कल शहर मे आग पकड़ने वाले घूम रहे थे...
मैं अपनी झोपड़ी मे दुबक बस शोर सुन रहा था...
छत के छेद से झाँक कर देखा तो...
लोग हाथों मे आग दबोन्चे दौड़ रहे थे...
आग तड़प रही थी...
चीख रही थी...
हवा से गुहार कर रही थी की बचाले...
हवा भी अपनी ही धुन मे थी...
आग को दो चार हाथ लगाए और चलती बनी...
तभी कोई आग किसी हथेली से छिटक कर...
मेरी छत पर उड़ आई...
पेट से थी शायद, न जाने कितने अंडे दे डाले...
समझ नहीं पाया किसे बचाऊँ..
आग को या झोपड़ी को...
बाहर भाग गया, रात भर नहीं लौटा...
सुबह लौटा, तो न आग बची थी, न झोपड़ी..
9 टिप्पणियाँ:
कमाल है जनाब....क्या खूब लिखते हैं आप।
हम्म, सशक्त रचना।
आग का राग, बहुत खूब..
आग ने काश पानी से गुहार की होती......
खाना न सही पानी से ही शायद शांत होती.....
अच्छा लिखा हैआपने.
आग से कोई कैसे भाग पायेगा भला
marmik vyatha ka hridyasparshi varnan!
Umda abhivyakti!
adhbhut sir,kya baat hai
आग का राग गहन भाव अभिव्यक्ति...
बहुत ही सशक्त रचना
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