सुबह अक्सर ही दीवारों पर तेरा नाम मिले...

Author: दिलीप /


वो ठूंठ बाँह लिए कहता रहा, काम मिले...
मुझे तरस नहीं, मेहनत का मेरी, दाम मिले...

मैं थक गया हूँ रात से, के अब हो कुछ ऐसा...
थोड़ी सुबह, या ज़रा दिन, ज़रा सी शाम मिले...

मुझे तो, दर्द सहन करने की, आदत की गरज...
कहाँ मैं चाहता हूँ कि, मुझे आराम मिले...

ज़रा सा रंग और सियासतों में भेद करो...
तो देखना के सब जगह ही खुदा, राम मिले...

है चाँद छीन ले गया, मेरी नींदें मुझसे...
चलो कभी तो उसे उसका इन्तेकाम मिले...

मुझे तो नींद मे लिखने की बीमारी का है डर...
सुबह अक्सर ही दीवारों पर तेरा नाम मिले..

7 टिप्पणियाँ:

Arun sathi ने कहा…

साधु-साधु

शाश्वत प्रेम....बधाई

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

वाह...वाह......
सभी सुंदर...
एक से बढ़कर कर एक.....

Anupama Tripathi ने कहा…

hridaysparshi bhaav ...
bahut sundar ..

sonal ने कहा…

bahut badhiyaa

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

मुझे तो, दर्द सहन करने की, आदत की गरज...
कहाँ मैं चाहता हूँ कि, मुझे आराम मिले...

अहा, मन के भाव निचोड़ लिये आपने।

शिवम् मिश्रा ने कहा…

वाह बहुत खूब दिलीप ...

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बेनामी ने कहा…

मुझे तो नींद मे लिखने की बीमारी का है डर...
सुबह अक्सर ही दीवारों पर तेरा नाम मिले..

bahut hi khubsurat gazal....ye sher to lajawab hai

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