धुआँ उठता है थोड़ी दूर पर, क्या जला होगा...
कोई इंसान, कोई घर या फिर बचपन जला होगा...
फटे आँचल को ठंडी राख का तोहफा मिला है आज...
ज़मीं को गोद में इंसान रखना अब ख़ला होगा...
अंधेरा आज फिर बुझते हुए चाँदों से रोशन है...
कहीं दिन जल गया होगा, कोई सूरज ढला होगा...
मुझे डस कर कहीं पर छिप गया है आज फिर इक दिन...
कहाँ मुझको खबर थी, आस्तीनों में पला होगा...
ये सूखा एक मौसम फिर छलेगा कुछ उमीदों को...
किसी रस्सी के फंदे में फँसा कोई गला होगा...
कहीं पर भूख ने दम तोड़ कर शायद खुशी दी है...
कहीं पर अब्र पत्थर का कोई शायद गला होगा...
कलम ने बोझ से थककर अभी इक नज़्म फेंकी है...
किसी इक शाख पर यादों की इक आँसू फला होगा...
10 टिप्पणियाँ:
वाह दिलीप जी वाह...........
हर शेर लाजवाब........
मुझे यकीन है आप मशहूर ज़रूर होंगे...
अनु
बहुत उम्दा।
हर शेर मुकम्मल....दाद कबूल करें।
:)
कलम ने बोझ से थककर अभी इक नज़्म फेंकी है...
किसी इक शाख पर यादों की इक आँसू फला होगा...
लाजवाब करती प्रस्तुति ... आभार
कुछ तो हुआ है, मन धड़का है..
उदासी , अनमनापन ,धुंआ , शोरगुल कहीं कुछ तो हुआ होगा!
बेहतरीन !
bahut bahut shukriya doston...
nihayat hi khoobsoorat gazal...
हर शेर मुकम्मल....दाद कबूल करें।
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