आओ मिलकर ज़रा इस पर भी गौर करते हैं...

Author: दिलीप /

मुल्क़ ज़िंदा न फिर हो जाए, ख़ौफ़ रखते हैं...
वो तो लाशों की नुमाइश का शौक रखते हैं...

यहाँ संसद ने तड़पते हुए, दम तोड़ दिया...
वो अपनी बात में ज़हरीला छौंक रखते हैं...

वो जो ऐलान कागज़ी उड़ा रहे हैं अभी...
उसके नीचे छिपी मुहर में मौत रखते हैं....

एक हमले में जो दुबके हुए थे मेज तले...
बदन पे देखो तो खादी का रौब रखते हैं...

जो कई साल से बाँटा किए थे भूख यहाँ...
वो आज हाथ में रोटी का कौर रखते हैं...

यूँ दिल की आग को आँसू से मिटाएँ कब तक...
आओ मिलकर ज़रा इस पर भी गौर करते हैं...

5 टिप्पणियाँ:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बहुत बड़ा सच छिपा है आपकी पंक्तियों में..

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

वाह !!! क्या बात है,बहुत उम्दा,सुंदर गजल ,,,

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संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

एक एक बात में सच्चाई है ... बहुत खूबसूरत गज़ल

Anupama Tripathi ने कहा…

यूँ दिल की आग को आँसू से मिटाएँ कब तक...
आओ मिलकर ज़रा इस पर भी गौर करते हैं...

दमदार ...प्रभावशाली ....हृदयस्पर्शी भाव ...!!
शुभकामनायें ...!!

kunwarji's ने कहा…

बहुत सुन्दर भाव!

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