चाँद पर एक दादी रहा करती थी...

Author: दिलीप /


चाँद पर एक दादी रहा करती थी...
चरखा कातती...
कपड़े बनाया करती...
उजले कुर्ते, लाल कमीजें, काले स्वेटर...
बादल जब भी चाँद से गुज़रते...
दादी से ज़रूर मिलते थे...
हर मौसमी त्योहार पर कपड़े जो मिलते थे...
एक बार कई दिनों की मेहनत के बाद...
रात को एक चुनरी बना कर दी थी...
सितारे जड़ कर...
सूरज के लिए भी कई बार कपड़े बनाए...
पर शैतान हर बार उन्हें जला देता...
आग से खेलने की आदत जो थी उसे...
फिर नंगा, शाम को शरमा कर छिप जाता...
फिर एक दिन ग़ज़ब हो गया...
इंसान चाँद पर पहुँचा...
साइंस की बंदूक से दादी को मार दिया...
रात की चुनरी के सितारे टूटने लगे...
बादल अचानक ही फूट फूट कर रो पड़ते...
सूरज अब और जलता है...
पर साइंस की बंदूकें बढ़ रही हैं...
और न जाने कितनी दादियाँ और कितनी कहानियाँ मर रही हैं...
कहते हैं अब आसमान मे सुराख हो गया है...
वहाँ से आग आती है...
काश दादी होती तो पैबंद लगा देती...

मुझे इंसान न कर, मुझको कैलेंडर कर दे...

Author: दिलीप /


मुझे वो न दे सही, इतना तो मगर कर दे...
मुझे मंज़िल न सही, उसकी बस डगर कर दे...

मेरे दामन मे पके घर हैं, और दिल कच्चे...
मेरी सरकार, अब मुझे भी तू, शहर कर दे...

कोई आए जो, लिखे नाम, हो न फ़र्क मुझे...
बहार में तू मुझे, सूखा सा शजर कर दे...

हर एक चेहरा, उजाले में ज़रा देख तो लूँ...
बस एक दिन के लिए ही सही, सहर कर दे...

टूटी इज़्ज़त, ग़रीब मौत, मुझे ओढ़ सकें...
फटी फटी ही सही, मुझको तू चादर कर दे...

सभी के न दे अगर, कुछ के अश्क़ दे दे मुझे...
मुझे सागर नहीं, तो कम से कम नहर कर दे....

मेरी कीमत कभी गिरे नहीं, बढ़ती ही रहे...
मुझे रुपया नहीं, सरकार की मोहर कर दे...

सभी ये चाहते हैं, रोज़ नया हो जाऊं...
मुझे इंसान न कर, मुझको कैलेंडर कर दे...

सुबह अक्सर ही दीवारों पर तेरा नाम मिले...

Author: दिलीप /


वो ठूंठ बाँह लिए कहता रहा, काम मिले...
मुझे तरस नहीं, मेहनत का मेरी, दाम मिले...

मैं थक गया हूँ रात से, के अब हो कुछ ऐसा...
थोड़ी सुबह, या ज़रा दिन, ज़रा सी शाम मिले...

मुझे तो, दर्द सहन करने की, आदत की गरज...
कहाँ मैं चाहता हूँ कि, मुझे आराम मिले...

ज़रा सा रंग और सियासतों में भेद करो...
तो देखना के सब जगह ही खुदा, राम मिले...

है चाँद छीन ले गया, मेरी नींदें मुझसे...
चलो कभी तो उसे उसका इन्तेकाम मिले...

मुझे तो नींद मे लिखने की बीमारी का है डर...
सुबह अक्सर ही दीवारों पर तेरा नाम मिले..

बाज़ार...

Author: दिलीप /

एहसास बहुत बासी हो गये थे...
बदबू मारते थे अब...
ठंडी हवा के बहाने, खिड़की खोल कर फेंक दिए...
चारपाई का एक पाया छोटा था तो...
ख्वाबों के बुरादे की एक छोटी सी तकिया बनाकर...
रख दी पाए के नीचे...
इज़्ज़त की एक मुचडी हुई, फटी चादर...
बिछा दी चारपाई पर...
शर्म पहले दो चोटियों मे गुँथी रहती थी...
चोटी नोच दी थी किसी ने...
शर्म को बेघर कर दिया था...
अब चौखट पर पड़ी रहती है...
अंदर नहीं आती...
वो औरत लाश के मानिंद...
लेट जाती है...
गिद्ध आते हैं, नोच जाते हैं...
समझ नहीं आता...
ये किसका बाज़ार है...
यहाँ कौन बिक रहा है...

घर बड़ा करने की खातिर, कद घटाना पड़ रहा है...

Author: दिलीप /




बेईमानी की सुरंग मे, झुक के जाना पड़ रहा है...
घर बड़ा करने की खातिर, कद घटाना पड़ रहा है...

हमको ये मालूम है कि एक दिन ओले पड़ेंगे...
भीड़ का हिस्सा हैं पर, तो सिर मुन्डाना पड़ रहा है...

थी अमानत और की, महफ़िल में पर दीदार तो था..
कौन जाना चाहता था, फिर भी जाना पड़ रहा है...

शाम से बस्ती की छत पर इक सितारा भी नहीं है...
उनको भट्टी मे कहीं बचपन जलाना पड़ रहा है...

ख्वाब भी उड़ने का देखे, हक कहाँ बेटी को ये है...
अपने पंखों को उसे ताला लगाना पड़ रहा है...

गाँव की मिट्टी, हवा, रिश्तों का सौंधापन कहाँ अब...
अब शहर के इस गणित मे सब घटाना पड़ रहा है...

वो पुराना खंडहर, मेहमान घर से दिख रहा था...
अब उसे बाबा को, कमरे से हटाना पड़ रहा है...