वो ठूंठ बाँह लिए कहता रहा, काम मिले...
मुझे तरस नहीं, मेहनत का मेरी, दाम मिले...
मैं थक गया हूँ रात से, के अब हो कुछ ऐसा...
थोड़ी सुबह, या ज़रा दिन, ज़रा सी शाम मिले...
मुझे तो, दर्द सहन करने की, आदत की गरज...
कहाँ मैं चाहता हूँ कि, मुझे आराम मिले...
ज़रा सा रंग और सियासतों में भेद करो...
तो देखना के सब जगह ही खुदा, राम मिले...
है चाँद छीन ले गया, मेरी नींदें मुझसे...
चलो कभी तो उसे उसका इन्तेकाम मिले...
मुझे तो नींद मे लिखने की बीमारी का है डर...
सुबह अक्सर ही दीवारों पर तेरा नाम मिले..
7 टिप्पणियाँ:
साधु-साधु
शाश्वत प्रेम....बधाई
वाह...वाह......
सभी सुंदर...
एक से बढ़कर कर एक.....
hridaysparshi bhaav ...
bahut sundar ..
bahut badhiyaa
मुझे तो, दर्द सहन करने की, आदत की गरज...
कहाँ मैं चाहता हूँ कि, मुझे आराम मिले...
अहा, मन के भाव निचोड़ लिये आपने।
वाह बहुत खूब दिलीप ...
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मुझे तो नींद मे लिखने की बीमारी का है डर...
सुबह अक्सर ही दीवारों पर तेरा नाम मिले..
bahut hi khubsurat gazal....ye sher to lajawab hai
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