चंद्रशेखर आज़ाद को जलते हुए सुमन..

Author: दिलीप /

अब खून में आतिश का आगाज़ ज़रूरी है...
ज़हनी गुलामों होना आज़ाद ज़रूरी है...

हो बाँसुरी के स्वर से गूंज़ीं भले फ़िज़ायें...
पर चक्र सुदर्शन भी इक हाथ ज़रूरी है...

काग़ज़ से रगड़ खाकर चिंगारियाँ उठाए...
स्याही में क़लम की अब कुछ आग ज़रूरी है...

तुम अश्क़, चाँद, मय से ग़ज़लें सजाओ लेकिन...
जलती हुई चिता की भी राख ज़रूरी है...

यूँ मुफ़लिसी के दाने, खाएँगे पेट कब तक...
सूखे शजर से निकले इक शाख ज़रूरी है...

बदलाव का बवंडर चौखट पे फिर खड़ा है...
गूंगे गले से निकले आवाज़ ज़रूरी है...

जिस मुल्क के महल अब बेफ़िक्र सो रहे हैं...
उस मुल्क में जगा इक फुटपाथ ज़रूरी है...

दिल्ली की सल्तनत पे क़ब्ज़ा है मसख़रों का...
संजीदगी का उनको अब पाठ ज़रूरी है...

बारूद हो नसों में, आँखों में बेकली हो...
अब फिर से मुल्क को इक 'आज़ाद' ज़रूरी है...

11 टिप्पणियाँ:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सच झिंझोड़ता कथ्य..

Unknown ने कहा…

so inspiring..

ब्लॉग बुलेटिन ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन ३ महान विभूतियों के नाम है २३ जुलाई - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति ....!!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार (24-07-2013) को में” “चर्चा मंच-अंकः1316” (गौशाला में लीद) पर भी होगी!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बदलाव का बवंडर चौखट पे फिर खड़ा है...
गूंगे गले से निकले आवाज़ ज़रूरी है...

जिस मुल्क के महल अब बेफ़िक्र सो रहे हैं...
उस मुल्क में जगा इक फुटपाथ ज़रूरी है..

झकझोर देने वाली रचना ....

Pallavi saxena ने कहा…

सब कुछ ज़रूरी है... :)

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सच है आज तो आज़ाद की जरूरत और भी ज्यादा है ...

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…


बारूद हो नसों में, आँखों में बेकली हो...
अब फिर से मुल्क को इक 'आज़ाद' ज़रूरी है...
- बहुत ज़रूरी है !

Prabhakar ने कहा…

ओजस्वी रचना

Anu Shukla ने कहा…

बेहतरीन
बहुत खूब!

HindiPanda

Kailash meena ने कहा…

अब खून में आतिश का आगाज़ ज़रूरी है...
ज़हनी गुलामों होना आज़ाद ज़रूरी है...

हो बाँसुरी के स्वर से गूंज़ीं भले फ़िज़ायें...
पर चक्र सुदर्शन भी इक हाथ ज़रूरी है...

काग़ज़ से रगड़ खाकर चिंगारियाँ उठाए...
स्याही में क़लम की अब कुछ आग ज़रूरी है...

तुम अश्क़, चाँद, मय से ग़ज़लें सजाओ लेकिन...
जलती हुई चिता की भी राख ज़रूरी है...

यूँ मुफ़लिसी के दाने, खाएँगे पेट कब तक...
सूखे शजर से निकले इक शाख ज़रूरी है...

बदलाव का बवंडर चौखट पे फिर खड़ा है...
गूंगे गले से निकले आवाज़ ज़रूरी है...

जिस मुल्क के महल अब बेफ़िक्र सो रहे हैं...
उस मुल्क में जगा इक फुटपाथ ज़रूरी है...

दिल्ली की सल्तनत पे क़ब्ज़ा है मसख़रों का...
संजीदगी का उनको अब पाठ ज़रूरी है...

बारूद हो नसों में, आँखों में बेकली हो...
अब फिर से मुल्क को इक 'स्वतंत्रता' ज़रूरी है...

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