अब ये खिड़कियाँ बंद रहती हैं....
पहले बारिश की छीटें खटखटाती...
तो हवा खोल दिया करती थी खिड़कियाँ...
सब चाल थी तुम्हें खिड़की तक लाने की....
तुम्हारी छुवन घोल के ले जाती थी संग संग....
अब मंज़र बदल गया है....
हवा को डाँट देता हूँ...
वरना बारिश की छींटों के संग संग....
कुछ छीटें तुम्हारी भी आ जाती हैं....
पूरा कमरा भीग जाता है और संग संग आँखें भी....
बस इसीलिए
अब ये खिड़कियाँ बंद ही रहती हैं....
15 टिप्पणियाँ:
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ...
कितनी बंद कर लें खिड़कियाँ...ये दस्तक चैन कहाँ लेने देगी.....
अनु
स्मृतियाँ रह रह बरसती हैं।
ये छींटे बंद खिडकियों से भी आ जाते हैं, भिगो जाते हैं...
Sach kabhi,kabhi kayi khidkiyan ek saath band ho jatee hain!
Touched..
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
सुन्दर रचना!
बहुत ही बेहतरीन।
वाह ...बहुत ही बढिया ।
कल 01/08/2012 को आपकी इस पोस्ट को नयी पुरानी हलचल पर लिंक किया जा रहा हैं.
आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
'' तुझको चलना होगा ''
आँखें भीगना यूँ ही नहीं है.....
शायद वर्तमान की स्थितियाँ सुखद अनुभूति में तुलनात्मक रूप से पुरानी के कमतर हैं? इसीलिए हवा के झोंकों को, खिडकियों को जबरन बंद करके रोका जाता है.
हवा को डांट देता हूं....
इस एक लाइन में जो दर्द बयां हो रहा है न वो पूरी कविता पर भारी है....अच्छी अभिव्यक्ति
भावों में भर गया 'प्रदूषण',मन की खिडकी कर लो बन्द |
गीतों की मिट चुकी मृदुलता,नहीं मधुरता भरते छन्द ||
बदली से ज्यों चाँद घिर गया,पडी चांदनी है धुँधली-
फीका फीका 'हास' सलोना,कितना नकली है आनन्द ||
देवदत्त प्रसून जी,
आपने काव्य की बहुत सुन्दर पंक्तियाँ पढ़ने को दीं.... आनंद आया.
too good!!
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