हमें जीने मे क्यूँ होती है आसानी, बताते हैं...
हम अपने घर मे, अब कुछ और, वीरानी सजाते हैं...
खुदा, जिस दिन से तेरे नाम पर, जलते शहर देखे...
जलाते अब नही बाती, तुम्हे पानी चढ़ाते हैं...
हमें डर है की वो मिट्टी, हमें नापाक कर देगी...
तवायफ़ को तेरी बस्ती मे सब, रानी बताते हैं...
बतायें क्या, कभी उस मुल्क की बिगड़ी हुई हालत...
लुटेरे ही जहाँ पर आज, निगरानी बिठाते हैं...
लुटी थी कल कोई इज़्ज़त, तमाशे मे खड़े थे हम...
बड़े बेशर्म हैं, कि जात, मर्दानी बताते हैं...
छिपे हैं आस्तीनों मे ही कितने साँप ज़हरीले...
पकड़ पाते नही, तो पाक- इस्तानी बताते हैं....
हमारी माँ की इज़्ज़त को जो वहशी लूट जाते हैं...
उन्हे मेहमां बनाकर, उनकी नादानी बताते हैं...
जहाँ खेतों को अब पानी नही, बस खून मिलता है...
ये अफ़सर काग़ज़ों पर, खेत वो धानी दिखाते हैं...
बुरा लगता हो गर, झूठा, मुझे साबित करो यारों...
जिसे हो खून कहते, हम उसे पानी बताते हैं...
हम अपने घर मे, अब कुछ और, वीरानी सजाते हैं...
खुदा, जिस दिन से तेरे नाम पर, जलते शहर देखे...
जलाते अब नही बाती, तुम्हे पानी चढ़ाते हैं...
हमें डर है की वो मिट्टी, हमें नापाक कर देगी...
तवायफ़ को तेरी बस्ती मे सब, रानी बताते हैं...
बतायें क्या, कभी उस मुल्क की बिगड़ी हुई हालत...
लुटेरे ही जहाँ पर आज, निगरानी बिठाते हैं...
लुटी थी कल कोई इज़्ज़त, तमाशे मे खड़े थे हम...
बड़े बेशर्म हैं, कि जात, मर्दानी बताते हैं...
छिपे हैं आस्तीनों मे ही कितने साँप ज़हरीले...
पकड़ पाते नही, तो पाक- इस्तानी बताते हैं....
हमारी माँ की इज़्ज़त को जो वहशी लूट जाते हैं...
उन्हे मेहमां बनाकर, उनकी नादानी बताते हैं...
जहाँ खेतों को अब पानी नही, बस खून मिलता है...
ये अफ़सर काग़ज़ों पर, खेत वो धानी दिखाते हैं...
बुरा लगता हो गर, झूठा, मुझे साबित करो यारों...
जिसे हो खून कहते, हम उसे पानी बताते हैं...
27 टिप्पणियाँ:
कमाल की रचना है, बेहतरीन!
बहुत बेहतरीन
बहुत खूब,ऐसे ही हीरे बरसाइये।
लुटी थी कल कोई इज़्ज़त, तमाशे मे खड़े थे हम...
बड़े बेशर्म हैं, कि जात, मर्दानी बताते हैं...
बहुत अच्छा लिखा है -
काबिले तारीफ़ .
superb
wakai khoon paanee ho gaya hai
ek ek lafz par kurbaan
ला-जवाब" जबर्दस्त!!
...........काबिले तारीफ़
achchhee lagi rachna ...
बहुत शानदार रचना
वाह. बहुत ज़ोरदार गज़ल. सभी शेर बहुत अच्छे हैं. मतला और पहला शेर तो लाजवाब हैं.
लुटेरे ही जहाँ पर आज, निगरानी बिठाते हैं.
बहुत खूब.....
"छिपे हैं आस्तीनों मे ही कितने साँप ज़हरीले...
पकड़ पाते नही, तो पाक- इस्तानी बताते हैं...."
ekdum umda rachna Dileep ji...Kaafi dino baad aapka blog padhke sach me kuch achcha sa mahsoos hua...:)
छिपे हैं आस्तीनों मे ही कितने साँप ज़हरीले...
पकड़ पाते नही, तो पाक- इस्तानी बताते हैं....
baat bilkul sahi hai....
जहाँ खेतों को अब पानी नही, बस खून मिलता है...
ये अफ़सर काग़ज़ों पर, खेत वो धानी दिखाते हैं...
wah kya baat kahi hai ..talkh haqiqat ko kya adaygii di hai aapne
bahut sundar hamesha ki tarah....
कमाल की रचना है, बेहतरीन!
बेहद खूबसूरत रचना...बधाइयां....
awesome sir ji...
mene aaj pahali baar aapki kavita padhi aur kaafi saari padhi ahi...
har ek me kuch alag kuch naya aur har ek lajawab hai.....
hiii nice post
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but now iam deleting this blog and will write this poems and new poems and stories on anotehr blog
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thanks
अरे वाह..आप कब आये आगमन की सूचना भी नहीं मिली...मैंने तो सोचा ब्लॉग से नाता टूट गया आपका...
मैंने नया ब्लॉग बनाया है, हालाँकि अभी लिखना कम कर दिया है..लेकिन पढना अनवरत जारी है..
आता रहूँगा.....
dileep bhai,bahut maji kalam hai aap ki,umda ghazal ke liye hardik mangal kamnaye,badhai.
sasneh
dr.bhoopendra
हमें डर है की वो मिट्टी, हमें नापाक कर देगी...
तवायफ़ को तेरी बस्ती मे सब, रानी बताते हैं...
bahut khub
खुदा, जिस दिन से तेरे नाम पर, जलते शहर देखे...
जलाते अब नही बाती, तुम्हे पानी चढ़ाते हैं...
दिल की कलम को यूँ खामोश ना रखो जनाब कुछ तो आने दो बहुत दिन हो गए
होली रंगों के इस त्यौहार की हार्दिक शुभकामनाये।
jai baba banaras..............
nice
हमारी माँ की इज़्ज़त को जो वहशी लूट जाते हैं...
उन्हे मेहमां बनाकर, उनकी नादानी बताते हैं...
..........ye lines samajh na aai....baki sab sundar h.
छिपे हैं आस्तीनों मे ही कितने साँप ज़हरीले...
पकड़ पाते नही, तो पाक- इस्तानी बताते हैं...
एक शेर ही काफी है, कलई खोलने के लिये!
लाजवाब!
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