याद है तुम...
लब खोलती थी और...
कोहरा झोंक दिया करती थी..
आईने की आँख मे...
फिर रोशनी का कोई टुकड़ा...
उंगली की पोर पर रख कर....
नाम लिख देती थी मेरा...
चमक जाता था आईना...
और साथ में, मैं भी...
अब आईनों पर कोहरे नहीं रखता कोई...
आँधी चलती है...
गर्द रह जाती है...
कुछ दिखता नहीं....
फिर बारिश होती है...
कुछ अंदर भी, कुछ बाहर भी...
पर आईना चमकता नहीं,
बस धुल जाता है...
और नाम मेरा जो फीका फीका चमक रहा था...
बुझ
जाता है, बह जाता है...
7 टिप्पणियाँ:
आईने की आँख मे...
फिर रोशनी का कोई टुकड़ा...
उंगली की पोर पर रख कर....
नाम लिख देती थी मेरा...
चमक जाता था आईना...
और साथ में, मैं भी...!
bahut khoob......!!
बहुत खूबसूरती से दर्द अभिव्यक्त किया है ...
मर्मस्पर्शी....रचना ...
bahut hi khubsurat
अहा, बहुत ही अच्छा और अलग..
kya sundar tareeke se sajaaya hai bhavo ko.... har shabd chamak gaya...
kunwar ji,
पर आईना चमकता नहीं,
बस धुल जाता है...
और नाम मेरा जो फीका फीका चमक रहा था...
बुझ जाता है, बह जाता है...
कितनी सरलता है दर्द को व्यक्त किया है आपने... बहुत सुन्दर भाव
वाह हमेशा की तरह शानदार
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