दिखाना है सबको कि, सब कुछ यहाँ बदलता है..
Vah Dilip ji...bahut sundar aurbhavpoorna abhivyakti...
रौद्र रस से भरपूर एक ओजपूर्ण रचना।
कैसे माँ मुझसे कह पाए, उसको बड़ी उदासी है...
खून भरा उसकी आँखों मे, दिखती बहुत रुवान्सी है...
सोच रही है कैसे उसके, बेटे निरे नपुंसक हैं...
बिस्तर मे दुबके बैठे हैं, जलते मथुरा काशी हैं...
सुन्दर अभिव्यक्ति
aisa lagta hai jaise khoon me kranti bhari hai ...kalam bolti si lagti hai ...
आज हमें विद्रोह की हल्की चिंगारी सुलगानी है...
और दिखाना है सबको कि, सब कुछ यहाँ बदलता है...ekdam sahi kaha...sab kuch badalta hai.
दिलीप भाई, सही कहा आपने। आपकी रचना पढकर अच्छा लगा। बधाई।
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सीधे सच्चे लोग सदा दिल में उतर जाते हैं।
बदल दीजिए प्रेम की परिभाषा...
bahut saarthak baat kahi hai aapne
bahut sundar !!! desh ka sach batane ki bahut acchi koshish!!
दिलीप भाई, जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ!
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एक यादगार सम्मेलन...
...तीन साल में चार गुनी वृद्धि।
बेशक बेहद लाजबाब रचना !
बधाई हो !
सदस्य बन रहा हूँ और आपको
भी अपने ब्लॉग जीवन पुष्प के लिए आमंत्रित कर रहा हूँ !
Bahut achi rachna hai.
उम्दा ..
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