महफ़िलों में एक जलती नज़्म गा लेते हैं हम...

Author: दिलीप /

बढ़ रही सर्दी में इक बस्ती जला लेते हैं हम...
प्यास जो बढ़ने लगी, खूं से बुझा लेते हैं हम...

इस सियासत ने हमें करतब सिखाए हैं बहुत...
आँख से सड़कों की भी काजल चुरा लेते हैं हम...

जुर्म अब करते यहाँ है, ताल अपनी ठोक के...
और फिर हंसता हुआ बापू दिखा देते हैं हम...

खूँटियों से बाँध कर रखते हैं अपनी बेटियाँ...
भाषणों में उसको इक देवी बता लेते हैं हम...

क्या करें उस जंग के मैदान के भाषण का हम...
भर चुकी हर पास बुक, गीता बना लेते हैं हम...

बैठ कर घुटनों के बल, सिज्दे में क्या क्या न कहा...
उसकी कुछ सुनते नहीं, अपनी सुना लेते हैं हम...

हमसे ज़्यादा गर हुनर वाला दिखे तो बोलना...
लाश के ढेरों पे भी, दिल्ली बसा लेते हैं हम...

मुल्‍क़ की रहमत का हमपर, क़र्ज़ जो बढ़ता दिखे....
महफ़िलों में एक जलती नज़्म गा लेते हैं हम...

5 टिप्पणियाँ:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सच है, यही करतब कर रहे हैं हम सब।

Dr ajay yadav ने कहा…

बेहद खूबसूरत ब्लॉग ब्रदर |
और लेखन तो बहुत ही खूबसूरत |
बहुत ही सुंदर गजल |
WE WISH STRONG , PROSPEROUS , PEACEFUL , UNITED INDIA NOT ANY PERSON OR PARTY

ASHOK BIRLA ने कहा…

behtrin ek ek shabd ....

इमरान अंसारी ने कहा…

बहुत ही खुबसूरत सी ग़ज़ल।

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

बहुत खूब...

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