कल शहर मे आग पकड़ने वाले घूम रहे थे...

Author: दिलीप /


कल शहर मे आग पकड़ने वाले घूम रहे थे...
मैं अपनी झोपड़ी मे दुबक बस शोर सुन रहा था...
छत के छेद से झाँक कर देखा तो...
लोग हाथों मे आग दबोन्चे दौड़ रहे थे...
आग तड़प रही थी...
चीख रही थी...
हवा से गुहार कर रही थी की बचाले...
हवा भी अपनी ही धुन मे थी...
आग को दो चार हाथ लगाए और चलती बनी...
तभी कोई आग किसी हथेली से छिटक कर...
मेरी छत पर उड़ आई...
पेट से थी शायद, न जाने कितने अंडे दे डाले...
समझ नहीं पाया किसे बचाऊँ..
आग को या झोपड़ी को...
बाहर भाग गया, रात भर नहीं लौटा...
सुबह लौटा, तो न आग बची थी, न झोपड़ी..

9 टिप्पणियाँ:

बेनामी ने कहा…

कमाल है जनाब....क्या खूब लिखते हैं आप।

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

हम्म, सशक्त रचना।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

आग का राग, बहुत खूब..

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

आग ने काश पानी से गुहार की होती......
खाना न सही पानी से ही शायद शांत होती.....

Rakesh Kumar ने कहा…

अच्छा लिखा हैआपने.
आग से कोई कैसे भाग पायेगा भला

Unknown ने कहा…

marmik vyatha ka hridyasparshi varnan!

Umda abhivyakti!

anoop joshi ने कहा…

adhbhut sir,kya baat hai

Pallavi saxena ने कहा…

आग का राग गहन भाव अभिव्यक्ति...

सदा ने कहा…

बहुत ही सशक्‍त रचना

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